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बेजुबान कलम के इस दौर में एसपी सिंह का न होना हमें खलता है: आशुतोष

मीडिया में मेरे शुरुआती दिनों की पूरी कहानी

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( ये आर्टिकल पहली बार साल 27 जून, 2018 में पब्लिश किया गया था. क्विंट हिंदी आज उनकी पुण्यतिथि के मौके पर इसे दोबारा पब्लिश कर रहा है. )

बारिश में मैं बुरी तरह से भीगा था. जेब में बायोडाटा सिकुड़-पिकुड़ गया था. कनॉट प्लेस के यूनाइटेड कॉफी हाउस के बाहर खड़ा इंतजार कर रहा था. अंदर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. पांच मिनट बीता होगा. दूर से एसपी सिंह आते दिखे. मुझसे छोटा कद. पतले दुबले. चश्मा लगाए. चेहरे पर दाढ़ी. मैं उनसे दूसरी बार मिल रहा था, पर वो पहचानेंगे, संदेह था.

एक बार पहले उनसे नौकरी मांगने गया था. तब वो नवभारत टाइम्स में संपादक थे. एसपी ने दूर से ही मेरी तरफ उंगली उठाई और प्रश्न करने के अंदाज में पूछा, “आशुतोष.” मैंने हां में सिर हिला दिया. “चलो अंदर चलते हैं.” उन्होंने मुझे नौकरी देने के लिए बुलाया था.

आज तक शुरू हो चुका था. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए थे. वो टीम बना रहे थे. अंदर कॉफी मंगाई. मुझे कॉफी हाउस के एसी में ठंड लग रही थी. पूछने लगे, क्या करते हो. कौन सी बीट कवर करते हो. तब मैं बीआईटीवी में रिपोर्टर था. दिल्ली लोकल देखता था.

मैंने उनकी तरफ कौतूहल भरी नजर से देखा. बोला, आप शायद पहचान नहीं रहे हैं. मैं दो साल पहले आपसे नौकरी मांगने गया था. वो थोड़ा झिझके और फिर चेहरे पर मुस्कान लिए बोले, “अब दे रहा हूं न.” जब मैं पानी में भीगा बायोडाटा उनको देने लगा तो बोले, “अरे ठीक-ठाक कल मेरे ऑफिस इसी कनॉट प्लेस में पहुंचा देना.”

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एसपी से ये मेरा पहला परिचय था. उनके बारे में सुना बहुत था. कैसे 26 -27 साल की मासूम उम्र में रविवार पत्रिका के संपादक हो गए थे. उन्होंने पत्रिका शुरू की और फिर देखते देखते उसे कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचा दिया.

रविवार हिंदी पट्टी में हर घर की एक जरूरत बन गयी. बेबाक खबरें. खबरों का बेखौफ खुलासा. उसके बाद वो नवभारत टाइम्स आ गए. राजेंद्र माथुर तब प्रधान संपादक थे. वो हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण काल था. उस अखबार में खबर थी, खबर लिखने का सलीका था, विचार थे, विचारों का लोकतंत्र था. धुर वामपंथी और हिन्दुत्ववादी, दोनों ही छपते थे. माथुर साहब की लेखनी का मैं मुरीद था. एसपी कम लिखते थे. लेकिन उनकी मौजूदगी ने खबरों का नया संसार रच दिया था.

ईमानदारी की बात है कि आज तक में आने तक मैंने शायद ही कभी उनका लिखा कोई लेख पढ़ा हो. वो लिखते उतना अच्छा नहीं थे. कम से कम माथुर साहब और प्रभाष जोशी की तुलना में. दोनों ही दिग्गज संपादक, विचार के धनी और लिक्खाड़.

