टैक्स सुधार का सबसे ऐतिहासिक कानून अमल में आ गया है. लेकिन जीएसटी के भारी शोर-शराबे में इन कानूनी पहलुओं पर विचार ही नहीं हुआ कि विवाद की स्थिति में मामलों का प्रभावी तरीके से निपटारा कैसे होगा. खास तौर पर अगर केंद्र और राज्य के साथ जीएसटी काउंसिल का विवाद हुआ तो उसका समाधान कैसे होगा?
भारत में शासन और टैक्स व्यवस्था
इसे कुछ इस तरह समझिए कि भारत राज्यों का संघ है. यहां शासन व्यवस्था दो स्तरों पर बंटी है.
मतलब कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद और राज्य की विधानसभाओं के पास है. संविधान में संसद और विधानसभाओं के कानून बनाने के अधिकार स्पष्ट तौर पर बताए गए हैं. केंद्र और राज्य दोनों किन-किन विषय पर कानून बना सकते हैं इसके लिए संविधान में तीन अलग अलग लिस्ट दी गई हैं.
- पहली लिस्ट केंद्र की है जिसमें दिए गए मामलों पर कानून बनाने का हक सिर्फ संसद के पास है.
- दूसरी लिस्ट राज्यों की है इसलिए इसलिए इन पर कानून बनाना सिर्फ राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है.
- तीसरी लिस्ट को कनकरेंट लिस्ट कहा जाता है, इस लिस्ट में दिए गए विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं.
जीएसटी संविधान संशोधन से बदले हालात
राज्यों के पास पहले शराब, अफीम, गांजा और नशे से जुड़े दूसरे उत्पाद को छोड़कर किसी भी सर्विस और प्रॉडक्ट के प्रोडक्शन पर टैक्स लगाने का अधिकार नहीं था. यहां तक कि राज्यों के विषय वाली जो दूसरी लिस्ट है उसमें भी राज्यों के पास टैक्स से जुड़े ज्यादा अधिकार नहीं थे. लेकिन जीएसटी से जुड़े 101 वें संविधान संशोधन कानून के बाद उनके पास ये अधिकार आ गए हैं.
हालांकि, कनकरेंट लिस्ट में एक अलग एंट्री के जरिए गुड्स एंड सर्विस पर टैक्स लगाने का अधिकार शामिल किया जा सकता था. अब मान लीजिए केंद्र और राज्य एक ही आइटम पर दो अलग अलग कानून पास करते हैं तो आर्टिकल 254 (1) के मुताबिक विवाद की स्थिति में संसद की तरफ से पारित कानून मान्य होगा और राज्य विधानसभा की तरफ से पारित कानून रद्द मान लिया जाएगा.
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आर्टिकल 254(1) के मुताबिक कनकरेंट लिस्ट में अतिरिक्त एंट्री शामिल करने का मतलब यह नहीं है कि राज्य विधानसभाओं के अधिकार संसद के अधिकारों के बराबर हो जाएं. इसलिए इस जटिलता को संविधान में नया आर्टिकल 246A शामिल करके दूर किया गया है. जिसके मुताबिक:
- संविधान के आर्टिकल 246 और 254 की व्यवस्था के बावजूद संसद और हर राज्य की विधानसभा के पास गुड्स और सर्विस टैक्स से संबंधित कानून बनाने का अधिकार होगा.
- अगर गुड्स और सर्विस की सप्लाई एक से अधिक राज्यों में है तो इस बारे में कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद के पास होगा.
इसका स्पष्टीकरण क्या है
इस आर्टिकल के प्रावधान जीएसटी काउंसिल की तरफ से बताई गई तारीख से लागू होंगे. आर्टिकल 279A के क्लॉज 5 में दिए गए गुड्स और सर्विसेज से जुड़े सभी मामलों पर लागू होगा.
आर्टिकल 246 A में संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों के पास जीएसटी के संबंध में कानून बनाने का हक आ गया है. संविधान में जीएसटी काउंसिल बनाने का प्रावधान किया गया है. लेकिन स्पष्ट किया गया है जीएसटी काउंसिल राज्य और केंद्र को नीचे दिए गए मामलों पर सिफारिशें करेगी.
- आदर्श जीएसटी कानून, टैक्स लगाने के सिद्धांत, इंटीग्रेटेड जीएसटी और सप्लाई की स्पष्ट परिभाषा
- जीएसटी के तमाम रेट और सेस
- प्राकृतिक या किसी दूसरी आपदा के दौरान अतिरिक्त राजस्व जुटाने के लिए कुछ वक्त के लिए अतिरिक्त टैक्स लगाने की सिफारिश
अरुणाचल प्रदेश, असम, जम्मू कश्मीर, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड सिक्किम, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के लिए विशेष प्रावधान
जीएसटी काउंसिल के पास अधिकार नहीं?
