गुस्सा हो या खुशी का उन्माद, दोनों ही हालात में हमारी तर्कबुद्धि पर ग्रहण लग जाता है. इसीलिए मैं बधाइयों का दौर थमने का इंतजार कर रहा था, ताकि अपना आकलन सबके सामने रख सकूं. ईमानदारी से कहूं तो मेरा ये आकलन काफी मिलाजुला है.
लेकिन सबसे पहले सबसे जरूरी बात: एक जोरदार सलाम सचिन और बिन्नी बंसल की उद्यमशीलता और फ्लिपकार्ट के उनके सहयोगियों की टीम के नाम. उन्होंने ये चमत्कारिक सफलता ऐसे माहौल में हासिल की,जब सरकार ने किसी दुश्मन की तरह काम करते हुए, पहले तो उनके हाथ बांधे और फिर कंपटीशन के भेड़ियों के बीच फेंक दिया. नियमों के नाम पर हुए इस विश्वासघात पर थोड़ी देर बाद बात करेंगे.
"भारत के सबसे बड़े सीधे विदेशी निवेश" का झूठा दावा
सबसे पहले मैं इस झूठ की पोल खोलूंगा,जिसका बड़े जोरशोर से ढिंढोरा पीटा जा रहा है:
वॉलमार्ट द्वारा फ्लिपकार्ट के अधिग्रहण से भारत में अबतक का सबसे बड़ा, 16 अरब डॉलर का फॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट यानी सीधा विदेशी निवेश आया है.
मैंने इस बयान में शामिल झूठ को हाइलाइट करने के लिएइटैलिक्स का इस्तेमाल किया है.
हां,ये "विदेशी"है,क्योंकि जो हिस्सेदारी बिक रही है वो सिंगापुर की कंपनी की है,भारतीय कंपनी की नहीं.
नहीं,ये "डायरेक्ट"नहीं है,क्योंकि कैश कंपनी में आ नहीं रहा,बल्कि शेयरहोल्डर के पास जा रहा है. शेयर बाजार की क्लासिक शब्दावली में कहें, तो ये प्राइमरी (FDI) नहीं,बल्कि एक इनडायरेक्ट सेकेंडरी(FII) मार्केट ट्रांजैक्शन है.
यहां तक कि ये "इनवेस्टमेंट"भी नहीं है,क्योंकि इस सौदे में डॉलर का इस्तेमाल किसी नए एसेट के निर्माण के लिए नहीं बल्कि मौजूदा इनवेस्टर्स के पुराने शेयर खरीदने के लिए हो रहा है.
और अब सबसे बड़ा झूठ कि सारा पैसा“भारत में“ आ रहा है. नहीं सर,16 अरब डॉलर में करीब 14 अरब डॉलर की रकम तो जापान,अमेरिका,चीन और दक्षिण अफ्रीका चले जाने के आसार हैं. सिर्फ 2 अरब डॉलर की छोटी रकम ही भारत में वापस लौटने की उम्मीद है. और फिर भी हम बेवकूफों की तरह खुशी से नाच रहे हैं!
इस खबर का कड़वा सच उजागर करने वाली हेडलाइन कुछ ऐसी होनी चाहिए:भारत हुआ और दरिद्र,इस डिजिटल उपनिवेश के ई-कॉमर्स का कोहिनूर फ्लिपकार्ट बिका;विदेशी निवेश के साम्राज्यों ने अपने खजाने में भर लिया कैश
फ्लिपकार्ट के शुरुआती दिनों का वो "पहला पाप"
ऊंचे ख्वाब देखने वाले दो युवा इंजीनियर 2005 में आईआईटी दिल्ली में मिले. उन्हें पता था कि जेफ बेजोस ने अमेजॉन की शुरुआत किताबों की ऑनलाइन बिक्री से की थी. अक्टूबर 2007 में उन्होंने फ्लिपकार्ट की शुरुआत की. ये किताबें बेचने वाली एक सीधी-सादी वेबसाइट थी. उन्होंने खरीदारों के घरों तक डिलीवरी शुरू की,टू-व्हीलर पर दरवाजे-दरवाजे गए. पहले साल में उन्हें सिर्फ 20 ऑर्डर मिले. लेकिन जल्द ही,एक प्राइवेट इक्विटी फंड ने उन्हें 10 लाख डॉलर के निवेश की पेशकश की.
