(डिस्क्लेमर: यह स्टोरी नेटफ्लिक्स की आगामी डॉक्यूमेंट्री 'बैड बॉय बिलियनेर्स: इंडिया' पर द क्विंट द्वारा किए आर्टिकल की एक सीरीज का भाग- II है, डॉक्यूमेंट्री 'बैड बॉय बिलियनेर्स: इंडिया' 2 सितंबर को रिलीज होने वाली है. डॉक्यूमेंट्री में चार भारतीय अरबपतियों की जिंदगी को शामिल किया गया है - विजय माल्या, सुब्रत रॉय, नीरव मोदी और रामलिंग राजू. पहला पार्ट आप लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं.)
अगर आपने सहारा में काम किया है तो इससे जुड़े कुछ खास अनुभव आपको जरूर याद होंगे. इसके लखनऊ स्थित मुख्यालय की भव्यता ने आपको जरूर चकाचौंध किया होगा. वहां पर होने वाले सालाना जलसों में ग्रुप प्रमुख सुब्रत रॉय के प्रवचन को सुनकर जम्हाई लेने की शायद तीव्र इच्छा जगी होगी.
ग्रुप के स्थापना दिवस समारोह में याद दिलाया गया होगा कि कैसे 1978 में महज 2,000 रुपए से शुरू कर सुब्रत रॉय ने कंपनी को हजारों करोड़ रुपए का बना दिया है. और आपने जरूर महसूस किया होगा कि परिवार के रूप में मशहूर समूह में निचले स्तर पर काम करने वालों की जॉब सिक्योरिटी तो है लेकिन सैलरी इतनी कम है कि गुजारा भी मुश्किल.
इन सारे अनुभवों के बीच एक सवाल मन में बार बार आता होगा- इतना कुछ होने के बावजूद इस बिजनेस समूह को लोग ज्यादा गंभीरता से क्यों नहीं लेते. सहारा समूह के पास दावों की लंबी लिस्ट है जिसे देखकर लगता है कि इसका शुमार बड़े समूहों में तो होना ही चाहिए. लिस्ट पर एक नजर दौड़ाइए-
- समूह के पास एंबी वेली जैसी प्रॉपर्टी और 36,000 एकड़ से ज्यादा का लैंड बैंक होने का दावा
- 2012 में बड़े विवाद में फंसने से पहले कंपनी ने लंदन में ग्रॉसवेनर हाउस और न्यूयॉर्क में प्लाजा होटल खरीदा था
- पुणे की आईपीएल टीम की मिल्कियत इसी ग्रुप के पास हुआ करती थी. फोर्स इंडिया नाम की फॉर्मूला वन रेशिंग टीम में सहारा ग्रुप की हिस्सेदारी थी
- 90,000 करोड़ रुपए की लागत से 60 से ज्यादा शहरों में आधुनिक टाउनशिप बनाने की योजना थी
- कभी इस समूह में 11 लाख लोग काम करते थे. इसका कारोबार रियल एस्टेट, हेल्थकेयर, फाइनेंशियल सर्विसेज, इंश्योरेंस, इंटरटेनमेंट और मीडिया के क्षेत्र में फैला था
- बॉलीवुड के बादशाहों और क्रिकेट के दिग्गजों की सुब्रत रॉय के दरबार में हाजिरी बराबर लगती रहती थी.
लेकिन ताज्जुब है कि इतने प्रभावशाली लिस्ट के बावजूद सहारा इंडिया ब्रांड का धाक वैसा नहीं था जैसा उसे होने चाहिए था. क्यों? समूह का देश के दो बड़े रेगुलेटर्स- रिजर्व बैंक और सेबी- से हुए सामना का क्या नतीजा निकला, इसमें जवाब मिल जाएगा.
RBI और SEBI से जब हुआ सामना
2008 में रिजर्व बैंक का आदेश आया कि सहारा इंडिया फाइनेंशियल कॉरपोरेशन लोगों से डिपॉजिट नहीं लेगा. पूरे ग्रुप के लिए यह बड़ा झटका था. चूंकि समूह के दूसरे कारोबार मुनाफा नहीं कमा रहे थे इसीलिए जरूरी था कि सहारा को लोगों से डिपॉजिट मिलती रहे. लेकिन रिजर्व बैंक ने उस रास्ते को बंद कर दिया. यह ग्रुप के लिए बड़ा झटका था.
