उत्तर प्रदेश (UP) राज्य विधानसभा के चुनाव से पहले मंदिर की राजनीति एक बार फिर गर्माने लगी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी(PM Narendra Modi) ने जिस अंदाज में वाराणसी में काशी विश्वनाथ गलियारे का उद्घाटन किया है, उसके जरिए भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने इस मोर्चे पर एक और पताका लहरा दी है.
वैसे फिलहाल पार्टी लगातार मंदिर की राजनीति को हवा दे रही है. अब उसका ध्यान दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों की इस मांग पर है कि मथुरा में शाही ईदगाह मसजिद को हिंदू गुटों को सौंप दिया जाए. क्योंकि उनका दावा है कि वह भगवान कृष्ण के जन्मस्थान पर बनी है.
यूपी के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने 1 दिसंबर को ट्विट करके इस राह पर कदम रख दिया है. उन्होंने कहा कि अयोध्या और काशी (वाराणसी) में भव्य मंदिर निर्माण के साथ, “मथुरा की तैयारी है.”
“मुसलिम समुदाय को आगे आना चाहिए और मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि परिसर में मौजूद सफेद संरचना को हिंदुओं को सौंप देना चाहिए... समय आएगा, जब यह काम पूरा हो जाएगा.”
1991 के पूजा स्थल कानून को निरस्त करने की अपील
बेशक, मथुरा में ऐसी योजना को अंजाम देने की राह में एक अड़चन है- उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) एक्ट, 1991.
इस कानून के तहत एक धर्म के उपासन स्थल को दूसरे धर्म के उपासना स्थल में बदला नहीं जा सकता (सेक्शन 3). कानून 15 अगस्त 1947 से पहले से मौजूद उपासना स्थल के स्वामित्व या स्थिति के संबंध में किसी भी कानूनी मामले को शुरू करने पर प्रतिबंध लगाता है (सेक्शन 4).
कोई भी कानूनी मामला जो कानून के लागू होने से पहले शुरू किया गया था, उसे भी समाप्त कर दिया गया था, जब तक कि वह ऐसी स्थिति से जुड़ा हुआ नहीं है, जिसमें 15 अगस्त 1947 के बाद उपासना स्थल के धार्मिक चरित्र को बदल दिया गया हो.
इस कानून में राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद अपवाद बताया गया है (सेक्शन 5). हालांकि इसके बावजूद कानून साफ तौर से देश में आजादी पूर्व धार्मिक संरचनाओं की स्थिति को बदलने की किसी भी कोशिश को रोकता है.
इसलिए कानून स्पष्ट रूप से दूसरी जगहों पर हिंदू दक्षिणपंथी गुटों के इन दावों को भी खारिज करता है कि जहां पर मसजिदें बनाई गईं, वहां कभी मंदिर हुआ करते थे- जैसे मथुरा की शाही ईदगाह मसजिद और काशी (वाराणसी) की ज्ञानवापी मसजिद.
अक्टूबर 2020 में मथुरा जिला अदालत ने उस सिविल मुकदमे को रद्द कर दिया था जिसमें शाही ईदगाह मसजिद को भगवान कृष्ण के नाम पर बने एक हिंदू ट्रस्ट को सौंपने का अनुरोध किया गया था. तब अदालत ने उपासना स्थल एक्ट, 1991 का हवाला दिया था और कहा था कि उसके कानूनी दर्जे पर पुनर्विचार की कोई वजह ही नहीं है. ऐसी दलीलें देने वाले दूसरे सिविल मामलों की सुनवाई अब भी मथुरा की अदालतों में की जा रही है और अदालतें उनके लिए भी ऐसे ही तर्क दे रही हैं.
इसलिए मथुरा की स्थिति पर हाल की टिप्पणियों से बहुत कुछ पता चलता है. यह सिर्फ बयानबाजी भर नहीं है.जैसे कि 6 दिसंबर को प्रेस से बातचीत करते हुए बीजेपी सांसद रवींद्र कुशवाहा ने कहा कि शुरुआत से मथुरा में मंदिर के मुद्दे पर पार्टी का रवैया “एकदम साफ” है इसलिए केंद्र सरकार पूजा स्थल कानून को निरस्त कर सकती है. यह 1992 में अयोध्या में बाबरी मसजिद के विध्वंस की बरसी का दिन था.
कुशवाहा ने रिपोर्टर्स से कहा, “किसानों के प्रदर्शन को देखकर कृषि कानून वापस लिए गए. इसी तह मोदी सरकार इस कानून को भी वापस ले सकती है.”
