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सरकार की बहुमत मानसिकता वाली दबंगई का उदाहरण है टेलीकम्युनिकेशन बिल का पास होना?

यह विधेयक कम्युनिकेशन में दखलअंदाजी की सरकार की लगभग अनियंत्रित ताकत को बढ़ाता है और वैध बनाता है.

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प्रधानमंत्री मोदी और उनके संचार मंत्रालय ने लोकसभा और राज्यसभा में दूरसंचार विधेयक (Telecommunications Bill) को जिस गैरजरूरी जल्दबाजी और लापरवाही से पेश किया, उससे न केवल उनकी दबंगई वाली बहुमत की मानसिकता का पता चलता है, बल्कि चर्चा को लेकर सरकार की उदासीनता (या डर) भी उजागर होती है.

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सरकार ने पहले यह सुनिश्चित किया कि लगभग पूरे विपक्ष (संसद में उपस्थित) को निलंबित कर दिया जाए और फिर बिजली की रफ्तार से इस विधेयक को लाया गया, जिस पर कोई समीक्षा या बहस नहीं हुई. सरकार यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह जो चाहती थी, उसे पूरा कर ले, इतनी बेताब थी कि इसकी पड़ताल करने की राज्यसभा की शक्ति को भी दरकिनार कर दिया.

एकदम बिना वजह के ऐलान कर दिया गया कि यह एक धन विधेयक (Money Bill) है, जिसका फैसला व्यावहारिक और कानूनी रूप से निचले सदन द्वारा किया जाएगा.

क्या हासिल करना चाहता है नया बिल?

विधेयक का मसौदा शायद ही कभी गंभीर आम चर्चा के लिए रखा गया था. इसमें धारा 4 जैसे प्रावधान डाले गए हैं, जिसके तहत यह सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े कॉरपोरेट्स के साथ वित्तीय सौदे कर सकती है, जिससे उन्हें स्पेक्ट्रम जैसे बहुमूल्य राष्ट्रीय संसाधन सीधे सौंपे जा सकते हैं.

निःशुल्क और उचित मूल्य पर नीलामियों में न जाकर, यह धारा सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के शब्द और भावना का उल्लंघन करती है.

हर किसी को उम्मीद थी कि नए कानून में धारा 20 से लेकर 23 तक (जो प्राइवेसी के हनन के बारे में है) जैसी संवेदनशील धाराओं पर आम जनता के बीच ज्यादा खुली चर्चा होगी और फिर विधेयक संसद के दोनों सदनों में लाया जाएगा.

ऐसी उम्मीद पालना बेकार था क्योंकि संतुलन, दूरदर्शिता और खुले दिल वाली विश्वदृष्टि आमतौर पर शिक्षा के एक तय स्तर और समझ से आती है, जो सत्तारूढ़ जोड़ी में नहीं दिखती है.

वे न तो इन जरूरतों को समझते हैं और न ही लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की परवाह करते हैं.

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नए विधेयक का अतीत, वर्तमान और भविष्य

नया कानून 1885 के इंडियन टेलीग्राफ एक्ट, 1933 के इंडियन वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट और 1950 के टेलीग्राफ वायर्स (अनलॉफुल पजेशन) एक्ट की जगह लेने वाला है. 1885 का कानून समय की कसौटी पर खरा उतरा है और समय की जरूरतों के मुताबिक लगातार बदलाव किए गए, जिसमें जुगाड़ू बदलाव भी शामिल हैं. लेकिन 138 साल पुराने भरोसेमंद कानून को एक झटके से खत्म कर देने का कोई औचित्य नहीं है.

वैसे इंटरसेप्ट और इंटरनेट शटडाउन की ताकत पुराने कानून में भी थीं, लेकिन तय की गई ‘निष्पक्षता’ की सीमाओं के साथ.

इसे नजरअंदाज करने वाली इस बाहुबली सरकार को पत्रकारों और लोकतांत्रिक विरोधियों की बातचीत को हैक करने के लिए बेहद महंगे पेगासस टेलीकॉम-घुसपैठ सॉफ्टवेयर खरीदने की ख्याति हासिल है. कमजोर लीगल सिस्टम की वजह से सरकार बेदाग छूट गई.

इस विधेयक में कहा गया है कि टेलीकॉम में इंटरनेट का उपयोग करने वाली सेवाओं की एक विस्तृत श्रृंखला भी शामिल है, जैसे मैसेजिंग, कॉलिंग और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग. जाहिर है कि इनमें तार, रेडियो या ऑप्टिकल फाइबर द्वारा टेक्स्ट, ऑडियो या वीडियो का ट्रांसमिशन भी शामिल है.