लेकिन इसके कुछ ही महीने बाद यह तथ्य सामने आया कि सहारा की दो रियल एस्टेट कारोबार से जुड़ी कंपनियां बांड जारी कर लोगों से लगातार पैसा जुटा रही है. बांड में वादा किया जा रहा था कि 10 साल में जमा पैसा करीब 3 गुना बढ़ जाएगा.
इस पर मार्केट रेगुलेटर सेबी की नजर गई. सेबी ने ना सिर्फ स्कीम पर रोक लगाई बल्कि सहारा को आदेश दिया कि वो निवेशकों का पैसा तत्काल लौटाए. सेबी की दलील थी कि जैसे ही कोई कंपनी 50 से ज्यादा निवेशकों से पैसा जुटाती है उसको सेबी की इजाजत लेनी जरूरी है. सहारा ने सेबी से इसकी इजाजत नहीं ली थी. सेबी का कहना था कि सहारा ने करीब 3 करोड़ लोगों से 20,000 करोड़ रुपए से ज्यादा रकम जुटाए.
सहारा की दलील थी कि उसने कॉरपोरेट मंत्रालय से इसकी इजाजत ले ली थी. मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. अगस्त 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सहारा 90 दिन के अंदर सेबी के पास 24,000 करोड़ रुपए जमा करे. और सेबी को कहा गया कि वो निवेशकों का पता लगाकर सबको सूद सहित रकम वापस करे.
कोर्ट के आदेश के पालन में देरी की वजह से सुब्रत रॉय और उनके दो सहयोगियों को 2014 में जेल जाना पड़ा. इधर सालों की कोशिश के बावजूद सेबी सहारा के सारे बांड निवेशकों का ढ़ूंढ नहीं पाई और अभी तक कुछ करोड़ रुपए ही वापस किए गए हैं.
सहारा के कारोबार में पारदर्शिता की कमी
सहारा के पक्ष में बोलने वालों की दलील है कि इसने फाइनेंशियल सिस्टम से उनको जोड़ा जिनकी पहुंच बैंकों तक नहीं थी. इस हिसाब से सहारा ने फाइनेंशियल इनक्लूजन को बढ़ावा दिया है.
लेकिन जानकारों की दलील है कि सहारा ने ना तो कभी अपने कारोबार में पारदर्शिता दिखाई है और ना ही रेगुलेशन की सच्ची भावना से पालन किया है. उनका कहना है कि जब आरबीआई ने डिपॉजिट लेने पर रोक लगाई तो सहारा ने बांड के जरिए पैसा उठाना शुरू किया. जब बांड पर रोक लगी तो कोऑपरेटिव सोसायइटी के नाम पर पैसा जुटाने की कोशिश शुरू हुई. मतलब कि एक रेगुलेटर से मनाही के बाद सहारा ने पिच बदलकर दूसरे रेगुलेटर के क्षेत्र में खेलना शुरू कर दिया.
सहारा पर दूसरे आरोप भी लगते रहे हैं. जानकारों का कहना है कि सहारा से जुड़े निवेशकों को पैसा निकालने में बड़ी दिक्कत होती है. निवेशकों को एक के बाद दूसरे स्कीमों से जोड़ने का सिलसिला जारी रहता है, ताकि रिडेम्पशन की जरूरत ही ना पड़े. और दूसरा आरोप है कि समूह लोगों से कितना पैसा उठाता है और उसको कहां-कहां निवेश करता है, इसको जानने का कोई पारदर्शी तरीका नहीं है.
पारदर्शिता की कमी की वजह से ही सहारा इंडिया ब्रांड कभी भी वो मुकाम नहीं हासिल कर पाया जो वो पा सकता था. और समूह का रेगुलेटरी दायरे से बारह रहने की जिद से भी इसके इमेज को धक्का लगा है.
सहारा परिवार से जुड़े कुछ लोगों का दावा है कि 10 साल के लंबे संघर्ष के बाद ग्रुप फिर से अपनी खोई ताकत वापस लाने की कोशिश में लगा है. क्या सुब्रत रॉय 42 साल के कारोबारी अनुभव से सीख लेकर समूह को पारदर्शी बना पाएंगे? अभी तक के ट्रैक रिकॉर्ड से ऐसा भरोसा तो नहीं जगता है. लेकिन हमने देखा है कि कारोबारी अपने आप को रिइनवेंट भी करते हैं.
(लेखत वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो इकनॉमी और पॉलिटिक्स पर लिखते हैं. इस आर्टिकल में व्यक्त विचार उनके निजी हैं और क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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