लोकसभा उपचुनाव में पालघर सीट जीतकर बीजेपी ने अपनी लाज तो बचा ली, लेकिन इससे यह भी पता चल गया कि महाराष्ट्र में सहयोगी शिवसेना के साथ पार्टी के संबंध किस लेवल पर आ गए हैं. इसका असर 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर पड़ना तय है.
अभी शिवसेना पालघर में बीजेपी से सीधी लड़ाई में हार के जख्म सहला रही है और उसने फिर अलायंस तोड़ने की धमकी दी है. वह बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व पर लगातार हमले कर रही है. उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर गवर्नेंस के नाम पर ड्रामा करने का आरोप लगाया है. यहां तक कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद विपक्षी दलों के एकजुट होने की तारीफ भी की है.
लेकिन क्या शिवसेना चीफ उद्धव ठाकरे बीजेपी-विरोधी गठबंधन का हिस्सा बनेंगे? कम से कम अभी तो कोई इस पर दांव लगाने को तैयार नहीं है.
इस बीच, पिछले शुक्रवार को एक अप्रत्याशित घटना हुई, जब बीजेपी नेता नितिन गडकरी ने पुणे के एक फाइव स्टार होटल में अपने दोस्त और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी शरद पवार से गुपचुप मुलाकात की. कहा गया कि एनसीपी चीफ और सड़क और परिवहन मंत्री के बीच मुलाकात में क्षेत्र के इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को लेकर बातचीत हुई.
दोस्ती या दुश्मनी
उपचुनाव में कांग्रेस और पवार साथ-साथ थे. राज्य की भंडारा-गोंदिया सीट पर कांग्रेस के समर्थन से एनसीपी कैंडिडेट को जीत मिली. वहीं, पिछले कुछ महीनों में पवार और ठाकरे के बीच भी बातचीत हुई है. उधर, पालघर सीट जीतने के तुरंत बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने सुलह के संकेत देते हुए कहा था,
‘हमारे लिए तल्खी खत्म हो गई है... लेकिन भविष्य में ऐसा ना हो, इसके लिए हमें आत्मचिंतन करना होगा कि क्या चुनाव इस तरह से लड़ा जाना चाहिए.’देवेंद्र फडणवीस, मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र
दरअसल, पालघर सीट जीतने के लिए फडणवीस ने पूरी ताकत झोंक दी थी. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने उद्धव पर लगातार हमले किए थे.
तल्खी और धोखा
जनवरी में सांसद चिंतामण वांगा के निधन की वजह से पालघर सीट पर उपचुनाव हुआ था.
बीजेपी के वफादार वांगा ने 1996, 1999 और 2014 में यह सीट जीती थी. इस संसदीय क्षेत्र में शहरी और ग्रामीण इलाके दोनों शामिल हैं. बीजेपी-शिवसेना के अलायंस के दौरान यह सीट हमेशा बीजेपी को मिलती आई थी. बीजेपी यहां जीते या हारे, शिवसेना ने गठबंधन के दौरान कभी इसकी परवाह नहीं की. दोनों पार्टियों के बीच तल्खी की वजह यही थी.
बीजेपी ने वांगा के बेटे की अनदेखी की तो शिवसेना ने उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया. फडणवीस को इससे झटका लगा और उन्होंने अलायंस पार्टनर पर तीखे हमले किए.
जीतने के लिए साम, दाम, दंड, भेद
हिंदू वोटों को अपने पाले में करने के लिए यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी प्रचार करने की खातिर बुलाया गया. फडणवीस ने आखिर में यहां तक कहा कि बीजेपी को जीतने के लिए साम, दाम, दंड, भेद जो भी जरूरी हो, उसका इस्तेमाल करना चाहिए.
वह वांगा के प्रतिद्वंद्वी और क्षेत्र के लोकप्रिय कांग्रेसी नेता राजेंद्र गावित को पालघर से बीजेपी का उम्मीदवार बनाने में सफल रहे. गावित को 29,500 सीटों से जीत मिली और फडणवीस अपनी लाज बचाने में सफल रहे. हालांकि, ठाकरे ने चुनावी नतीजे को मानने से इनकार कर दिया. उन्होंने चुनावी प्रक्रिया और चुनाव आयोग की ईमानदारी पर सवाल उठाए.
