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तेल,रुपया और IL&FS संकट : क्यों नहीं चल रहा मोदी का ब्रह्मास्त्र?

जो मोदी कल तक एक कामयाब सेनापति दिख रहे थे वो अब बलि का बकरा बन रहे हैं

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महाभारत में ब्रह्मास्त्र का वर्णन एक ऐसे अस्त्र के रूप में किया गया है जो पूरे ब्रह्मांड को नष्ट करने की क्षमता रखता है. माना जाता है कि भगवान राम ने रावण के साथ अपने अंतिम युद्ध में इसका प्रयोग किया था. ऐसे दैवीय उदाहरण जब मौजूद हों, तो आप राम भक्तों की सरकार से ये उम्मीद तो करते हैं कि वो ब्रह्मास्त्र का प्रयोग तेजी से बढ़ते जा रहे आर्थिक संकट से निपटने में करेगी. लेकिन अफसोस कि भक्तों ने अपने ईश्वर को निराश किया है.

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चलिए,अब आपको संदर्भ भी बता देते हैं. लीमैन के दिवालिया होने और अमेरिका के सबप्राइम संकट ने 2008 में वैश्विक अर्थव्यवस्था को पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर दिया था. पश्चिम बिखर गया, चीन ने किसी तरह अपने को संभाला, और तेल की कीमत 150 डॉलर प्रति बैरल तक उछल गई; लेकिन भारत की यूपीए सरकार ने स्टिम्युलस का ब्रह्मास्त्र बाहर निकाला ताकि इकोनॉमिक ग्रोथ की रफ्तार बनी रहे.

स्वाभाविक रूप से, हमारा वित्तीय घाटा जीडीपी के करीब 5 फीसदी तक पहुंच गया, महंगाई दर ने 8 फीसदी को पार कर लिया, रुपया डॉलर के मुकाबले 62 के स्तर पर पहुंच गया, और ब्याज दरें बढ़कर 8 फीसदी हो गईं; लेकिन सौभाग्य से, भारतीय अर्थव्यवस्था का जहाज तैरता रहा.

2012 में वित्त मंत्री के बदलने के बाद, स्टिम्युलस हटाने और मैक्रो-इकोनॉमी के खोए हुए संतुलन को वापस लाने की मुश्किल प्रक्रिया शुरू हुई. इस संकट के बावजूद, 2013-14 में एक्सपोर्ट अपने सर्वोच्च स्तर 313 अरब डॉलर तक पहुंच गया था; चौंकाने वाली बात ये है कि हम अभी भी उस स्तर को पार नहीं कर पाए हैं.

मोदी: खुशकिस्मत सेनापति से बने बलि का बकरा

अब आती है 2014 में मोदी सरकार, जिसके लिए अगले 4 वर्षों तक सब कुछ सुहावना रहा. तेल की कीमतें 30 डॉलर प्रति बैरल तक गिर गईं, अमेरिका की सालाना ग्रोथ 3 फीसदी पर पहुंच गई, यूरोप ने एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने वाली नीतियां छोड़ दीं, चीन फिर से ग्रोथ के रास्ते पर आ गया-- और ऐसे अच्छे माहौल में भारत की मैक्रो-इकोनॉमी ने अपनी मरम्मत कर ली. वित्तीय घाटा 3.5 फीसदी पर आ गया, महंगाई दर 5 फीसदी के नीचे चली गई, अमेरिकी डॉलर की बारिश होने लगी, और 10 साल के ट्रेजरी बॉन्ड पर ब्याज गिरकर 7 फीसदी के नीचे आ गया. मोदी नेपोलियन की कहानी के “खुशकिस्मत सेनापति” बन गए थे.

लेकिन फिर आए 2017-18 में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप! उन्होंने टैक्स घटाए, घाटे को बढ़ाया हालांकि अमेरिका की अर्थव्यवस्था बेहद कामयाब थी, ईरान से तेल सप्लाई पर पाबंदी लगाई, और दुनिया भर में व्यापार युद्ध की शुरुआत कर दी. अमेरिका में ब्याज दरों के 4 फीसदी का स्तर छूने की आशंका बन गई. और इमर्जिंग इकोनॉमीज में तब कोहराम मच गया जब अरबों डॉलर वहां से निकलकर अमेरिका वापस जाने लगे.

आज, एक बार फिर भारत में मैक्रो-इकोनॉमिक असंतुलन के हालात बन गए हैं: ट्रेजरी बॉन्ड पर ब्याज दरें 8 फीसदी के पार हैं, रुपया डॉलर के मुकाबले 15 फीसदी गिरकर 74 के स्तर पर है, तेल 100 डॉलर का आंकड़ा छूने ही वाला है, और सैकड़ों स्टॉक्स बियर मार्केट की चपेट में हैं क्योंकि मार्केट इंडेक्स 15 फीसदी से ज्यादा टूट चुके हैं.

