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Union Budget 2023 : मोदी सरकार की नई टैक्स व्यवस्था लाभकारी होगी या दर्द देगी?

बजट भाषण के दौरान की गई प्रमुख घोषणाओं की विस्तृत समीक्षा करने पर यह बजट 'नो-गेन-नो-पेन' जैसा प्रतीत होता है

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वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किए केंद्रीय बजट (Union Budget 2023) में इस साल के वित्तीय रूपरेखा के लिए 'अमृतकाल के मार्गदर्शक के तौर पर सप्तऋषि' का उल्लेख करते हुए सात प्रमुख प्राथमिकताओं वाले लक्ष्यों को रेखांकित किया गया है.

अमृत काल के विजन के मार्गदर्शन के लिए सप्तऋषि नामक तय की गई सात प्राथमिकताएं यह हैं :

  1. समावेशी विकास

  2. अंतिम व्यक्ति तक पहुंच और उसका विकास

  3. बुनियादी ढांचा एवं निवेश

  4. क्षमता विस्तार

  5. हरित विकास

  6. युवा शक्ति

  7. वित्तीय क्षेत्र

प्रमुख राजकोषीय आंकड़ों को व्यापक बाजार अपेक्षाओं के अनुरूप रखा गया है, जिसमें राजकोषीय घाटे को संशोधित करके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 5.9 फीसदी का अनुमान लगाया गया है. (वहीं वित्त मंत्री ने कहा है कि केंद्र सरकार 2025-26 तक राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 4.5 फीसदी तक लाने के लिए प्रतिबद्ध है.)

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सकल उधार (Gross borrowing) स्तर 15.43 ट्रिलियन रुपये पर रखा गया (जो अभी भी बहुत ज्यादा है); शुद्ध कर राजस्व वृद्धि करीब 11% देखी गई. (यह देखते हुए कि सरकार ने अपने विनिवेश लक्ष्यों को पूरा करने में अब तक कितना खराब प्रदर्शन किया है, प्रस्तुत किए गए टैक्स और नॉन-टैक्स रेवेन्यू संग्रह परिव्यय में 4 लाख करोड़ के अंतर के स्रोत को पहचानने की आवश्यकता होगी.) और समग्र सरकारी व्यय जोकि सरकारी कैपेक्स और रेलवे के लिए उच्च लागत से प्रेरित है, वह जीडीपी का करीब 7% है.

व्यक्तिगत आयकर पर, टैक्स की दर में कटौती और छूट की घोषणाओं के संदर्भ में दिए गए प्रोत्साहन मोटे तौर पर मध्यम वर्ग के करदाताओं (जो वास्तव में भारत में कॉर्पोरेट वर्ग की तुलना में प्रत्येक वर्ष अधिक टैक्स भरते हैं) को 'नई कर व्यवस्था' अपनाने की दिशा में आगे बढ़ाने के लिए हैं.

टैक्स स्लैब में जो संशोधन किए गए हैं. उसकी जानकारी नीचे दी जा रही है. इसके अलावा मोटी आय वाले कर दाताओं (जो सालाना 5 करोड़ रुपये या उससे अधिक कमाते हैं) पर सरचार्ज कम करते हुए अधिकतम प्रभावी कर की दर 42.7 प्रतिशत से घटकर 39 प्रतिशत कर दी गयी है. यह इस व्यवस्था इस उम्मीद से की गई है कि सुपर रिच यानी मोटी आय वाले करदाता तेजी से नई टैक्स व्यवस्था में शिफ्ट हो जाएंगे.

नया टैक्स स्लैब इस तरह है -

  • 0-3 लाख रुपये तक आय पर शून्य (0) %

  • 3-6 लाख रुपये तक आय पर 5%

  • 6-9 लाख रुपये तक आय पर10%

  • 9-12 लाख रुपये तक आय पर 15%

  • 12-15 लाख रुपये तक आय पर 20%

  • 15 लाख रुपये से अधिक आय पर 30%

बजट भाषण के दौरान की गई प्रमुख घोषणाओं की विस्तृत समीक्षा करने पर यह बजट 'नो-गेन-नो-पेन' जैसा प्रतीत होता है. यहां, मैं अपने ऑब्जर्वेशन्स को इस वित्तीय वर्ष के लिए घोषित व्यक्तिगत आयकर दर संशोधनों (नई कर व्यवस्था के अनुसार) के संभावित प्रभावों के विश्लेषण तक सीमित करता हूं.

व्यक्तिगत इनकम टैक्स संशोधन

नई कर व्यवस्था में किए गए संशोधनों के आधार पर भारतीय परिदृश्य में मैक्रो-मिडिल क्लास को निम्न-आय वाले मध्यम वर्ग, मध्यम वर्ग और उच्च-मध्य वर्ग में उप-वर्गीकृत किया जा सकता है. नई टैक्स व्यवस्था को अपनाने से इस वर्ग को टैक्स बचाने के लिए मामूली लाभ हो सकता है.