एसपी वामपंथ से प्रभावित थे. सीपीआईएमएल के करीब. कार्ड होल्डर नहीं. उनकी पत्रिका को रेगुलर चंदा देते थे. दलित पिछड़ा राजनीति को अच्छे से समझते थे और इस जमात के नेताओं के मेंटर भी थे. धुर सेकुलरवादी. मंडल कमीशन की सिफारिशों के पक्षधर. मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद उन्होंने उसके पक्ष में काफी लिखा था.

आज तक गया, तो मन में डर था...

आज तक में जब उनके साथ आया, तो मन में डर था. उनके मुताबिक परफॉर्म कर पाऊंगा? शुरू में बीट मिली लेफ्ट फ्रंट. शायद जेएनयू के मेरे बैकग्राउंड का नतीजा था. हालांकि मैंने उनको कभी नहीं बताया कि मैं वामपंथी नहीं था, न जेएनयू में और न बाहर. एडिट मीटिंग में रोज स्टोरी आइडिया देने होते थे. लेफ्ट फ्रंट में उतनी खबरें नहीं होती थी. रोज आइडिया देना मुश्किल होता था.

एक दिन उन्होंने कमरे में बुलाया. बोले, “तुम्हें क्या हो गया है. तुम आइडिया क्यों नहीं देते हो?” मैंने कहा सर, “मेरी बीट में कुछ होता ही नहीं है. लेफ्ट में कोई बाइट भी नहीं देता. मैं कहां से स्टोरी करूं?”

उनको मेरा बात समझ में आई. उनका गुस्सा शांत हुआ. बोले, “मैं कुछ सुनना नहीं चाहता. जहां कहीं से स्टोरी आइडिया ला सकते हो लाओ, जो पहले आइडिया देगा, वो स्टोरी करेगा. बीट के चक्कर में मत पड़ो.” उसके बाद उन्हें कभी शिकायत का मौका नहीं मिला. साल होते-होते प्रमोशन भी मिला और तनख्‍वाह भी बढ़ी.

मीडिया में मेरे शुरुआती दिनों की पूरी कहानी
26-27 साल की उम्र में ही ‘रविवार’ पत्रिका के संपादक बन गए थे एसपी सिंह
(फोटो: Youtube Grab)

BSP की जिम्मेदारी मुझे दी गई...

इस बीच, बहुजन समाज पार्टी बड़ी तेजी से यूपी में बढ़ रही थी. कवर करने की जिम्मेदारी मुझे दी गई. यूपी में चुनाव हो गए थे और किसी को बहुमत नहीं मिलने की वजह से सरकार नहीं बन पाई. काफी वक्त गुजर गया. एक दिन मुझे पता चला कि बीजेपी और बीएसपी में कुछ खिचड़ी पक रही है. मैं हुमायूं रोड पर कांशीराम के घर डट गया. सुबह से शाम तक रहता. अचानक उनके घर सूरजभान के आने की खबर मिली. सूरजभान लोकसभा में डिप्टी स्पीकर थे. दलित थे. काफी देर के बाद वो बाहर निकले, तो मैंने उनको कैमरे पर पकड़ लिया. कई सवाल किए, वो कुछ खास न बोले. मेरी खबर बन गई.

यूपी में बीजेपी और बीएसपी सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़ कर रहे थे. थोड़ी देर बाद कांशीराम भी निकले. मैंने पूछा, “सरकार बनाने के लिए बीजेपी से क्या बातचीत हो रही है.” मैं लपका, तो मेरे पीछे दूसरे रिपोर्टर भी लपके. अचानक कांशीराम मेरी तरफ लपके ये कहते हुए, “इसने मेरा जीना हराम कर रखा है.“

जब तक मैं समझता, तब तक उनका झन्नाटेदार तमाचा मेरे गाल पर पड़ा. उनके समर्थक मेरे ऊपर टूट पड़े. मैं जमीन पर पड़ा था. एनडीटीवी की माया मीरचंदानी और कुछ महिला रिपोर्टरों ने बचाया, नहीं तो कुछ भी हो सकता था. देशभर में हंगामा मच गया. पत्रकारों ने प्रधानमंत्री कार्यालय तक प्रोटेस्ट मार्च किया. प्रधानमंत्री देवेगौड़ा तक को दखल देना पड़ा.