ठाकरे ने पूछा कि आखिर रातोंरात वोट पर्सेंटेज कैसे बढ़ गया, जो कि जायज सवाल था. उन्होंने पालघर चुनाव के नतीजे को अदालत में चुनौती देने की चेतावनी भी दी. जिन स्वतंत्र पत्रकारों ने इस चुनाव को कवर किया था, उन्होंने भी चुनावी प्रक्रिया में कई कमियों की ओर इशारा किया.
हालांकि, ठाकरे फडणवीस और चुनाव आयोग को अदालत में नहीं घसीटेंगे. इसके लिए उन्हें बीजेपी-शिवसेना का अलायंस तोड़ना पड़ेगा और ठाकरे की पार्टी के नेताओं को मोदी और फडणवीस कैबिनट से इस्तीफा देना होगा.
अक्टूबर 2014 से ठाकरे इस ऊहापोह में हैं कि सत्ता की खातिर कम हैसियत के साथ वह अलायंस में बने रहें या बीजेपी के अहंकार को कुचलने के लिए विपक्षी नेता की भूमिका निभाएं.
यह शेर सिर्फ दहाड़ता है
करीब चार साल से ठाकरे उस उलझन को सुलझा नहीं पाए हैं. राष्ट्रीय नेता की छवि रखने वालीं ममता बनर्जी, अखिलेश यादव या कभी बीजेपी के विरोधी रहे नीतीश कुमार जैसे क्षेत्रीय नेताओं के बजाय उद्धव उग्र छवि वाले प्रांतीय नेता दिखते हैं.
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि पालघर उपचुनाव उनके लिए यह मौका हो सकता था. देश भर में बढ़ रहे बीजेपी विरोध के साथ अगर वह अपनी आवाज मिला पाते तो उद्धव भी राष्ट्रीय कद वाले क्षेत्रीय नेता बन सकते थे. यह अवसर उनके हाथ से निकल गया है. शायद उनके मन में अनिश्चितता है या वह और बेहतर मौके की तलाश में हैं.
यह भी कहा जाता है कि शिवसेना में एक वर्ग बीजेपी के साथ गठबंधन बनाए रखने का हिमायती है, जिसका मानना है कि सत्ता में बने रहना पार्टी के लिए फायदेमंद है. वहीं पार्टी का एक वर्ग बीजेपी से अलग होने के हक में है, भले ही उसे लिए कोई कीमत चुकानी पड़े.
एकला चलो रे
बीजेपी-सेना के रिश्तों पर ठाकरे कई बार ‘एकला चलो रे’ का संकेत दे चुके हैं, लेकिन बीजेपी विरोधी गठबंधन की आवाज से उनकी आवाज नहीं मिल रही है. मोदी और फडणवीस की लगातार आलोचना के बावजूद उन्होंने बीजेपी से रिश्ते नहीं तोड़े हैं. इसलिए बीजेपी विरोधी गठबंधन उन्हें लेकर आशंकित है.
अगर वह 2019 का चुनाव अकेले लड़ते हैं तो उन्हें बीजेपी के साथ संयुक्त विपक्ष का मुकाबला करना होगा. उन्हें शायद राज ठाकरे से भी निपटना होगा.
उद्धव को यह ठीक नहीं लग रहा. वह महाराष्ट्र में एनसीपी-कांग्रेस और अन्य पार्टियों के गठबंधन का हिस्सा भी नहीं बन सकते क्योंकि कांग्रेस आधिकारिक तौर पर शिवसेना के साथ कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती. हालांकि, महाराष्ट्र में बीजेपी विरोधी गठबंधन का भविष्य कांग्रेस के साथ एनसीपी पर भी निर्भर करता है.
अगर शिवसेना विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनती है तो पवार उद्धव और कांग्रेस के बीच तालमेल का जरिया बनेंगे. वहीं, अगर उद्धव विपक्षी गठबंधन से अलग रहते हैं तो बीजेपी के साथ बेमन के अलायंस में वह अलग-थलग पड़ जाएंगे. इसीलिए पुणे में गडकरी और पवार की गुपचुप मीटिंग की अहमियत बढ़ जाती है.
मोदी और फडणवीस विरोध का झंडा ठाकरे ने उठा रखा है, लेकिन वह इस रास्ते पर बहुत आगे नहीं बढ़ पाए हैं. इसमें हर बार बीजेपी के साथ बने रहने या अलग होने की उलझन उनके आड़े आ जाती है. पालघर से यह उलझन और बढ़ गई है.
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