संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) एक बार फिर चर्चा में है. हाल ही में सिविल सर्विसेज परीक्षा का रिजल्ट आया है, जिसमें हिंदी मीडियम से परीक्षा देने वालों की 'बदहाली' झलक रही है. हिंदी मीडियम वाले सोशल मीडिया पर भड़ास निकाल रहे हैं. कई तो इतने गुस्से में हैं कि हिंदी भाषा को ही 'बैन' करने की मांग कर रहे हैं.
दरअसल, पिछले कुछ साल की तरह इस बार भी हिंदी मीडियम से परीक्षा देने वालों का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है. खास बात ये है इस बार पूरी मेरिट लिस्ट में हिंदी मीडियम से सबसे ज्यादा स्कोर करने वाले ने 337वीं रैंक पाई है, जो अब तक का सबसे खराब रिजल्ट है.
हिंदी वाले इस बात को लेकर चिंतित हैं कि आखिरकार ये प्रदर्शन और कहां तक गिरेगा? इस समस्या को लेकर हाल में छात्रों के कई आंदोलन हो चुके हैं.
सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं से परीक्षा देने वालों की तुलना में हिंदी वाले इतने पीछे रह जाते हैं?
इनके पिछड़ने के कारणों पर चर्चा से पहले कुछ आंकड़ों पर गौर करते हैं.
2013
यूपीएससी ने सिलेबस बदला. इस साल यूपीएससी में हिंदी मीडियम से करीब 25 ही कैंडिडेट चुने गए थे. इनमें से सिर्फ 1 ही आईएएस बन सका. हिंदी मीडियम से सबसे ज्यादा स्कोर करने वाले की रैंक थी 107.
2014
इस साल हिंदी मीडियम से सबसे ज्यादा स्कोर करने वाले की रैंक थी 13. कुछ सफल छात्रों के बीच हिंदी मीडियम वालों की तादाद 5 फीसदी से कम थी.
2015
इस साल हिंदी मीडियम से सबसे ऊंची रैंक रही 61, इसके बाद 99. मतलब टॉप 100 में हिंदी मीडियम से सिर्फ 2 कैंडिडेट.
2016
इस साल टॉप 50 में हिंदी माध्यम से 3 कैंडिडेट मेरिट लिस्ट में जगह बनाने में कामयाब रहे.
2017
हिंदी माध्यम से सबसे ज्यादा स्कोर करने वाले की रैंकिंग 146. कुल चयन 50 से कम.
2018
हिंदी माध्यम से सबसे ज्यादा स्कोर करने वाले की रैंकिंग 337. इसके बाद दूसरा सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले की रैंक है 339.
बता दें कि यूपीएससी हिंदी माध्यम से कामयाब छात्रों के बारे में अलग से कोई जानकारी मुहैया नहीं कराता है. ऊपर के तथ्य कोचिंग संस्थानों और अखबार-पत्रिका आदि से मिली जानकारी पर आधारित हैं.
ताज्जुब की बात है कि UPSC की सिविल सर्विसेज परीक्षा में अब तक हिंदी मीडियम से परीक्षा देकर कोई भी टॉप नहीं कर सका है. अब तक सबसे ऊंची रैंक है 3.
पहले अंग्रेजी और हिंदी मीडियम से कामयाब होने वालों का रेशियो 55:40 हुआ करता था, जो कि अब पूरी तरह बिगड़ चुका है. हिंदी वालों की इस त्रासदी की कई वजह हैं, जिन पर आगे चर्चा की गई है.
CSAT आने से ज्यादा नुकसान
साल 2010 से पहले तक कैंडिडेट प्री एग्जाम में एक ऑप्शनल सब्जेक्ट और सामान्य अध्ययन (GS) की तैयारी करते थे. मुख्य परीक्षा में 2 ऑप्शनल सब्जेक्ट और सामान्य अध्ययन पर फोकस करते थे. तब परंपरागत विषयों की गहराई से स्टडी करने और जीएस की पढ़ाई अखबार, पत्रिका और अन्य किताबों से करने से गंभीर छात्रों को कामयाबी मिल जाती थी.
साल 2011 में प्री एग्जाम में CIVIL SERVICES APTITUDE TEST (CSAT) आने से हिंदी मीडियम वालों का बड़ा नुकसान हुआ. इसमें मैथ्स, रिजनिंग और इंग्लिश भी पूछा जाने लगा. इससे परंपरागत तरीके से तैयारी करने वालों को बड़ा झटका लगा. पहले जिनके दिमाग में यूपीएससी घूमता था, वो इन चीजों को गंभीरता से नहीं लेते थे. नए सिरे से इनकी तैयारी करना जटिल टास्क था.
इस साल अचानक सिलेबस बदलने से हिंदी मीडियम से परीक्षा में बैठने वालों की तादाद में भी कमी आई.
CSAT के सवालों का गूगल ट्रांसलेटर से हिंदी अनुवाद
CSAT से जुड़ी एक और त्रासदी है सवालों का हिंदी में घटिया अनुवाद. दरअसल, सवाल मूल रूप से अंग्रेजी में सेट किए जाते हैं, फिर हिंदी में इनका अनुवाद किया जाता है.
परेशानी की बात ये है कि ऐसे अनुवाद ज्यादातर गूगल ट्रांसलेटर जैसे टूल से मशीनी तरीके से किए जाते हैं. ऐसे सवाल भले ही हिंदी में हों, लेकिन इनका मतलब निकालना किसी मेधावी छात्र के लिए भी टेढ़ी खीर होता है.
जाहिर तौर पर, जब सवाल ही साफ नहीं होगा, तो जवाब किस तरह लिखा जा सकेगा.