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जब कांशीराम की रैली कवर करने की आई बात

इस घटना के कुछ महीनों के बाद कांशीराम के प्रवक्ता सुधीर गोयल आज तक के दफ्तर आए और पंजाब में कांशीराम की रैली कवर करने का निमंत्रण दिया. एसपी ने कहा, “रैली तो एक आदमी ही कवर करेगा, आशुतोष. आप अपने यहां पूछ लो.” वो जब चले गए, तो एसपी ने बुलाया. बोले कांशीराम की रैली कवर करोगे? मैंने थोड़ी देर सोचा और हां कर दी. वो हंसते हुए बोले, “ठाकुर नहीं हो न!“ मैं भी बेसाख्‍ता हंस दिया. एसपी जातिवादी कतई नहीं थे. बस वो मेरी टांग खींच रहे थे. मजे ले रहे थे.

एसपी चाहते तो किसी और को कांशीराम की रैली कवर करने भेज सकते थे. मेरी बीट बदल सकते थे. पर नहीं, वो जानते थे कि इसका गलत अर्थ निकलेगा. वो कहते थे, पत्रकारों का काम है खबर करना. बाकी चीजें सेकेंड्री हैं. अगर मुझे नहीं भेजते, तो बीएसपी को मुगालता हो सकता था, दूसरी पार्टियां सोच सकती थीं कि मारपीट करके वो रिपोर्टर का मनोबल गिरा सकते हैं. समाचार संस्थान की कवरेज को प्रभावित कर सकते हैं.

साथ ही वो ये भी नहीं चाहते थे कि रिपोर्टर पिटने के बाद किसी तरह के दबाव में आकर कवरेज करे. मैं डर भी सकता था और दुराग्रही भी हो सकता था. दोनों ही स्थितियां एक पत्रकार के नाते मेरे लिए ठीक नहीं थीं. ये मेरा भी इम्तिहान था. तब ये बात मेरी समझ में नहीं आई.

जब संपादक बना, तो वो वाकया मेरे लिये नजीर बन गया. कुछ भी हो जाए. पत्रकार का काम है घटना की निष्पक्ष रिपोर्टिंग करना. जो देखा, समझा वो ईमानदारी से पाठक, दर्शक तक पंहुचाना. न राग, न द्वेष. न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.

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इस तरह खबरों को पकड़ना सीखा

आज की पत्रकारिता पर शायद उनको अफसोस होता. खासतौर पर टीवी की. वो समझौता नहीं करते. वो टीआरपी के लिए एक सीमा के बाद नहीं झुकते. और ज्यादा दबाव पड़ता तो इस्तीफा देकर घर बैठ जाते. ऐसा नहीं था कि वो खबरों को पूरी तरह से सिर्फ सूचना की तरह देने के पक्ष में थे. कतई नहीं. आज तक इतना लोकप्रिय इसलिए हो सका, क्योंकि वो सिर्फ खबर नहीं दिखाता था. वो काम दूरदर्शन तो कर ही रहा था. उन्होंने खबरों के बीच क्या खबर है, हम लोगों को पकड़ना सिखाया.

वो कहते थे राजनीतिक खबरें वो नहीं होती जो दिखती है या जो टीवी के कैमरे पर बोली जाती है. खबर वो होती है, जो न दिखती है और न बोलती है. वो छिपी होती हो. उसे हवा में पकड़ना पड़ता है. छोटी सी निरर्थक बात, नेता की बॉडी लैंग्वेज, उसका बोलने का अंदाज, ये भी खबर की चुगली करते हैं, बस उसे पकड़ना होता है.