दोनों नौजवान इस पूंजी के जरिये अपना कारोबार आगे बढ़ाने के मौके को दोनों हाथों से लपकने के लिए बेचैन थे. लेकिन इसमें एक दिक्कत थी. भारत में ऑनलाइन रिटेल में एफडीआई यानी फॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट पर पाबंदी थी (और एक कंप्यूटर के जरिए कुछ किताबें बेचने पर “ई-कॉमर्स” का डराने वाला ठप्पा लग जाता था!). ये एक मूर्खतापूर्ण और गुजरे जमाने की बेकार हो चुकी पॉलिसी थी. लेकिन कानून तो यही था.
ऐसे में पूरी तरह कानून का पालन करने वाले दो युवा नागरिक एक जुगाड़ खोजने को मजबूर हो गए. डब्ल्यूएस रिटेल के नाम से एक नई कंपनी खोली गई,जिसके मालिक और शेयरहोल्डर वही थे. ये सिर्फ अड़चनें डालने वाले नियमों के बीच से रास्ता निकालने का एक उपाय था. उन बेतुके नियमों के तहत वेबसाइट को एक"टेक्नॉलजी प्लेटफॉर्म" का दर्जा दिया गया और डब्ल्यूएस रिटेल "ऑफलाइन बुक-सेलर" बन गई. इस तरह "ई-कॉमर्स" के "ई" से पिंड छुड़ाने के लिए एक काल्पनिक ढांचा तैयार हुआ,जिसे इन बातों से अनजान नौकरशाहों ने मंजूरी भी दे दी.
यही था वो “पहला पाप“,जिसकी वजह थी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाली मूर्खतापूर्ण पॉलिसी.
और पहले झूठ के बारे में क्या कहा जाता है,ये तो आप जानते ही होंगे? उसे छिपाने के लिए आपको लगातार नए-नए और बड़े झूठ बोलने पड़ते हैं. 2 करोड़ डॉलर का ऑफर लेकर जब नए निवेशक पहुंचे, तो फ्लिपकार्ट को भी यही करना पड़ा.
"पहले पाप" से"पहले अबॉर्शन" तक
बेंगलूरु के इन लड़कों को लगा कि अब अपनी स्थानीय कंपनी को खत्म कर देना ही बेहतर होगा. उन्हें समझ आ गया था कि अगर कंपनी की मिल्कियत"भारतीय" बनी रही, तो नौकरशाहों को चकमा देने के लिए हर दिन नई चाल खोजनी पड़ेगी. लिहाजा, अक्टूबर 2011 में उन्होंने सिंगापुर में फ्लिपकार्ट प्राइवेट लिमिटेड के नाम से एक नई कंपनी बनाकर अपनी शेयरहोल्डिंग उसके हवाले कर दी.
और इस तरह भारत के नीति निर्माताओं ने अपने सबसे संभावनाशील टेक-एंड-कॉमर्स स्टार्ट-अप को बाहर का रास्ता दिखा दिया. अब एक ऐसे एसेट में भारतीय पूंजी नहीं लगाई जा सकती थी, जिसकी वैल्यू पूरी तरह भारत की बदौलत ही बढ़ने वाली थी !अगर कोई भारतीय नागरिक सिंगापुर की होल्डिंग कंपनी में पैसे लगाने का दुस्साहस करता, तो उसे"राउंड ट्रिपिंग" के नियमों के तहत जेल हो सकती थी.
यानी एक ऐसा एसेट सामने था, जिसकी कामयाबी पूरी तरह भारत के ई-कॉमर्स मार्केट की संभावनाओं पर निर्भर थी, लेकिन उसमें भारतीय नागरिकों को ही निवेश करने की इजाजत नहीं थी. आप ही बताइए, क्या आपने इससे ज्यादा बेतुकी और अपना ही नुकसान करने वाली नीतियां कभी देखी हैं ?
इस नौटंकी में अभी और बहुत कुछ बाकी है...
उलझाने वाले इन नियमों में बार-बार हो रहे बदलावों की वजह से फ्लिपकार्ट को आठ अलग-अलग कंपनियां बनानी पड़ीं. तीन सिंगापुर में और पांच भारत में. इनमें थोक और कैश-एंड-कैरी कारोबार, टेक्नॉलजी प्लेटफॉर्म और पेमेंट गेटवे सर्विस के लिए बनाई गई अलग-अलग कंपनियां शामिल हैं. इस भयानक रूप से उलझाऊ और जटिल ढांचे में शामिल कई निष्क्रिय कंपनियां तो सिर्फ पर्देदारी के लिए ही बनाई गई थीं.