सूचना और प्रसारण मंत्रालय रेडियो प्रसारण (radio transmission) को ज्यादा विस्तृत तौर पर परिभाषित करना चाहता है– ऐसी चीज जो टावरों और सैटेलाइट से परे है और इंटरनेट को कवर करती है. यह दिलचस्प है कि हर कोई इंटरनेट सेवाओं और फायदेमंद OTT (ओवर-द-टॉप) सेक्टर को हथियाना चाहता है.
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सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय इसे IT एक्ट की मदद से नियंत्रित करता है, लेकिन 2020 में इसे ऐसे नियम बनाने पड़े, जो सूचना और प्रसारण मंत्रालय को अपने साम्राज्य के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर नियंत्रण का अधिकार देते हैं, जो डिजिटल और सोशल मीडिया ट्रांसमिशन से जुड़ा है.

वह मंत्रालय अब एक प्रसारण विधेयक (Broadcasting Bill) लेकर आ रहा है, जो उसे इंटरनेट और OTT के और भी बड़े हिस्से को नियंत्रित करने के लिए अधिकृत करेगा. तो, अब हमारे पास तीन मंत्रालय होंगे (दो एक ही मंत्री के अधीन) जो एक ही इंटरनेट और OTT को नियंत्रित करने के लिए लड़ेंगे.

यह विधेयक सरकार को पब्लिक कम्युनिकेशन को नियंत्रित करने का अधिकार देता है.

इस विधेयक का इरादा पब्लिक कम्युनिकेशन पर कई पाबंदियां लगाने का है, जो नागरिकों को आसानी से डरा सकती हैं. मंत्रालय एकदम मनमाने ढंग से इंटरनेट सेवाओं को बंद करने और गोपनीयता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में दखल देने के लिए नई ताकत के साथ आया है.

कुल मिलाकर, इस कानून से सरकार की मनमानी की गंध आती है और यह मौजूदा औपनिवेशिक कानून से एक कदम आगे जाकर, नियंत्रण का दमनकारी माहौल बनाने की कोशिश करता है, जो अपनी बनावट में ही सरकार समर्थक है.

यह विधेयक कम्युनिकेशन में दखलअंदाजी की सरकार की लगभग अनियंत्रित शक्तियों को बढ़ाता है और वैध बनाता है. यह कुछ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म द्वारा उनके एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन के साथ दी जाने वाली मौजूदा सुरक्षा को भी कमजोर बनाता है और सरकार जल्द ही इकोसिस्टम में भारी हलचल मचाने वाली है.

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चूंकि, सरकार अब मैसेज को इंटरसेप्ट करने या ब्लॉक करने के लिए खुद को अधिकार संपन्न बना रही है, इसलिए पहला निशाना साफतौर पर खुला वातावरण देने वाले वाट्सएप या सिग्नल जैसे कुछ फ्री एप होंगे.

इस तरह, अब डरे हुए नागरिकों को अपनी शिकायतों का गला घोंटना होगा (“किसी की सब पर नजर है!”), जबकि निकृष्टतम-स्तर के कट्टर प्रचारक इन मीडिया को अल्पसंख्यकों और असंतुष्टों के खिलाफ नफरत से भर देंगे और सोशल मीडिया पर उनकी सत्ता कायम रहेगी.

ये धमाचौकड़ी राष्ट्रवादी वचनों की आड़ में होगी, जैसे कि “जन सुरक्षा या जन संरक्षण के लिए”, “देश की सुरक्षा” और “अपराधों को बढ़ावा देने पर लगाम.”

इस तरह के आधारों पर टेलीकॉम सेवाओं को भी निलंबित किया जा सकता है और बिना किसी राहत या मुआवजे के खुद को लोकतंत्र की जननी कहने वाली राजनीति में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संबंधों का ताना-बाना बिखर जाएगा.

सरकार को समर्पित विधेयक जो नागरिकों की गोपनीयता में दखल देता है.

बता दें कि, टेलीकम्युनिकेशन सेवाओं के सबसे बड़ी संख्या में निलंबन का विश्व रिकॉर्ड भारत के नाम है. पुलिस अधिकारी इस बात को समझने के लिए कतई संवेदनशील नहीं दिखते हैं कि जिस मुक्त टेलीकम्युनिकेशन सेवा का वो जब-तब गला घोंट देते हैं, वह असल में नागरिकों का मौलिक अधिकार है.

शटडाउन के चलते आर्थिक नुकसान की कोई भी शिकायत अनसुनी कर दी जाती है और यह विधेयक सरकार की ऐसी गैर-जिम्मेदाराना निरंकुश कार्रवाइयों को और ताकत देता है.