नई टैक्स व्यवस्था में 9 लाख रुपए तक की वार्षिक आय वाले व्यक्ति को केवल 45 हजार रुपए का भुगतान करना पड़ेगा, जबकि पुरानी कर व्यवस्था में उसे 60 हजार का भुगतान करना पड़ता था. वहीं नई कर व्यवस्था में कुल छूट सीमा या टैक्स-फ्री लिमिट को 5 लाख से बढ़ाकर 7 लाख रुपए कर दिया गया है, इसके परिणाम स्वरूप अब कम आय वाले ज्यादा से ज्यादा लोग टैक्स भरने के दायरे से बाहर हो गए हैं.

मुख्यत: दो वजहों से मध्यम वर्ग के लिए घोषित एक (मामूली) टैक्स रेट ब्रेक की सख्त जरूरत थी. पहला, बढ़ती हुई महंगाई (खाद्य कीमतों और ईंधन की लागत की वजह से) और महामारी के बहुत पहले से मध्यम वर्ग (साथ ही निम्न-आय) वर्गों में निरंतर निम्न आय/मजदूरी वृद्धि स्तर को को देखते हुए पिछले कुछ सालों में भारत में व्यापक 'मध्यम वर्ग' (मिडिल क्लास) समूह पर अधिक खर्च करने के लिए दबाव डाला जा रहा था, जबकि बढ़ी हुई आय पर उसे उच्च टैक्स दर के हिसाब से टैक्स भरना पड़ रहा था.

यहां तक कि टैक्स दर में मामूली सी कटौती भी उनकी डिस्पोजेबल इनकम और वैकल्पिक खर्च/बचत के स्तर को बढ़ाने में मदद करेगी. यह घरेलू बचत को बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण है, जिसमें पिछले एक दशक में गिरावट आई है और बढ़ती कुल कम आय वाली खपत मांग के संदर्भ में (जो कम से कम वर्ष 2016 से चिंता का विषय रहा है) भी यह मायने रखती है.

लेकिन, संशोधनों के माध्यम से दिए गए टैक्स-ब्रेक के मार्जिन को देखते हुए, निम्न आय-मध्यम वर्ग के संदर्भ में ऊपर बताए गए मुद्दों को हल करने में सरकार बहुत दूर नहीं जाती है. इसके अलावा, भारत में अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष कर व्यवस्था की विषम प्रकृति, देश के औसत कम आय वाले उपभोक्ता पर प्रतिगामी प्रभाव डालती है, यह वर्ग अमीरों के समान ही जरूरी वस्तुओं पर एक जैसा टैक्स चुकाता है.

हाल ही में ईंधन पर करों में वृद्धि और जीएसटी के विस्तार के परिणामस्वरूप बुनियादी उपभोग वस्तुओं को भी शामिल करने से अप्रत्यक्ष कर/जीडीपी अनुपात FY10 में 8.8% के निम्न स्तर से बढ़कर 11% हो गया. इसने FY09-FY10 की अवधि के दौरान अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष कर घटना के बीच कंवर्जेंस को महत्वपूर्ण तरीके से उलट दिया, जिसमें अप्रत्यक्ष कर दरों में भारी गिरावट देखी गई और उच्च प्रत्यक्ष की घटना के कारण टैक्स उछाल आसमान छू गया.

इसके अलावा, इस बार बजट भाषण के दौरान घोषित किए गए संशोधनों के बावजूद वेतनभोगी वर्ग द्वारा भुगतान की जाने वाली निजी आयकर दर कॉर्पोरेट वर्ग द्वारा भुगतान की गई, कुल राशि की तुलना में औसत रूप से कहीं अधिक होने की संभावना है.

भले ही नई निजी इनकम टैक्स व्यवस्था अधिक पंजीकरणकर्ताओं को आकर्षित करेगी, लेकिन यह भारत के अप्रत्यक्ष कर पर निर्भर, प्रो-कॉर्पोरेट टैक्स व्यवस्था को महत्वपूर्ण रूप से नहीं बदल सकती है.

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इसका प्रमाण हाल के एक पॉलिसी स्टडी में उद्धृत किया गया है, जो इस बात का तर्क देता है कि "पॉलिसी स्ट्रक्चर (भारतीय पॉलिसी स्ट्रक्चर) बैंकिंग क्षेत्र और कॉर्पोरेट बैलेंस शीट को पुनर्जीवित करने, b), राजकोषीय रूढ़िवाद जिसमें राजस्व व्यय को सीमित करना और उच्च पूंजी परिव्यय शामिल है, c) कम ब्याज दर को संभव बनाना और d) उदार वित्त शर्तों को सुनिश्चित करने के आसपास बुनी गई थी. निजी कैपेक्स को कम कॉरपोरेट टैक्स इंसिडेंस (जीडीपी का 2.9%) के माध्यम से प्रोत्साहित किया गया था, जो वित्त वर्ष 2008 में उदारीकरण के बाद के 7.3% के प्रत्यक्ष कर/जीडीपी के अनुपात में 5.4% की गिरावट के रूप में परिवर्तित हुआ."

'व्यक्तिगत आय' बनाम 'कॉर्पोरेट आय' पर कराधान की समग्र दरों में भारी अंतर को नीचे दिए गए चित्र में दर्शाया गया है.