मुख्य परीक्षा/इंटरव्यू में हिंदी वालों से भेदभाव का आरोपयूपीएससी पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि मुख्य परीक्षा की काॅपी जांचने के साथ-साथ इंटरव्यू में हिंदी मीडियम वालों से भेदभाव किया जाता है.यूपी के गोरखपुर के रहने वाले शांतनु श्रीवास्तव की बात गौर करने लायक है. वे बताते हैं:
‘’मुख्य परीक्षा की कॉपियां जांचने के लिए पैनल में जिन लोगों को शामिल किया जाता है, प्राय: उनकी भाषा अंग्रेजी होती है. ऐसे लोग हिंदी में उतने ही सहज हों, ये कोई जरूरी नहीं है. इससे अंक में बड़ा फर्क आ जाता है.’’
आरोप ये भी है कि बोर्ड के सदस्य हिंदी मीडियम वालों को दूसरी नजर से देखते हैं और मार्क्स देने में भेदभाव करते हैं.
कई कैंडिडेट का ऐसा अनुभव रहा है कि जब वे इंटरव्यू के दौरान हिंदी में बोलना शुरू करते हैं, तो उन्हें अपमानजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ा है. हिंदी को लेकर ताना सुनना आम बात है.
एक तथ्य यह भी है कि इंटरव्यू बोर्ड के कई सदस्यों की भाषा हिंदी नहीं होती. ऐसे में कैंडिडेट की बात समझने के लिए बोर्ड के सदस्य दुभाषिए का सहारा लेते हैं. अगर दुभाषिए ने बातों के मतलब में कोई गलती कर दी, तो बड़ा फर्क पैदा हो जाता है.
दूसरी ओर अंग्रेजी में जवाब देने वालों को ऐसे अनुभव से नहीं गुजरना पड़ता. जहां एक-एक नंबर के लिए फाइट हो, वहां इंटरव्यू के अंक से बड़ा अंतर पैदा हो जाता है.
स्टडी मेटेरियल और नोट्स की कमी
हिंदी मीडियम के कैंडिडेट को स्तरीय अध्ययन सामग्री की कमी से जूझना पड़ता है. ज्यादातर बेहतर टेक्स्ट बुक और अच्छे कोचिंग नोट्स मूल रूप से अंग्रेजी में ही होते हैं. दूसरी ओर हिंदी की सामग्री ज्यादातर दोयम दर्जे की होती है.
अगर अखबारों की सामग्री की भी बात की जाए, तो द हिंदू और द इंडियन एक्सप्रेस के सामने हिंदी का कोई अखबार शायद ही टिकता हो. हिंदी से तैयारी करने वालों के लिए ढंग की वेबसाइट तक नहीं है, जबकि अंग्रेजी में कई बेहतर वेबसाइट हैं.
मध्य प्रदेश के सिंगरौली के रहने वाले शशि प्रकाश राय भी उन हजारों कैंडिडेट में शामिल हैं, जो हिंदी मीडियम में स्तरीय अध्ययन सामग्री न होने की बात स्वीकार करते हैं. वे कहते हैं:
‘’हिंदी माध्यम में स्टडी मेटेरियल की कमी बहुत खलती है. हिंदी में जो किताब और नोट्स उपलब्ध हैं, वे प्राय: यूपीएससी के सिलेबस की डिमांड पूरी नहीं करते हैं.’’
लिखने की स्पीड और अभ्यास से जुड़ी समस्या
ये मानी हुई बात है कि लिपि की वजह से अंग्रेजी की तुलना में हिंदी में लिखने में ज्यादा वक्त लगता है. इसकी वजह है अक्षर और मात्राओं की जटिलता.
अंग्रेजी में अगर 1 मिनट में 25 शब्द लिखे जा सकते हैं, तो हिंदी में इतने ही शब्द लिखने के लिए करीब 1 मिनट 30 सेकेंड चाहिए.
व्यवहार और आदतों से जुड़े मामले
हिंदी मीडियम वालों के पिछड़ने की कुछ वजह छात्रों के व्यवहार और आदतों से जुड़ी होती हैं. हालांकि इन बातों को तथ्यों और आंकड़ों के जरिए कभी साबित नहीं किया जा सकता.
- ऐसा समझा जाता है कि हिंदी मीडियम वाले कोचिंग नोट्स पर ज्यादा निर्भर हो जाते हैं. किताबों में लिखी बात से आगे सोचने का काम कोचिंग वालों पर छोड़ दिया जाता है. यहां तक कि छात्र अपने नोट्स को लेटेस्ट रिपोर्ट, रिसर्च आदि से अपडेट करने में भी कोताही बरतते हैं, जिसका नुकसान उन्हें उठाना पड़ता है.
- अंग्रेजी वाले मॉडल पेपर सॉल्व करने पर फोकस करते हैं, जबकि हिंदी वाले यहां थोड़ी ढील दे देते हैं.
- हिंदी वाले बार-बार किताब बदलते रहने की आदत के शिकार पाए जाते हैं. इस वजह से किसी भी सब्जेक्ट को लेकर उनका कॉन्सेप्ट क्लियर नहीं हो पाता.
- ऐसा भी पाया जाता है कि हिंदी मीडियम वाले तैयारी करने वाले दूसरे कैंडिडेट से अपने बनाए नोट्स शेयर नहीं करना चाहते. दूसरों की नजर में न आने की वजह से भी उनके नोट्स की कमियां दूर नहीं हो पाती हैं.
(डिस्क्लेमर: इस आर्टिकल के कुछ हिस्से क्विंट हिंदी पर पहले छापी गई स्टोरी से लिए गए हैं)
UPSC की तैयारी करने वाले आंदोलन को मजबूर क्यों?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)