ADVERTISEMENTREMOVE AD

उन्नाव जैसी अंधेरगर्दी यूपी में जंगलराज की दस्तक तो नहीं!

गुस्से के बावजूद यूपी में कुछ खास नहीं बदला. पूरे कार्यकाल में एक ही बदलाव होता आया है. ब्यूरोक्रेसी बदल दी जाती है

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से सटे उन्नाव से पिछले तीन महीने में दो दर्दनाक हेडलाइन निकली हैं. कोई झोलाछाप डॉक्टर एक घटिया सिरिंज का इस्तेमाल करके एक छोटे से कस्बे में 38 लोगों को एचआईवी का शिकार बना जाता है. ये वही वायरस है, जिससे भयानक एड्स की बीमारी हो सकती है.

मामला सामने आया, तो वही पुराना ब्लेम गेम- मेडिकल विभाग की गलती नहीं है, प्रशासन की मुस्तैदी में कोई कमी नहीं रही और सारा कसूर तो उस झोलाछाप डॉक्टर का है, जो अपनी करतूत करके फरार हो गया. मतलब किसी की कोई कोई जिम्मेदारी नहीं. किसी एक अदना डॉक्टर ने इतना बड़ा कांड कर दिया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अब जेल/अस्पताल में एक लाचार बाप की मौत. उसका कसूर क्या था— उसकी बेटी के साथ इलाके के गुंडों ने बलात्कार किया. आरोप है कि गुंडों का सरगना वहां का एमएलए है और सत्ताधारी दल का सदस्य है.

बलात्कार की घटना को एक साल हो गए. न्याय तो दूर, शिकायत दर्ज करने में ही महीनों गुजर गए. और जब शिकायत दर्ज हुई, तो पीड़िता के पिता को ही आर्म्स एक्ट में फंसाकर जेल में बंद कर दिया गया.

गुस्से के बावजूद यूपी में कुछ खास नहीं बदला.  पूरे कार्यकाल में एक ही बदलाव होता आया है. ब्यूरोक्रेसी बदल दी जाती है
उन्‍नाव में वारदात के बाद रोते-बिलखते परिजन
फोटो: विक्रांत दूबे

आरोप है कि वहीं उसे पीट-पीटकर मार दिया गया. मारने-पीटने का वीडियो इतना भयावह है कि दिल दहल जाता है. कोई इतना अमानवीय कैसे हो सकता है.

सच क्या है, इसके लिए हमें निष्पक्ष जांच की रिपोर्ट का इंतजार करना होगा. लेकिन इतना तो तय है कि इस तरह की घटनाएं जंगलों के कानून के हिसाब से भी जायज नहीं हैं, लेकिन यूपी में ऐसा सरेआम हो रहा है. तत्काल एक्शन तो छोड़िए, सरकारी मुलाजिम इस एफआईआर और उस प्रक्रिया का हवाला देकर डायरेक्ट एक्शन से बच रहे हैं. और फिर हुक्मरानों का रटा-रटाया, कालजयी भाषण— गुनहगारों को बक्शा नहीं जाएगा.

हाय रे रूल ऑफ लॉ और हाय रे सब कुछ बदल डालने के वादे, जो अभी-अभी तो किए गए थे!

ऐसा नहीं है कि इस तरह की घिनौनी घटनाओं पर यूपी के लोगों को गुस्सा नहीं आता है. गुस्सा तो खूब आता है. इसीलिए 2007 से लेकर अब तक हर चुनाव के अलग-अलग नतीजे रहे हैं. जहां 2007 में मायावती की बीएसपी को ताज पहनाया गया, वहीं ठीक दो साल बाद 2009 में मिस्क्ड सिग्नल देकर कांग्रेस को सॉलिड लाइफलाइन दिया गया.

गुस्से के बावजूद यूपी में कुछ खास नहीं बदला.  पूरे कार्यकाल में एक ही बदलाव होता आया है. ब्यूरोक्रेसी बदल दी जाती है
हर बार सत्ता में बदलाव के बाद एक खास सरनेम वाले अफसरों को पूरे राज्य के हर महत्वपूर्ण पदों पर बैठा दिया जाता है
(फोटोः Quint Hindi)

2012 का चुनाव अखिलेश यादव के एसपी के नाम रहा, तो 2014 में उत्तर प्रदेश पूरी तरह से मोदीमय हो गया. 2017 को 2014 का एक्सटेंशन ही समझिए. शायद मोदी सरकार को करीब से फील करने की ललक.

लेकिन इतने गुस्से के बावजूद यूपी में कुछ खास नहीं बदला है. राजनीतिक पार्टियां सबकुछ बदल डालने का वादा तो करती हैं, लेकिन पांच साल के कार्यकाल में एक ही बदलाव होता है. पूरी ब्यूरोक्रेसी बदल दी जाती है.

हर बार सत्ता में बदलाव के बाद एक खास सरनेम वाले अफसरों को पूरे राज्य के हर महत्वपूर्ण पदों पर बैठा दिया जाता है. इस बदलाव में कोई चूक नहीं होती है और न ही कोई देरी. इस वजह से प्रशासन कभी भी अपना निष्पक्ष चेहरा लोगों के सामने पेश नहीं कर पाया है. रूल ऑफ लॉ के लिए प्रशासन का निष्पक्ष रहना और दिखना बहुत जरूरी है. यूपी इससे कोसों दूर रहा है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

लेकिन ऐसा लगातार क्यों होता रहा है? इसके लिए यूपी में सामाजिक न्याय की लड़ाई के परिणामों को थोड़ा समझना पड़ेगा. राममनोहर लोहिया के उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की लड़ाई आधी-अधूरी रही है. इस लड़ाई में सबसे बड़ा रोड़ा रहा है पुराने ऑर्डर का वो अंश, जिसके तहत कुछ दबंगों ने अपने-अपने इलाकों में अपना अधिपत्य जारी रखा है.

कहीं किसी मुख्तार अंसारी का जलवा है, तो किसी इलाके में राजा भैया की तूती बोलती है. कोई इलाका डीपी यादव का है, तो कहीं अतीक अहमद का राज चलता है. हर पार्टी ने इनके अधिपत्व को खत्म करने की बजाय इनको अपने में मिलाने की कोशिश की है.

इसकी वजह से सामाजिक न्याय की एक अजीब खिचड़ी यूपी में दिखती है, जहां सोशल एलायंस इन दबंगों के इशारों पर बनते और बिगड़ते हैं. इस खिचड़ी ने सरकार की लेजिटिमेसी को काफी नुकसान पहुंचाया है, और रूल ऑफ लॉ इसका शिकार रहा है.

जहां कहीं भी रूल ऑफ लॉ की धज्जियां उड़ती हैं, वहां जाति-धर्म की लॉयल्टी को जरूरत से ज्यादा तरजीह मिलती है. और इसका असर अगर नौकरशाही ढांचे में दिखे, तो समझिए उन्नाव जैसी वारदात हमें शर्मसार करती रहेंगी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×