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संडे व्यू : नारा या निरंकुश शक्ति का लक्ष्य ‘400 पार’, संवैधानिक नैतिकता का सवाल

Sunday View में पढ़ें आज पी चिदंबरम, वंदिता मिश्रा, रामचंद्र गुहा, तवलीन सिंह और सुरजीत दास गुप्ता के विचारों का सार.

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नारा नहीं, निरंकुश शक्ति का लक्ष्य है ‘400 पार’

वंदिता मिश्रा ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 2019 में बीजेपी ने ‘अबकी बार 300 पार’ का नारा दिया था. पांच साल बाद नया लक्ष्य ‘अबकी बार 400 पार’ का है. 50 प्रतिशत वोट शेयर के आंकड़े को पार करने की चर्चा के बीच कार्यकर्ताओं को हर बूथ पर कम से कम 370 अतिरिक्त वोट सुनिश्चित करने के लिए प्रोत्साहित करता है.

400 केवल संख्या नहीं है. ये बहुरंगी जनादेश के 400 टुकड़े भी हैं. आम सोच इस रूप में होती है कि अगर यह सरकार या कोई भी सरकार ऐसा नहीं करती है तो हम पांच साल बाद एक और सरकार लाएंगे. यह आवाज यूपी, एमपी और बिहार के सबसे गरीब इलाकों से भी आते हैं. वोट की शक्ति में यह आमजन का विश्वास होता है. कई लोग राज्य और केंद्र में अपने-अपने वोट अलग-अलग पार्टियों को देते हैं. उन्हें एक ही व्यक्ति या पार्टी को सारी शक्ति देने में विश्वास नहीं होता.

वंदिता मिश्रा आगे लिखती हैं कि एक बड़ा सवाल इस रूप में दिखता है कि ‘400 पार’ किसी पार्टी की आकांक्षा का बयान है या यह उसकी सरकार की शक्ति का दावा बन गया है? क्या यह विपक्ष-मुक्त भारत की बीजेपी संकल्पना का अनुसरण है जिसके नियंत्रण में सभी संसाधन और एजेंसियां हैं, मूक निगरानी संस्थाएं हैं? या अपने फायदे के लिए मैदान को पुनर्व्यवस्थित करना, राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वियों, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को इस तरह से झुकाना कि पूरी लड़ाई बीजेपी बनाम बहुत छोटी या क्षेत्रीय पार्टियां हो जाएं? कांग्रेस को पुराने मामलों में आयकर नोटिस, भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर ईडी-सीबीआई की कार्रवाई, इलेक्टॉरल बॉन्ड के जरिए भ्रष्टाचार सामने हैं.

वहीं ऐसे नेताओं की लंबी कतार है, जो बीजेपी में शामिल होने पर जादुई रूप से केंद्रीय एजेंसियों से राहत पा जाते हैं. पेमा खांडू, हिमंत बिस्वा सरमा, माणिक साहा, एन बीरेन सिंह के जरिए बीजेपी पहले ही उत्तर पूर्व में कांग्रेस मुक्त महत्वाकांक्षा को प्राप्त कर चुकी है.

ऐसा भी नहीं है कि 400 पार का नारा सच हो जाए तो कोई अभूतपूर्व स्थिति होगी. 1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के पास 414 सांसद थे.

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संवैधानिक नैतिकता का सवाल

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि कथित भ्रष्टाचार के आरोप में किसी सेवारत मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी एक कानूनी मुद्दा है. यह राजनीतिक और संवैधानिक मुद्दा भी है. यह ऐसा मुद्दा भी है जो संविधान के शब्दों से परे है. यह संवैधानिक नैतिकता का मुद्दा भी है. किसी मुख्यमंत्री को पद से हटाने के कई तरीके हैं. इनमें शामिल हैं चुनाव में हराना, अविश्वास प्रस्ताव या वित्त विधेयक या अन्य नीति पर अहम प्रस्ताव को पारित नहीं होने देना. हर हाल में बहुमत जरूरी है. अब राजनीतिक दलों ने ‘ऑपरेशन लोटस’ जैसे दुष्ट तरीके इजाद कर लिए हैं.

चिदंबरम लिखते हैं कि अब मुख्यमंत्रियों को हटाने का कानूनी तरीका भी खोज लिया गया है. मुख्यमंत्री के खिलाफ एफआईआर या ईसीआईआर (ECIR) दर्ज करो, पूछताछ के लिए बुलाओ और उन्हें गिरफ्तार कर लो. इस मामले में सीबीआई कुछ हद तक सतर्क है लेकिन ईडी बेशर्म है.