क्या मोदी सरकार की टैक्स नीति अमीरों और अभिजात वर्ग के पक्ष में है?

सदन में बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने सुपर रिच यानी मोटी आय वाले (जो एक वर्ष में 5 करोड़ रुपये या उससे अधिक कमाते हैं) पर सरचार्ज को कम करने की घोषणा की, जिसके परिणामस्वरूप प्रभावी कर दर 42.7% से घटकर 39% हो गई.

अत्यधिक अमीर यानी अल्ट्रा रिच और मध्यम, निम्न आय वर्ग के बीच बढ़ रही असमानता की उच्च दर और सरकारी उधारी की उच्च दर को देखते हुए यह सवाल किसी के मन में उठ सकता है कि चुनाव से एक साल पहले मोदी सरकार ने अपनी राजकोषीय नीति को 'प्रो-कॉरपोरेट', 'सुपर रिच' अभिजात वर्ग की ओर क्यों मोड़ना जारी रखा है?

जैसा कि पहले तर्क दिया गया था, अधिकांश प्रो-कॉर्पोरेट और प्रो-बिजनेस नीतियों के परिणामस्वरूप पिछले कुछ सालों के दौरान विकास या निवेश में वृद्धि नहीं हुई है और जो लोग यह सोच रहे हैं कि क्या टैक्स पॉलिसी में 'प्रो-कॉरपोरेट' होना सरकार के लाभ के लिए काम करता है, यहां कुछ संदर्भ मदद कर सकते हैं. व्यापक अर्थों में कॉरपोरेट टैक्स में कटौती से अर्थव्यवस्था में कुछ समय के लिए ऊर्जा बढ़ती है. यह इंवेस्टर्स को खुशी देता है, हालांकि यह अस्थायी रूप से थोड़े समय के लिए रहती है, लेकिन इंवेस्टर्स द्वारा ज्यादा शेयर खरीदने से स्टॉक ट्रेडर्स और भारत के वित्तीय बाजारों के चेहरे पर मुस्कान आती है. वहीं बाकी लोग जो प्रोडक्शन के कैपिटल-इंटेंसिव मोड्स पर महत्वपूर्ण रूप से प्रमुखता से निवेश करेंगे, वो भले ही कुछ समय के लिए नाम मात्र की विकास दर को बढ़ा सकते हैं, लेकिन शायद ही रोजगार को बढ़ावा देने या उच्च वेतन-भुगतान के अवसर पैदा करने के लिए बहुत कुछ करते हैं.

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क्या 'कर सुधार' के लिए और गुंजाइश थी?

राजकोषीय टैक्स को लेकर कुछ ठोस वित्तीय उपायों के संदर्भ में जैसा कि पहले ही जोर दिया गया है कि कंज्यूमर (अप्रत्यक्ष) टैक्स में कमी टैक्स बेस के तहत कम से कम अधिकांश की डिस्पोजेबल आय बढ़ाने में मदद कर सकती है. प्रत्यक्ष कर की दरों में मामूली फेरबदल से मामूली मदद मिलती है, लेकिन निकट भविष्य में निम्न-आय और मध्यम वर्ग पर 'अप्रत्यक्ष कर लागत' के बोझ को कम करने के लिए और भी बहुत कुछ किया जा सकता है.

यह देखते हुए कि इस आय वर्ग (निम्न-आय वर्ग) ने उच्च मुद्रास्फीति और महामारी से उत्पन्न मुसीबतों के बाद के चक्रों के माध्यम से कितना संघर्ष किया है, यह निम्न-आय वर्ग को बचत करने और विवेक पर अधिक खर्च करने के लिए आवश्यक वित्तीय स्वतंत्रता भी प्रदान कर सकता है.

इसके अलावा, विशेष तौर पर सामाजिक (और कल्याण या वेलफेयर) क्षेत्र (जहां मोदी सरकार ने खराब प्रदर्शन किया है) में बढ़ी हुई सरकारी व्यय आवश्यकताओं के लिए अधिक राजकोषीय राजस्व बनाने के लिए, सरकार धन संपन्न उपभोग समूह (consumption group) के शीर्ष 1% पर 'उपभोग कर' (consumption tax) लगाने पर विचार कर सकती थी.

इस तरह के टैक्स की आवश्यकता न केवल डिस्ट्रीब्यूटिव इक्विटी (अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई, या मध्यम वर्ग पर पड़ रहे दबाव) की चिंताओं को एड्रेस करने के लिए जरूरी है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस तरह के टैक्स से जो रेवेन्यू प्राप्त होगा, उससे सरकार को राजकोषीय रूप से दूरदर्शी रहने में मदद मिलेगी.

प्रत्यक्ष कर की समाप्ति पर यह अधिक मजबूत राजकोषीय राजस्व विकल्प बनाने में मदद करेगा और बाद में यह बढ़ी हुई सरकारी उधारी पर अपनी 'अत्यधिक खर्च-निर्भरता' को कम करेगा.

(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वह इस समय कार्लेटन यूनिवर्सिटी के इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट में विजिटिंग प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @Deepanshu_1810 है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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