पिछले साढ़े तीन साल के दौरान पी. चिदंबरम हर हफ्ते मोदी सरकार के इकनॉमिक परफॉर्मेंस पर टीका-टिप्पणी करते रहते हैं. वो भूल जाते हैं कि मई 2014 में देश की अर्थव्यवस्था को खस्ता हालत में छोड़ने वाले वो खुद और उनके पूर्ववर्ती वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ही थे.
लगता है सभी लोग ये भूल गए हैं कि 2014 की उन गर्मियों में हालात कितने नाजुक हो चुके थे. राजनीतिक अनिश्चय ने देश को उसी तरह घेर लिया था, जैसे जनवरी के महीने में कोहरा दिल्ली को घेर लेता है. जीडीपी की विकास दर तीन साल में 9 फीसदी से घटकर 6 फीसदी के नीचे चली गई थी. निवेश की दर भी भारी गिरावट के साथ 38 फीसदी से घटकर 26 फीसदी हो गई थी. कंज्यूमर इनफ्लेशन यानी उपभोक्ता महंगाई दर के बढ़ने की रफ्तार बढ़कर 13 फीसदी के आसपास पहुंच चुकी थी.
खाने-पीने की चीजों के दाम 2009 के बाद 65 फीसदी से ज्यादा बढ़ चुके थे. करेंट एकाउंट डेफिसिट यानी चालू खाते का घाटा 6 फीसदी के पार चला गया था, जिससे विदेशी पूंजी के देश से बाहर चले जाने का खतरा हो सकता था. विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव काफी बढ़ गया था. यहां तक कि 1991 जैसा संकट आने की चर्चाएं भी होने लगी थीं.
संक्षेप में कहें, तो महंगाई, करेंट एकाउंट डेफिसिट और खराब गवर्नेंस- 2014 की शुरुआत में ये तीन समस्याएं देश को परेशान कर रही थीं. मुझे याद है कि 2013 के पूरे साल के दौरान वित्त मंत्रालय के अफसर निजी बातचीत के दौरान बताते थे कि वो कितने चिंतित हैं.
मोदी जी से गलती कहां हुई?
प्रधानमंत्री बनने के बाद दो आर्थिक समस्याएं मोदी जी के सामने थीं, जिन्हें अर्थशास्त्र में दिलचस्पी न होने के बावजूद उन्होंने अच्छी तरह समझ लिया. पहली थी महंगाई, जिसके गंभीर राजनीतिक परिणाम होते हैं. और दूसरी समस्या थी विदेशी मुद्रा भंडार की, जिसे बीजेपी हमेशा से अपनी आन-बान-शान का मुद्दा मानती रही है.
ऐसा लगता है कि इन समस्याओं के बारे में पूरी जानकारी हासिल करने के बाद मोदी जी ने तीन सामान्य दिशा-निर्देश जारी किए. वित्त मंत्रालय को उनका पहला निर्देश ये था कि फिस्कल डेफिसिट यानी राजकोषीय घाटे को किसी भी हालत में कम रखना है.
बाकी दो निर्देश भारतीय रिजर्व बैंक के लिए थे- महंगाई दर को कम करो, चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े. और तीसरा, बैलेंस ऑफ पेमेंट यानी भुगतान संतुलन का संकट किसी भी हालत में दूर-दूर तक नजर नहीं आना चाहिए.
वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक ने ऐसा ही किया. 2016 की शुरुआत आते-आते दोनों समस्याएं मोटे तौर काबू में आ चुकी थीं. इसके लिए बुनियादी उपाय ये अपनाया गया कि अर्थव्यवस्था और फिस्कल डेफिसिट, दोनों की हवा निकाल दी जाए, क्योंकि तब ये दोनों ही यूपीए की दरियादिली के चलते बरसाती मेढक की तरह फूलकर मोटे हो चुके थे.
मोदी जी की सरकार पर भले ही और कोई भी आरोप लगाया जाए, लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि मैक्रो-इकनॉमिक मैनेजमेंट के मामले में उसका प्रदर्शन खराब रहा है. कच्चे तेल की कीमतों में आई भारी गिरावट ने भी इस काम में उसकी काफी मदद की. राजनीतिक लाभ और प्रचार के लिहाज से भी सरकार को इसमें फायदा था, क्योंकि 2009 से 2013 के दौरान यूपीए के राज में बढ़ी महंगाई को झेलते-झेलते लोग बुरी तरह थक चुके थे.