वो हवा में खबर पकड़ लेते थे. खबर पकड़ने के बाद वो उसके विश्लेषण पर जोर देते थे. ये बताने के लिए कि खबर का मर्म क्या है. खबर जा कहां रही है. जाहिर है ऐसा करते समय रिपोर्टर के निजी विचार खबर में हावी होंगे. वो खबरों को 'एडिटोरियलाइज' करने के खिलाफ नहीं थे. वो वैचारिक पूर्वाग्रह से खबरों को परोसने के विरोधी थे. आज जिस अंधेपन से एंकर संपादक विचारों को थोपने की कोशिश कर रहे हैं, वो इसे रिजेक्ट करते.

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मीडिया में मेरे शुरुआती दिनों की पूरी कहानी
एसपी की एक और खासियत थी. वो वामपंथ से प्रभावित थे, पर वामपंथी नहीं थे.
फोटो: क्विंट हिंदी

एसपी की एक और खासियत थी. वो वामपंथ से प्रभावित थे, पर वामपंथी नहीं थे. वो हिन्दुत्ववाद के विरोधी थे, पर हिंदुत्ववादियों से नफरत नहीं करते थे. उनके मित्रों में वामपंथी भी थे और हिंदुत्ववादी भी. कांग्रेस से उन्हे कोई प्रेम नहीं था. पर सीताराम केसरी जब कांग्रेस के अध्यक्ष बने, तो वो उनके सबसे बड़े राजनीतिक सलाहकार थे.

जब केसरी ने देवेगौड़ा सरकार से समर्थन वापस लिया, तो उन्हें शायद इस बात की जानकारी सबसे पहले थी. जैसे मेरे पास ये खबर आई, मैंने उनको फोन किया. जब जानकारी दी, तो बोले, “अच्छा कर दिया”. उनके टोन से साफ था कि उन्हें पहले से पता था कि ऐसा होने जा रहा है. उनके टोन में आश्चर्य नहीं था. उस दिन बहुत सारे लोग हक्के-बक्के रह गए थे.

इस जानकारी का कोई फायदा उन्होंने उठाने की कोशिश नहीं की. उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता और पत्रकारीय प्रोफेशनलिज्‍म में न कोई टकराव था और न ही किसी तरह की दोस्ती. एक उदासीन भाव था. शायद यही बात आज के बड़े बड़े संपादकों से उन्हें अलग करती है.

आज का दौर बदल गया है

आज का दौर है मोदी और अमित शाह के साथ सेल्फी खिंचाने का. उनके बुलाने पर पूरी तरह से अभिभूत हो जाने का. उनके आभामंडल के सामने बिछ जाने का और नजदीकी का जिक्र कर गौरवान्वित होने का. पत्रकार अगर नेता के आभामंडल में रहेगा, तो पत्रकारिता क्या करेगा, वो भाटगिरी करेगा. सेल्फी खिंचाने के लिए लाइन में लगेगा, तो फिर चालीसा ही गाएगा. सेल्फीवीर पत्रकार-संपादक पैसे तो कमा सकते हैं, सम्मान नहीं. एसपी के जमाने में कई भाट थे. पर आज जैसी भाटों की फौज तब नहीं थी.

पत्रकार और नेता के बीच बराबरी का रिश्ता जब तक नहीं होगा, तब तक पत्रकारिता नहीं हो सकती. एसपी ने इज्जत कमाई. पैसा नहीं, क्योंकि उनका रिश्ता बराबरी का था.

आज जब देश पर हिटलरवाद का साया गहराता जा रहा है, कलम और कैमरे बेजुबान हो रहे हैं, मीडिया बिल में छिपा बैठा है, पत्रकार सिकुड़ गया है, तब उनका न होना खलता है. 49 की उम्र कोई जाने की नहीं होती है. पर वो गए, कभी न वापस आने के लिए.

सही मायनों में आज उनकी जरूरत हैं. उनके उस तेवर की जो कलम को तलवार बना देती थी. जो न ठिठकती थी, न सहमती थी, बस अपनी धुन मे, अपनी धार पर चलती रहती थी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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