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अयोध्‍या पर राहत, लेकिन चुनाव तक राजनीति गरमाने से कौन रोकेगा?

अयोध्या का मसला पांच सौ साल पुराना है

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सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले की सुनवाई फिलहाल जनवरी तक के लिए टाल दी है. यानी अयोध्या में राम मंदिर विवाद पर कोई फैसला अब 2019 चुनाव के पहले नहीं आएगा. तो क्या ये कह सकते हैं कि देश फिलहाल राहत की सांस ले, क्योंकि अब अयोध्या मामले पर कोई राजनीति नहीं होगी?

मुझे नहीं लगता कि हम लोग इतने नासमझ हैं कि हम आश्वस्त होकर बैठ जाएं. अब कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं होगी? कहीं भड़काऊ भाषणबाजी नहीं होगी? सब बेसब्री के बावजूद सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करेंगे और नाराजगी के बाद भी सब्र से काम लेंगे? कहीं दंगे नहीं होंगे? आदि.

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अयोध्या का मसला वैसे तो पांच सौ साल पुराना है. पर बाबरी विध्वंस के समय ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और ये सहमति बनी कि दोनों पक्ष अदालत का फैसला मानें. बीच में रह-रहकर आवाज उठती रही कि राममंदिर निर्माण में देरी हो रही है. पर किसी ने इसको एक सीमा के बाद तूल नहीं दिया.

पिछले छह महीने से इस मसले को नए सिरे से गरमाने की कोशिश की जा रही है. ये भी कहा गया कि अदालत इस बार फास्ट ट्रैक कर जल्द से जल्द फैसला सुनाए. बीच में ये लगने भी लगा था कि शायद लोकसभा चुनाव के पहले फैसला आ जाए. आज के कोर्ट के फैसले से साफ है कि अब ऐसा होता दिखता नहीं है.

राम मंदिर का माहौल किसने गरमाया?

हिंदुत्ववादी ताकतों की तरफ से इस बार माहौल गरमाने की कोशिश की गई. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली में अयोध्या मसले पर पत्रकार हेमंत शर्मा की किताब के विमोचन के समय कहा कि अयोध्या में हर हाल में राममंदिर बनना चाहिए और ये काम जल्द से जल्द शुरू हो. फिर विजयादशमी के सालाना भाषण में उन्होंने ये कहकर सबको चौका दिया कि मंदिर निर्माण के लिए सरकार कानून बनाए. ये संघ के स्टैंड में बदलाव था.

संघ बाबरी ध्वंस के पहले कहता था कि राममंदिर का मामला आस्था से जुड़ा है, लिहाजा अदालतें इस पर फैसला नहीं कर सकतीं. पर बाबरी ध्वंस के बाद ये कमोबेस कहा जाने लगा कि अगर दोनों पक्ष मिल-बैठकर हल निकाल लें, तो अच्छा है, नहीं तो जो अदालत तय करें, वो सब मान लें.

ऐसे में भागवत का ये कहना कि सरकार कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे, ये क्या दर्शाता है?

एक, ये इस बात का प्रमाण है कि अब संघ परिवार को मोदी के करिश्मे पर यकीन नहीं रह गया है कि वो बीजेपी की सरकार बनवा सकते हैं. यानी चुनाव जिताने की उनकी क्षमता में भारी कमी आई है. ऐसे में संघ को प्लान बी पर काम करना पड़ेगा. दूसरे मुद्दे तलाशने पड़ेेंगे. राममंदिर पर तीखी आवाजों का उठना यही दर्शाता है. 

दो, मोदी सरकार की विफलता भी ये मुद्दा रेखांकित करती है. 2014 के समय जितने भी बड़े वायदे किए गये थे, वे पूरे नहीं हुए. फिर चाहे वो कालाधन का सवाल हो, रोजगार, महंगाई या फिर महिलाओं को सुरक्षा देने का हो, असफलता साफ प्रतीत होती है. आज सरकार के परफॉर्मेंस से लोग खुश नहीं हैं. ये बात हर ओपिनियन पोल में साफ नजर आ रही है. लोगों का ध्यान सरकार के कामकाज से हटाने के लिए भी अयोध्या का इस्तेमाल किया जा रहा है.

तीन, राफेल के बारे में राहुल गांधी के तेवर आक्रामक हैं. वो लगातार मोदी पर तीखे हमले कर रहे हैं. ये मसला सरकार की साख पर बट्टा लगा रहा है. राफेल मोदी और बीजेपी के लिए बोफोर्स न बन जाए, इसलिये जरूरी है कि अयोध्या जैसे भावनात्मक मुद्दे को उभारा जाए.

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राजनीतिक है अयोध्या का मसला?

अयोध्या का मसला पूरी तरह से राजनीतिक है. धर्म की आड़ में संघ परिवार ने राजनीतिक तीर चलाए और राम के नाम का बीजेपी को फायदा भी हुआ. वर्ना बीजेपी 1984 में 2 सांसदों की पार्टी थी. राम मंदिर के आंदोलन ने उसे सत्ता के दरवाजे तक पंहुचाया. उसके पक्ष में एक हिंदू वोटबैंक तैयार हुआ.

मोदी ने इस वोटबैंक में विकास बैंक भी जोड़ दिया. बीजेपी अपने बल पर बहुमत तक पहुंच गई. पर विकास नहीं हुआ, तो ये बैंक छिटक रहा है. ऐसे में राजनीति ये कहती है कि फिर से भावनाओं को भड़काओं और वोट की रोटी सेंको. इसलिए चुनाव तक भड़काऊ बयानबाजी होगी.

धार्मिक अखाड़ों, हिंदू साधु-संतों और धर्म संसद के बहाने माहौल गरमाया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट को भी नहीं बख्‍शा जाएगा, जैसे सबरीमाला के मामले में हो रहा है.

ऐसे में जो ये सोच रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जनवरी तक मामला टालने से राहत की सांस लेनी चाहिए, वे या तो संघ परिवार की फितरत से वाकिफ नहीं है या फिर वो राजनीति नहीं समझते. इतने मासूम मत बनिए! चुनाव का मौसम है. खूब तीर चलेंगे. पटाखे फूटेंगे. भावनाएं आहत होंगी.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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