लेकिन समस्या यहीं से शुरू होती है. 2016 में मोदी जी को अपने सामान्य दिशा-निर्देशों में बदलाव करना चाहिए था. लेकिन अर्थव्यवस्था के व्यापक मुद्दों को सिर्फ दो बिंदुओं - महंगाई और भुगतान संतुलन के नजरिए से देखने वाले मिस्टर मोदी ने ऐसा नहीं किया.
इसके उलट, शायद मार्च 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने नवंबर 2016 में नोटबंदी का आदेश दे डाला. इससे अर्थव्यवस्था और सिकुड़ गई, जबकि उस वक्त उसमें कुछ हवा भरने की जरूरत थी. उनकी पिछली नीतियों ने ऊंची ब्याज दरों और फिस्कल डेफिसिट में कटौती के जरिए अर्थव्यवस्था की हवा निकाली थी.
लेकिन नोटबंदी ने उस इकलौते मॉनेटरी इंस्ट्रूमेंट का इस्तेमाल किया, जिसे मोदी जी समझते थे: उन्होंने पुरानी करेंसी को एक झटके में रद्दी कागज का टुकड़ा बना दिया. 2017 का पूरा साल अर्थव्यवस्था को इस सदमे से उबारने में खर्च हो गया.
एक सवाल अब भी बना हुआ है: अगर मोदी जी की आर्थिक नीति की समझ कुछ कम राजनीतिक होती- इसी कमजोरी के कारण उन्होंने पिछले 25 सालों के दौरान उठाए गए व्यापारिक उदारीकरण के कुछ कदमों को पलट दिया है- तो क्या निवेश, कामकाज और नौकरियों के मोर्चे पर उनका प्रदर्शन बेहतर रहता? ऐसा लगता है मोदी जी ने इस मोर्चे पर सक्रियता दिखाने में काफी देर कर दी है.
मुख्य अंतर क्या है ?
कोई कह सकता है कि अर्थशास्त्र के बारे में सभी प्रधानमंत्रियों की समझ राजनीतिक ही होती है. इसमें कुछ भी गलत नहीं है और ऐसा ही होना भी चाहिए. मनमोहन सिंह भी ऐसा बार-बार कहते थे कि प्रधानमंत्री बनने के बाद वो अर्थशास्त्री नहीं रह गए हैं.
लेकिन मोदी जी और पिछले प्रधानमंत्रियों में एक बुनियादी फर्क है. पिछले तमाम प्रधानमंत्री राजनीति को मैक्रो-इकनॉमिक फैसलों तक सीमित रखते थे, जबकि मोदी ने इससे ठीक उलटा काम किया है. वो मैक्रो-इकनॉमिक्स को राजनीति के नजरिए से देखते हैं - महंगाई दर को काबू में रखना और विदेशी मुद्रा भंडार एवं ब्याज दरों को ऊंचा बनाए रखना. जबकि माइक्रो-इकनॉमिक्स के बारे में उनका नजरिया गैर-राजनीतिक है. इसका नतीजा ये हुआ है कि बाजार पहले से बेहतर काम कर रहे हैं.
उन्होंने सब्सिडी घटाई है, टैक्स बेस का विस्तार किया है. लेकिन खजाने को दुरुस्त करने के चक्कर में उन्होंने लगभग सभी मतदाताओं को नाराज भी कर दिया है. लोगों की कठिनाई साफ दिखने लगी है. कुछ उपचुनाव के नतीजे यही बता रहे हैं.
अब कोर्स करेक्शन संभव है क्या? तेजी से पेट्रोल-डीजल की कीमत में कटौती कर लोगों को कुछ राहत दी जा सकती है. लेकिन फिस्कल डेफिसिट की बैंड बज सकती है. और ऐसे में शुरुआती दौर के सारे कड़े फैसले का असर तेजी से खत्म हो सकता है. मेरे खयाल से वो अपने शुरुआती दौर के फैसले के बंधन में बंध गए हैं. लगातार एडजस्टमेंट नहीं करके उन्होंने शायद अब देरी कर दी है.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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