जीएसटी काउंसिल की भूमिका सिर्फ सिफारिश करने की होगी. लेकिन सवाल यही है कि क्या जीएसटी काउंसिल की सिफारिशों का पालन करना संसद और विधानसभाओं के लिए जरूरी होगा?
मेरा मानना है कि संविधान की व्यवस्था से ऐसा महसूस होता है कि जीएसटी काउंसिल की सिफारिशें सिर्फ सुझाव या गाइडलाइंस ही होंगी. ऐसे में ये संसद या विधानसभाओं पर है कि वो इन्हें पूरी तरह मंजूर करें या फिर ठुकरा दें. संवैधानिक संस्थाओं को सिफारिशें देने का अधिकार देने की व्यवस्था नई नहीं है. मौजूदा न्याय व्यवस्था में स्पष्ट तौर पर या अपने आप यह नहीं माना जा सकता कि ऐसी संस्थाओं की सभी सिफारिशें अनिवार्य तौर पर मंजूर की ही जाएंगी. ऐसे में अगर जीएसटी काउंसिल की सिफारिशों पर अमल नहीं हुआ और कोई विवाद के हालात बने तो न्यायपालिका के पास जाने के अलावा विकल्प नहीं होगा.
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अमेरिका में भी ऐसे हालात
अमेरिका में भी राष्ट्रपति और कांग्रेस के बीच अक्सर इस तरह के मामलों पर तकरार होती है.
- अमेरिका के संविधान में एक सेक्शन में सिफारिश क्लॉज है. जिसके आधार पर अमेरिकी राष्ट्रपति कांग्रेस के सामने ऐसी सिफारिशें रखता है जिन्हें वो जरूरी और उचित समझता है. विवाद होने पर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने एक मुकदमे में इस क्लॉज की व्याख्या करते हुए कहा कि राष्ट्रपति के पास खुद कानून बनाने का अधिकार नहीं है. वो सिर्फ कानून बनाने की सिफारिश कर सकता है. कानून बनाने का अधिकार सिर्फ कांग्रेस के पास है.
- इसी तरह भारत के संबंध में संविधान के आर्टिकल 233(2) के मुताबिक हाईकोर्ट किसी वकील को डिस्ट्रिक्ट जज बनाने की सिफारिश कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने चंद्रमोहन Vs उत्तरप्रदेश मामले में फैसला दिया था कि राज्यपाल सिर्फ ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति कर सकते हैं जिसकी सिफारिश हाईकोर्ट ने की है.
- ऐसे एक दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट का मानना था कि जब तक कि सिफारिशें नामंजूर करने का कोई ठोस आधार ना हो तब तक हाईकोर्ट की सिफारिशें मानी जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक अगर सरकार को कोई एतराज है तो ऐसे मामलों में सरकार अपना नजरिया हाईकोर्ट को बताए और उसका नजरिया मांगे.
- इन मामलों से स्पष्ट है कि आर्टिकल 233 (2) के तहत हाईकोर्ट को मिले सिफारिश के अधिकार की कानूनी समीक्षा की जा सकती है.
अराजक स्थिति से कैसे बचेंगे?
अब जीएसटी से जुड़े विवाद पर आते हैं. इसमें विवाद निपटाने का कानूनी तरीका क्या होगा? मान लीजिए राज्यों ने जीएसटी काउंसिल की सिफारिशों की पूरी तरह अनदेखी करते हुए उससे उलट कानून बना दिया? ऐसे हालात अर्थव्यवस्था के लिए घातक हो सकते हैं और इससे अराजकता की स्थिति बन सकती है. अगर ऐसा हुआ तो पूरे देश को एक ही बाजार बनाने का जीएसटी का मकसद ही फेल हो जाएगा.
जीएसटी लागू हुए अभी 24 घंटे ही हुए हैं इसलिए अभी ऐसे हालात भले नजर ना आएं. पर इस बात का खतरा तो है, इसलिए हालात बनने से पहले ही उससे निपटने के उपायों पर चर्चा जरूरी है. यह तो वक्त ही बताएगा कि अब ऐसी स्थिति का खतरा है या नहीं. साथ ही अभी यह अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी कि इस तरह के मामलों में न्यायपालिका की भूमिका क्या होगी, वो किस तरह दखल देगी?