इसी बीच भारत में, खौफ पैदा करने वाले प्रवर्तन निदेशालय ने जब 2012 में शिकंजा कसा तो डब्ल्यूएस रिटेल को एक भारतीय निवेशक को”बेच” दिया गया.
डब्ल्यूएस रिटेल की करीब आधी हिस्सेदारी के"मालिक"अब फ्लिपकार्ट के दो पूर्व कर्मचारी थे ! सचिन और बिन्नी बंसल और उनके रिश्तेदारों ने बोर्ड से इस्तीफा दे दिया. फ्लिपकार्ट की 75%बिक्री अब भी डब्ल्यूएस रिटेल के जरिये ही हो रही थी, ताकि"ऑफलाइन ट्रांजैक्शन" की काल्पनिक कहानी जारी रह सके.फ्लिपकार्ट और डब्ल्यूएस रिटेल के दफ्तरों और गोदामों के पते भी एक ही थे, जिससे दोनों कंपनियों का गहरा आपसी रिश्ता सबको साफ नजर आता था. सिर्फ कानून-निर्माताओं की आंखों पर पट्टी बंधी थी! ये एक ऐसा घोटाला था, जो एक अभागे भारतीय स्टार्ट-अप पर बेहद क्रूरता के साथ थोप दिया गया था.
जल्द ही फ्लिपकार्ट की ये उलझनें अदालत तक जा पहुंचीं. पारंपरिक ट्रेड यूनियनों ने”एफडीआई नियमों को चालाकी से तोड़े जाने”का आरोप लगाते हुए मुकदमे दर्ज करा दिए.
दिल्ली हाईकोर्ट ने 21 ई-कॉमर्स कंपनियों के मामलों की नए सिरे से जांच का आदेश दे दिया, जिसमें मुख्य तौर पर फ्लिपकार्ट ही निशाने पर थी.
आप राम लाल अब्दुर कादिर एंड सन्स से सामान खरीद सकते हैं, फ्लिपकार्ट से नहीं!
अंत में सबको क्लीन चिट मिल गई. लेकिन सरकार एक और बनावटी ढांचा लेकर आ गई, जिसे"ऑनलाइन मार्केटप्लेस" का नाम दिया गया. ये ढांचा आज भी बरकरार है, जिसका मतलब ये है कि फ्लिपकार्ट और अमेजॉन कोई भी सामान आपको सीधे नहीं बेच सकते.
आपको इस पर यकीन भले ही न हो, लेकिन सच यही है कि अमेजॉन और फ्लिपकार्ट को आज भी इनवेंट्री यानी सामान अपने पास जमा करने की छूट नहीं है. वो सिर्फ मोबाइल फोन, वॉलेट और जूते जैसी तमाम चीजों की बिक्री कोसंभव बना सकते हैं. ये और बात है कि ऑर्डर लेने, सामान आप तक पहुंचाने और आपसे पेमेंट लेने तक का सारा काम अमेजॉन और फ्लिपकार्ट ही करते हैं, लेकिन सामान का इनवॉयस तोराम लाल अब्दुल कादिर एंड सन्स के नाम से ही बन सकता है !
जी हां, इस पारदर्शी छल को भारत में "पब्लिक पॉलिसी" कहते हैं
लेकिन सबसे बुरी बात ये है कि ऐसी नीतियां भारत में उद्यमशीलता की हत्या कर रही हैं. जिन दिनों दोनों बंसल फ्लिपकार्ट को लॉन्च कर रहे थे, अमेरिका के सिलिकॉन वैली और चीन के शंघाई में भी पहली पीढ़ी के उद्यमी उभर रहे थे. मार्क जकरबर्ग नाम के शख्स ने फेसबुक की शुरुआत की, जेफ बेजोस ने अमेजॉन का छोटा लेकिन साहसिक प्रयोग शुरू किया, जैक मा ने अलीबाबा जैसे पुराने नाम से अपना कारोबार लॉन्च किया. पोनी मा के टेनसेंट ने भी इसी दौर में पहली उड़ान भरी.
जिन दिनों भारत की पुलिस, रिजर्व बैंक के अफसर और अदालतेंसचिन और बिन्नी बंसल के पीछे पड़ी थीं, अमेरिका और चीन अपने उभरते हुए सितारों को तरह-तरह की आकर्षक सहूलियतें मुहैया कराने में लगे थे.
इनमें स्पेशल वोटिंग राइट्स, दूसरों से पूंजी लेने के बावजूद कंपनियों पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के नए-नए उपाय, लचीली ब्याज दरें और फंडिंग के सुविधाजनक विकल्प जैसी अहम सुविधाएं शामिल हैं.