एक बार ऐसा हो जाने पर सरकार असुरक्षित हो जाती है. कोई अंतरिम नेता मुख्यमंत्री की जगह लेता तो उसे भी गिरफ्तारी जैसे खतरे का सामना करना पड़ सकता है. इस तरह एक मुख्यमंत्री को पद से हटाने का लक्ष्य हासिल कर लिया जाता है. अगर भूमिकाएं उलट जाएं तो क्या होगा?

मान लीजिए कि कोई राज्य सरकार प्रधानमंत्री पर अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर अपराध करने का आरोप लगाती हो और से गिरफ्तार कर लेती है और मजिस्ट्रेट प्रधानमंत्री को पुलिस या न्यायिक हिरासत में भेज देता है. तो, परिणाम भयानक और विनाशकारी होंगे..

लेखक सवाल उठाते हैं कि क्या न्यायालयों को संविधान में निहित इस भावना को नहीं पढ़ना चाहिए कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को तब तक गिरफ्तारी से छूट प्राप्त है जब तक उन्हें लोकसभा या विधानसभा में विश्वास प्राप्त है? यही असल मुद्दा है

अंधेरे और रोशनी में जारी है जंग

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि बीते हफ्ते उन्होंने एक आदिवासी गांव में वक्त बिताया. सुंदर, समुद्रतटीय उस गांव में पर्यटन के आने से काफी समृद्धि आई है. जिस बाजार में कभी एक-दो छोटी दुकानें ही हुआ करती थीं, अब कई रेस्तरां बन गये हैं जो रात को बस्तियों से चमकते हैं और पर्यटकों से भरे रहते हैं. समुद्र किनारे दिखते हैं घोड़े वाले, घोड़ा-गाड़ी वाले, आसमान में गैस-बैलून को सवारी देने वाले और नारियल पानी बेचने वाले. जगह-जगह दिखती है रंग-बिरंगी ब्लास्टिक कुर्सियां और मेज जो कच्ची छतों के नीचे लगाए गये हैं और जहां बैठ कर पर्यटक कोंकण खाना, ताजी मछली और शुद्ध शाकाहारी खाने का मजा ले सकते हैं.

मुंबई के कारोबारियों से मुलाकात का जिक्र करते हुए तवलीन सिंह लिखती हैं कि लोग चुनाव परिणाम तय मानते हैं. कारोबारियों का कहना है कि इस बार मोदी को कोई हरा नहीं सकता है क्योंकि पिछले दस साल में मध्यम और अमीर वर्ग के लोगों ने अपने जीवन में बहुत फर्क देखा है.

बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां अब स्वीकार करती हैं कि उनके लक्जरी चीजों के लिए अब भारत में बहुत बड़ा बाजार है. महंगी गाड़ियां ज्यादा बिक रही हैं. एप्पल ने अपनी पहली दुकान मुंबई के जिओ-वर्ल्ड मॉल में खोली है.

तवलीन सिंह रेल पटरी के किनारे बसे घरों के बीच भी पहुंचती हैं जिन्हें घर नहीं कहा जा सकता. कूड़ों के ढेर पर प्लास्टिक की चादरें, फटे पोस्टर, टीन आदि से ये घर बने हैं. ये बताते हैं कि प्रधानमंत्री आवास योजना में घर बनाने के लिए सिर्फ एक लाख बीस हजार रुपये मिलते है और पक्का घर बनाने के लिए चाहिए कम से कम तीन लाख रुपये. इन्हें उज्जवला योजना से गैस के चूल्हे तो मिले हैं लेकिन एक सिलेंडर अब नौ सौ रुपये का हो चुका है. उसे खरीदन की क्षमता नहीं है. ये लोग पानी को अपनी सबसे बड़ी जरूरत बताते हैं. शौचालय के बारे में तो इनसे पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई.

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‘मुख्य भूमि’ को मिजो से सीखने की जरूरत

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में मिजोरम में बिताए उत्साहनजक दिनों का जिक्र किया है. पहाड़ों के करीब से उड़ान का आनंद लेते हुए हवाई अड्डे पर इनर लाइन परमिट के साथ उन्होंने इलाके में प्रवेश किया. ट्रेन और फिर कार के जरिए भ्रमण ने उन्हें कई अनुभवों से परिचित कराया. उत्तराखंड की भी याद ताजा हो गयी, जो लेखक का जन्मस्थान है.