इस कानून को निरस्त करने का विचार सबसे पहले संसद में बीजेपी के राज्यसभा सांसद हरनाथ यादव ने 9 दिसंबर को शून्यकाल में उछाला था,
“इस कानून का मतलब यह है कि पूजा स्थलों, जैसे श्रीकृष्ण जन्मभूमि और दूसरी जगहों पर विदेशी हमलावरों के जबरन कब्जे को वैध ठहराया जाए... यह कानून श्रीराम और श्रीकृष्ण के बीच भेद करता है, जबकि ये दोनों विष्णु के अवतार हैं. यह हिंदुओं, बौद्धों, जैन और सिखों के साथ भेदभाव करता है. मैं अपील करता हूं कि इसे जितनी जल्दी हो सके, निरस्त किया जाए.”
द इंडियन एक्सप्रेस ने 9 दिसंबर को राज्यसभा के शून्यकाल में हरनाथ यादव की स्पीच को ट्रांसक्राइब किया है.
1991 के इस कानून को निरस्त करने की कोशिशें हर मोर्चे पर की जा रही हैं. इस साल मार्च में बीजेपी नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने जनहित याचिका (पीआईएल) दायर करके, उपासना स्थल कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी थी जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को नोटिस जारी किया.
अयोध्या फैसले में 1991 के कानून के बारे में क्या कहा गया था?
चूंकि राम जन्मभूमि को 1991 के कानून से बाहर रखा गया था, अयोध्या मामले में यह कोई मुद्दा ही नहीं था जिसमें यह तय किया जाना था कि इस विवादित स्थान का लीगल टाइटिल किसके पास था.
फिर भी, चूंकि मामला तकनीकी रूप से इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील का था, सुप्रीम कोर्ट को 1991 के कानून पर हाई कोर्ट के जस्टिस डीवी शर्मा की टिप्पणियों पर ध्यान देना पड़ा, जिसमें जज ने कहा था कि यह कानून उन मामलों में लागू नहीं होता जिन पर 1991 से पहले विवाद शुरू हो गया था.
अगर इन टिप्पणियों को रजामंदी मिलती तो शायद मथुरा कृष्ण जन्मभूमि को लेकर भी मामला बन सकता था.लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया. उसने कहा कि जस्टिस शर्मा के सुझाव 1991 के कानून के उलट हैं और "गलत" हैं.
इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए एपेक्स कोर्टने 1991 के कानून के टेक्स्ट, इसके उद्देश्यों और कारणों के कथन, संसद की चर्चाओं का हवाला दिया. साथ ही संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक, धर्मनिरपेक्षता का जिक्र किया.
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने कहा कि उपासना स्थल कानून 1991 "संविधान के मौलिक मूल्यों की रक्षा और सुरक्षा करता है."
जजों ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की बुनियादी विशेषता है, जिसे कि एसआर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने भी दोहराया था. 1991 का कानून सरकार की तरफ से एक अहम कदम है ताकि “भारतीय राजतंत्र की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं की रक्षा हो.”
"उपासनास्थल अधिनियम आंतरिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के दायित्वों से संबंधित है. यह सभी धर्मों की समानता के लिए भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है.इसके अतिरिक्त उपासनास्थल अधिनियम गंभीर कर्तव्य की पुष्टि है जिसकी जिम्मेदारी राज्य पर है कि वहअनिवार्य संवैधानिक मूल्य के तौर पर सभी आस्थाओं की समानता की रक्षा करे, यह ऐसा मानदंड है जिसे संविधान की मूल विशेषता का दर्जा प्राप्त है."
अयोध्या फैसले में सुप्रीम कोर्ट, पैरा 83
1991 के कानून में 15 अगस्त, 1947 की तारीख दिए जाने का तर्क भी जजों ने स्पष्ट किया था. अक्सर हिंदू दक्षिणपंथी गुट इस पहलू की आलोचना करते हैं और खास तौर से अश्विनी उपाध्याय की पीआईएल में इसका विरोध किया गया था. जजों ने उस समय का हवाला दिया था, जब इस कानून पर संसद में चर्चा हुई थी.
"सार्वजनिक पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र की सुरक्षा की गारंटी देने, जैसे कि वे 15 अगस्त, 1947 को थे, और उनके रूपांतरण का विरोध करने के लिए संसद ने तय किया कि औपनिवेशिक शासन से आजादी के बाद इस तर्क को संवैधानिक आधार मिले कि अतीत के अन्याय को दुरुस्त किया जाए. इसके लिए हर धार्मिक समुदाय को भरोसा दिलाया गया कि उनके उपासना स्थलों को सुरक्षित रखा जाएगा और उनके चरित्र में बदलाव नहीं किया जाएगा."
अयोध्या फैसले में सुप्रीम कोर्ट, पैरा 82
पांच जजों की बेंचके इन फैसलों के बाद यह समझना मुश्किल है कि 1991 के कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली उपाध्याय की जनहित याचिका कैसे कामयाब हो सकती है, इसके बावजूद कि अदालत इसकी सुनवाई करने को राजी हो गई हो.
शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अयोध्या फैसले में यह भी साफ किया गया था कि 1991 का एक्ट “नॉन-रेट्रोग्रेशन” को सुनिश्चित करने का एक विधायी कदम था और यह कानून को निरस्त करने के किसी भी कदम के संदर्भ में बहुत अहम हो जाता है.
“नॉन-रेट्रोग्रेशन” क्या है, और यह क्यों अहम है
सेक्शन 377 के मामले पर फैसला सुनाते हुए भारत के चीफ जस्टिस (सीजेआई) दीपक मिश्रा ने “नॉन-रेट्रोग्रेशन” की अवधारणा को स्पष्ट किया था.
“नॉन-रेट्रोग्रेशन” का सिद्धांत बताता है कि राज्य को ऐसे उपाय या कदम नहीं उठाने चाहिए जो जानबूझकरया तो संविधान के तहत या अन्यथा अधिकारों के उपयोगका प्रतिगामी हो."
नवतेज सिंह जौहर मामले में सीजेआई दीपक मिश्रा के फैसले का पैरा 189, पेज117 पर
यह सिद्धांत यहां इसलिए लागू होता है क्योंकि भारत में अधिकारों की प्रगतिशील प्राप्ति होनी चाहिए (उन्हें आधुनिक लोकाचार के हिसाब से हासिल होना चाहिए), क्योंकि हमारे पास एक गतिशील संविधान है, न कि एक स्थिर संविधान. इसका मतलब है कि अधिकार प्रतिगामी नहीं हो सकते और समाज को पिछड़े के बजाय आगे बढ़ना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या फैसले में कहा था कि उपासना स्थल अधिनियम 1991 "हमारे इतिहास और राष्ट्र के भविष्य को दर्शाता है."
"हम जानते हैं कि हमारा इतिहास क्या है, और यह भी जानते हैं कि हमारे लिए इसका विरोध करना जरूरी है, इसलिए आजादी वह क्षण था, जब अतीत के घावों को भरा जा सकता था.ऐतिहासिक गलतियों को इस तरह दुरुस्त नहीं किया जा सकता कि लोग कानून को अपने हाथ में ले लें.सार्वजनिक पूजा स्थलों की प्रकृति की रक्षा करने के लिए संसद ने निश्चित शब्दों में यह अनिवार्य किया था कि इतिहास और उसकी गलतियों को वर्तमान और भविष्य कादमन करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा."
अयोध्या फैसले में सुप्रीम कोर्ट, पैरा 83
उपासना स्थल एक्ट, 1991 को निरस्त करने की कोशिश दरअसल नॉन रेट्रोग्रेशन के सिद्धांत का उल्लंघन कर सकती हैं. जिन जगहों पर लंबे समय से इबादत करने की आजादी दी गई है, और जिन लोगों को दसियों साल (भले ही सैकड़ों साल से नहीं) से यह अधिकार दिया गया है कि वे वहां इबादत कर सकते हैं, उनके लिए यह रिग्रेशन होगा (यानी हम उन लोगों से यह अधिकार छीन लेंगे).
अगर यह संरक्षण नहीं दिया जाता तो इसका मतलब यह है कि किसी समुदाय को इबादत करने के अधिकार के इस्तेमाल पर बराबर खतरा मंडारता रहेगा, चाहे वे अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक. यह एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के अनुरूप नहीं है, जहां सभी नागरिकों को अपनी पसंद के धर्म का पालन करने का हक है.
इस सिद्धांत पर जस्टिस मिश्रा की व्याख्या के दायरे में सरकार का हर कदम आता है, किसी कानून को निरस्त करना भी जोकि संविधान की मूल्यों को आगे बढ़ाता है.इसी समय, यह तर्क भी दिया जा सकता है कि किसी ऐसे कानून को निरस्त करना, जोकि अपने आप में संविधान के प्रावधानों को प्रभावित नहीं करता है, न्यायिक समीक्षा का विषय नहीं हो सकता है. चूंकि यह किसी मौलिक अधिकार पर नहीं, संविधान की बुनियादी विशेषता का केंद्रित है.
इसलिए अयोध्या फैसला उपासना स्थल एक्ट, 1991 को निरस्त करने के खिलाफ पुख्ता तर्क नहीं हो सकता.फिर भी यह किसी ऐसी अपील के खिलाफ तर्क देने का ठोस सामाजिक-राजनैतिक और कानूनी आधार तो बनता है, और इस तरह न सिर्फ मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद, बल्कि देश भर में ऐसे दूसरे उपासना स्थलों की भी हिफाजत करता है.
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