इधर, हमारे सचिन और बिन्नी बंसल आधी रात को अपने दरवाजे पर जांच एजेंसियों के दस्तक देने के डर के साये तले जीने को मजबूर थे और हर बार विदेशियों को इक्विटी बेचे जाने के साथ ही कंपनी पर उनका नियंत्रण घटता जा रहा था. इन हालात में आखिरकार, उन्होंने 6 अरब डॉलर तो जुटा तो लिए, लेकिन इस निवेश की महज साढ़े तीन गुना कीमत, यानी सिर्फ 21 अरब डॉलर में उन्होंने अपना सपना बेच दिया.
अब जरा ये देखिए कि अमेरिका और चीन मेंसचिन और बिन्नी बंसलके साथ ही अपने नए वेंचर की शुरुआत करने वाले उद्यमियों ने इस दौरान क्या हासिल किया. जेफ, मार्क, जैक और पोनी - ये सभी 500 अरब डॉलर से ज्यादा मार्केट वैल्यू वाली कंपनियां चला रहे हैं. विडंबना ये है कि अपनी कंपनियों में इन सभी की व्यक्तिगत शेयरहोल्डिंग तकरीबन उतनी ही है, जितनीफ्लिपकार्ट में सचिन और बिन्नी बंसल की थी.
तो ट्रैजेडी ये है कि :
- भारत सरकार ने एक तरह सेसचिन और बिन्नी बंसल को अपना ख्वाब महज 21 अरब डॉलर की तुलनात्मक रूप से बेहद कम रकम में बेचने परमजबूर कर दिया. जबकि अमेरिका और चीन की सरकारों ने जेफ/मार्क/जैक/पोनी की इस तरीके से मदद की, ताकि उनके महत्वाकांक्षी कारोबार पर उनका नियंत्रण बना रहे और उनकी कंपनियां 1000 अरब डॉलर की मार्केट वैल्यू हासिल करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ती रहें.
- 21 अरब डॉलर की रकम उन भारतीयों को बहुत बड़ी लग सकती है, जिनके पास नए आइडिया का अकाल है और जो बड़ा सपना देखना नहीं जानते. लेकिन सच ये है कि अंतरराष्ट्रीय पूंजी के लिहाज से ये रकम बहुत मामूली है. जो मिल जाए, उसी में खुश रहना और हम जो हासिल कर सकते थे, उस पर ध्यान न देना, आम तौर पर हम भारतीयों की आदत है.
- मूर्खता की हद तो ये है कि हम अपने ई-कॉमर्स मार्केट का 40%हिस्सा अमेरिकियों को इतने सस्ते में बेचे जाने और अपने सबसे शानदार उद्यमियों के सपनों की हत्या पर तालियां बजाने और जश्न मनाने में मगन हैं!
भारत के नीति निर्माता कब रोकेंगे ये डकैती?
दोनों बंसल नौजवानों में से एक ने उसी कंपनी से"दुख के साथ" विदाई ले ली, जो उसने स्थापित की थी, जबकि दूसरा, एक विशाल अमेरिकी कंपनी का "वेतनभोगी मैनेजर"बन गया. ये दुख की बात है. भयानक दुख की बात.
कल्पना कीजिए कि हमारी नीतियां बनाने वालों ने दूसरा रास्ता अपनाया होता और:
- उन्हें अपनी इक्विटी होल्डिंग पर स्पेशल कंट्रोलिंग राइट्स/वोट्स की छूट दी होती
- भारत में आईपीओ लाए बिना नैसडैक में लिस्टिंग की इजाजत दी होती
- भारत में कानूनी अड़चनें पैदा करके उन्हें अपनी कंपनी सिंगापुर ले जाने पर मजबूर न किया होता
- इतना शानदार काम करने के एवज में उन्हें आपराधिक मुकदमों से डराया न होता
- भारत में ई-कॉमर्स के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर का आर्किटेक्चर तैयार किया होता
अगर ऐसा होता, तो फ्लिपकार्ट की नींव रखने वालों का अपने बेहद हिम्मत से खड़े किए कारोबार पर आज भी पर्याप्त नियंत्रण होता. उनकी निगाह 2025 तक 500 अरब डॉलर की कंपनी खड़ी करने पर होती. और उनके नाम भी शायद जेफ, मार्क, जैक और पोनी के साथ एक ही सांस में उसी सम्मान के साथ लिए जाते !
लेकिन हाय रे दुर्भाग्य कि ऐसा हो न सका! शर्म करो भारत सरकार (यूपीए हो या एनडीए) !
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)