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हालांकि, विधेयक टेली-स्नूपिंग और कॉल इंटरसेप्शन के खिलाफ कुछ सुरक्षा की बात करता है, लेकिन इसमें सबसे पहले तो कोई प्रक्रिया तय नहीं की गई है. बस इतना कहा गया है कि केंद्र सरकार द्वारा नियम बनाकर इसे तय किया जाएगा.

इससे कार्यपालिका को नागरिकों को, खासकर उन लोगों को, जो सरकार के खिलाफ खड़े होते हैं, परेशान करने की खुली छूट मिल जाती है. विधेयक व्यावहारिक रूप से बड़े पैमाने पर निगरानी की इजाजत देता है और सरकार को निजता के हमारे मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने का अधिकार देता है.

विधेयक के सबसे खतरनाक प्रावधानों में से एक यह है कि यह केंद्र सरकार की तरफ से अधिकृत किसी भी अधिकारी को कुछ तय वजहों पर किसी परिसर या वाहन की तलाशी लेने की इजाजत देता है, लेकिन कानून की उचित प्रक्रिया के बिना ऐसी ताकत बदमाशी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है.

इसमें सैद्धांतिक सुरक्षा दी गई है लेकिन न तो ऐसी कार्रवाइयों के खिलाफ प्रक्रिया और सुरक्षा उपाय तय किए गए हैं और न ही कहा गया है कि ऐसे सुरक्षा उपाय किए जाएंगे.

यह असल में नागरिकों के खिलाफ व्यवस्था है. यहां तक कि यूजर्स का बायोमीट्रिक या फेस रिकॉग्निशन भी बहुत संतुलित नहीं होगा और इससे निजता के मौलिक अधिकार का अतिक्रमण होने की संभावना है.
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सच तो यह है कि फाइनेंस, बैंकिंग और बिजली सेक्टर के उलट, जहां स्वतंत्र या अर्ध-न्यायिक नियामक खुली जन सुनवाई के माध्यम से कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय लेते हैं, सरकार हकीकत में दूरसंचार क्षेत्र को ऐसी पारदर्शिता से बाहर ले जा रही है. विधेयक में कहा गया है कि सरकार और उसके मंत्री उन नियमों के तहत रेगुलेटरी कार्य करेंगे जो सरकार तय करेगी, यानी मामला पूरी तरह एकतरफा है.

विधेयक की खामियां गंभीर खतरा पैदा करेंगी

विधेयक की तीसरी अनुसूची में दर्ज नियम उल्लंघनों को सर्वशक्तिमान सरकार और उसके टेक्नोक्रेट व नौकरशाहों द्वारा मर्जी से बदला जाएगा-शामिल किया जाएगा, हटाया जाएगा, संशोधित किया जाएगा. विधेयक के अंत में एक मेमोरेंडम दिया है, जिसमें 35 आइटम्स को शामिल किया गया है. जिन पर अधिकारियों द्वारा नियम बनाए जाएंगे, जिसका मतलब है कि पूरे साल मंत्रालय के बाबू नियम बना रहे होंगे और बदल रहे होंगे.

विधेयक की धारा 28 यूजर्स को वस्तुओं, सेवा की पेशकश, विज्ञापन या प्रचार करने वाले और संपत्ति, व्यवसाय, रोजगार या निवेश को बढ़ावा देने वाले परेशान करने मैसेज से बचाने के सरकार के कर्तव्य का मजाक बना रही है.

यह एक अव्यावहारिक ‘डू नॉट डिस्टर्ब' मैकेनिज्म है, जिसमें सहमति की बात सिर्फ सिद्धांत रूप में की गई है. ऐसे दूसरे प्रावधान हैं, जो बेशर्मी से सरकार-समर्थक हैं-जैसे कि अध्याय III के तहत जो ‘रास्ते के अधिकार’ को परिभाषित करता है, जो हर श्रेणी या संपत्ति-निजी, सरकारी या सामाजिक-पर लागू किया जा सकता है.

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टेलीकम्युनिकेशन निश्चित रूप से एक जरूरी सार्वजनिक सेवा है, जो ऐतिहासिक रूप से बड़ी टेक कंपनियों और टेलीकॉम के शहंशाहों के लिए अकल्पनीय फायदे का जरिया रही है, लेकिन यह विधेयक इतना सरकार-पूजक है कि भूल जाता है कि भुगतान करने और तकलीफ झेलने वाला अंतिम यूजर बेचारा आम नागरिक है.

(जवाहर सरकार राज्यसभा सांसद और रिटायर्ड IAS अधिकारी हैं. दूसरे पदों के अलावा वह प्रसार भारती के CEO और भारत सरकार के संस्कृति सचिव रह चुके हैं. वह @jawharsircar पर ट्वीट करते हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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