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विवाद से निपटने का मैकेनिज्म जरूरी
मैं यहां साफ तौर पर बताना चाहूंगा कि आर्टिकल 279A (11) में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि किसी भी विवाद की स्थिति को निपटाने का तरीका या मैकेनिज्म बनाने की जिम्मेदारी जीएसटी काउंसिल की होगी. ये विवाद केंद्र और राज्य सरकारों के बीच का हो, या जीएसटी काउंसिल की सिफारिशों को लेकर हो. लेकिन ये मैकेनिज्म क्या होगा इसे लेकर पूरी तरह अस्पष्टता है. खास तौर पर इन सवालों के जवाब मौजूदा कानून में नहीं हैं.
- अगर कोई राज्य जीएसटी काउंसिल की सिफारिशों पर अमल नहीं करता तो ऐसे मामलों से निपटने का क्या तरीका होगा?
- इस आर्टिकल में यह भी व्यवस्था नहीं है कि विवाद निपटारे का फॉर्मूला सभी पक्षों को मानना ही होगा.
हालांकि यहां यह बताना जरूरी है कि 115 वें संशोधन बिल 2011 के आर्टिकल 279 (B ) में विवाद की स्थिति से निपटने के कुछ तरीके सुझाए गए हैं.
- संसद कानून के जरिए जीएसटी विवाद सेटलमेंट अथॉरिटी बना सकती है. यह अथॉरिटी जीएसटी काउंसिल की सिफारिशों की अनदेखी और उसकी वजह से राज्य या केंद्र को हुए घाटे की शिकायतों का निपटारा कर सकती है.
- लेकिन यह आर्टिकल संविधान संशोधन कानून के तहत पास नहीं कराया गया है.
- इसके अलावा विवाद सुलझाने का कोई दूसरा तरीका नहीं दिया गया है.
क्या जीएसटी आधारभूत ढांचे के लिए चुनौती है?
जीएसटी काउंसिल में व्यवस्था है कि हर फैसला बैठक में मौजूद सदस्यों के तीन चौथाई बहुमत से पास होना जरूरी है. लेकिन यह भी मुमकिन है कि जीएसटी काउंसिल के कुछ फैसले कुछ राज्य या केंद्र को मंजूर ना हों. ऐसे में पूरी आशंका है कि जीएसटी काउंसिल के कुछ फैसलों अदालती लड़ाई में फंस सकते हैं. ऐसे में केशवानंद भारती Vs केरल मामले में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला विवाद सुलझाने के लिए नजीर बन सकता है.
इन दलीलों से विवाद बढ़ सकता है..
- संबंधित पक्ष कह सकता है कि संविधान निर्माताओं ने संसद और विधानसभाओं के बीच टैक्स संबंधी अधिकारों का डिस्ट्रिब्यूशन पहले ही कर रखा है.
- जीएसटी काउंसिल के फैसलों को राज्य अपने अधिकारों में दखल बताते हुए जीएसटी के मूल सिद्धांत को भी कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.
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केंद्र अपने अधिकारों को बंटवारा ना करे तो...
ऐसे हालात बन सकते हैं जिसमें केंद्र और राज्यों के अधिकार एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में आ जाएं. राज्य कह सकते हैं कि उन्होंने तो अपने बहुत अधिकार छोड़ दिए हैं, लेकिन केंद्र ने नहीं छोड़े और यही वजह बड़े विवाद की वजह बन सकती है.
- राज्यों की लिस्ट में कमी- राज्यों को क्रूड, हाईस्पीड डीजल, पेट्रोल, नैचुरल गैस, एविएशन फ्यूल और अल्कोहल (शराब) में टैक्स के अधिकार हैं, लेकिन इनके अंतरराष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय बिक्री पर टैक्स के अधिकार उनके पास नहीं होंगे.
- केंद्र की लिस्ट में 92A की एंट्री की परिभाषा कुछ इस तरह है कि उसके पास अखबार को छोड़कर अंतरराज्यीय कारोबार की तमाम चीजों पर टैक्स वसूली का अधिकार होगा.
- जाहिर है जीएसटी से जुड़े संविधान संशोधन में सबसे बड़ी कमी यही है कि अगर राज्य या केंद्र जीएसटी काउंसिल की सिफारिशों को नहीं मानते तो मामला उलझ जाएगा. ऐसे हालात इतने ऐतिहासिक टैक्स सुधार जीएसटी मुख्य मकसद को बड़ा झटका दे सकते हैं.
(लेखक विपिन जैन टीएलसी लीगल के मैनेजिंग पार्टनर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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