आईजॉल की पहाड़ी पर एक-दूसरे से सटे घरों ने नैनीताल और मसूरी की याद दिलायी. ट्रैफिक अनुशासित और ड्राइवर ट्रैफिक नियमों का पालन करते दिखे. पचुंगा यूनिवर्सिटी के सेमिनार में छात्र-छात्राओं से घुलने-मिलने का अवसर मिला. पचुंगा यूनिवर्सिटी मानो पूरे मेघालय का प्रतिनिधित्व कर रहा हो. सड़कों पर घूमना, दुकानों मे जाना, कैफे में बातचीत करना मानो महिलाओं की प्रगति की गवाही दे रहे थे.

मिजोरम की महिला साक्षरता दर दूसरे नंबर पर है. घर से बाहर काम करने में भी मिजोरम की महिलाएं बेहतरीन रिकॉर्ड रखती हैं.

रामचंद्र गुहा ने 1966 में हुए सशस्त्र विद्रोह का भी जिक्र किया है. स्वतंत्र गणराज्य की घोषणा के बाद आखिरकार लालडेंगा को भारतीय गणतंत्र में यकीन करने को तैयार कराया गया. वे मिजोरम के मुख्यमंत्री बने. जिन बच्चों से लेखक ने बातचीत की उनके दादा-दादी हिंसा के उस दौर से जरूर गुजरे होंगे, अपने घरों से भागकर जंगलों में शरण लेकर, विद्रोहियों और राज्य के बीच गोलीबारी में फंस गये होंगे. समझौता होने के बाद मिजो लोगों ने इतनी जल्दी और पूरी तरह से अपने जीवन का पुनर्निर्माण किया. यह उनकी बुद्धिमत्ता और उनके साहस का प्रमाण है.

मिजो ने दूसरों की पीड़ा के प्रति खुद को अधिक दयालु बनाया. म्यांमार और बांग्लादेश में उत्पीड़न के शिकार लोगों का इन्होंने स्वागत किया. धर्म भी नहीं देखा. मणिपुर में जातीय संघर्ष से भागने वाले कुकियों का बोझ भी मिजो उठा रहे हैं. यह जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है.

लेखक का मानना है कि गणतंत्र के जीवन में मिजो को कम महत्व दिया गया है. उपेक्षा के इस व्यवहार के पीछ संभवत: वजह है यहां लोकसभा की कम सीटें होना. फिर भी तथाकथित ‘मुख्य भूमि’ में हमें मिजो लोगों से बहुत कुछ सीखना- उनकी सामुदायिक भावना, हार और निराशा से उबरने की उनकी क्षमता, उनमें जातिगत पूर्वाग्रह की कमी और उनकी महिलाओं की अपेक्षाकृत उच्च स्थिति.

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चीन प्लस वन रणनीति के बीच भारत गंवा रहा है विदेशी निवेश

बिजनेस स्डैंडर्ड में सुरजीत दास गुप्ता ने लिखा है कि चीन प्लस वन रणनीति का लाभ उठाने की भारत की संभावना की हर तरफ चर्चा है मगर आंकड़े कुछ और ही स्थिति दर्शा रहे हैं. ओईसीडी के आंकड़ों से पता चलता है कि FDI में भारत की हिस्सेदारी 2023 के पहले नौ महीनों में 2.19 फीसदी रह गयी है जो साल 2022 की सी वधि में 3.5 फीसदी थी. चीन में भी एफडीआई का फ्लो 2023 के शुरुआती नौ महीनों में नाटकीय रूप से कम होकर 1.7 फीसदी हो गया जो साल 2022 की इसी अवधि में 12.4फीसदी था. इसका फायदा भारत को नहीं मिला है मगर चीन के इस नुकसान का फायदा अमेरिका, कनाडा, मैक्सिको, ब्राजील, पोलैंड और जर्मनी को हुआ है.

सुरजीत दासगुप्ता लिखते हैं कि कैलेंडर वर्ष 2023 के शुरुआती नौ महीनों में वैश्विक एफडीआई प्रवाह में 29 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ अमेरिका शीर्ष पर है. पिछले साल इसकी हिस्सेदारी 24 फीसदी थी. इसे सेमीकंडक्टर और इलेक्ट्रॉनिक्स में आने वाले निवेश से बल मिला है और ताइवान से साल 2023 में कुल 11.25 अरब डॉलर के एफडीआई की स्वीकृति मिली है.

अमेरिका और चीन के बीच भू-राजनीतिक तनाव ने ताइवान और दक्षिणी कोरिया जैसे देशों की कई कंपनियों को चीन पर निर्भरता कम करने से अमेरिका में विनिर्माण संयंत्र लगाने के लिए भी आकर्षित किया है. भारत को भी अपनी उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना और सेमीकंडक्टर नीति से विदेशी निवेश लुभाने में कुछ सफलता मिली है. एपल इंक के अपने वेंडरों के साथ आने से मोबाइल निर्यात को बढ़ाने में मदद मिली है.

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