मोदी, जो एक समय नेपोलियन के “खुशकिस्मत सेनापति” थे, अब उन पर ट्रंप का “बलि का बकरा” बनने का खतरा मंडरा रहा है. 4 सालों के सुहाने सफर के बाद, मोदी को पहली बार गंभीर आर्थिक चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. क्या उनमें नीतिगत ब्रह्मास्त्र दागने का जीवट है, ताकि बेकाबू होने के पहले संकट को खत्म किया जा सके? 

बदकिस्मती से, उनके हाकिम केवल कामचलाऊ उपाय करने में लगे हैं, और एक अस्त्र से हालात को संभालने का साहस जुटाने में नाकाम हैं. सिर्फ पिछले एक महीने के दौरान मोदी सरकार तीन गंभीर आर्थिक संकटों से निपटने में नाकाम रही है.

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पहला संकट: तेल

तेल भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे गंभीर मुद्दा है; ये मोदी सरकार की सबसे बड़ी नाकामी भी है. जब उन्होंने कार्यभार संभाला था, भारत तेल की जरूरत का 77 फीसदी इंपोर्ट करता था. आज, इसमें 6 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो चुकी है! कच्चे तेल का इंपोर्ट बिल पिछले साल के मुकाबले 56 फीसदी तक उछल चुका है. 400 अरब डॉलर के हमारे विदेशी मुद्रा भंडार का करीब एक चौथाई इस साल सिर्फ तेल इंपोर्ट पर खर्च हो जाएगा. और फिर भी, प्रधानमंत्री बस इतना कर सके हैं कि उन्होंने दुनिया से भारत की मदद करने की विनती की है.

पिछले हफ्ते, मोदी तेल कारोबार के कई दिग्गजों से मिले, जिनमें सऊदी मंत्री भी शामिल थे, और उन्हें आग्रह किया कि वो भुगतान शर्तों पर पुनर्विचार करें ताकि रुपए को संभाला जा सके. जी हां, हमारे ताकतवर प्रधानमंत्री अपने भोलेपन में यकीन करते हैं कि वो तेल की टंकियों के बदले में रुपए को संभालने के लिए सख्त शासकों को मना लेंगे.

ये एक आश्चर्यजनक और पूरी तरह से गैर-जरूरी आत्मसमर्पण था, जिसने हमारी कमजोरी को उजागर कर दिया. हम अपने प्रधानमंत्री की हालत से हमदर्दी रख सकते थे, लेकिन जरा सोचिए कि उनकी सरकार ने तेल उत्पादकों से किस तरह से टैक्स की वसूली की है.

मिसाल के लिए केर्न का मामला देखिए, जो हमारे कच्चे तेल का करीब एक चौथाई उत्पादित करता है, और अपनी कमाई का 85 फीसदी सरकार को देता है. आप किसी भी सरकार से उम्मीद करेंगे कि इतनी महत्वपूर्ण कंपनी के साथ उचित व्यवहार किया जाएगा, है ना? अब फिर से सोचिए. हमारे शासकों ने कंपनी से अलग-अलग पेनल्टी और टैक्स के रूप में करीब 2 अरब डॉलर वसूले हैं, जबकि ब्रिटेन में आर्बिट्रेशन का मामला चल रहा है. क्या ये टैक्सेशन है? या जबरदस्ती वसूली?

लेकिन अगर आप सोचते हैं कि हमारी सरकार ने सिर्फ विदेशी उत्पादकों का शोषण किया है, तो याद रखिए कि किसी तरह इसने ओएनजीसी पर दबाव डाला कि वो एचपीसीएल को खरीदे और कंपनी की बैलेंस शीट से 6 अरब डॉलर निकाल लिए. अब देखिए कि कैसे सरकार ने अपनी ही तेल कंपनियों की मार्केट वैल्यू को साफ कर दिया:

  • पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी की मांग से डरकर मोदी सरकार ने सेंट्रल एक्साइज में1.50 रुपए प्रति लीटर की कटौती की, जिससे 6 महीनों के दौरान सरकारी राजस्व में करीब 10,000 करोड़ रुपए की कटौती होगी.
  • फिर इसने एक चौंकाने वाला फैसला लिया और सरकारी तेल कंपनियों को कीमतों में 1 रुपए प्रति लीटर की कटौती करने का आदेश दिया. ऐसा करके सरकार ने तेल कंपनियों को ईंधन की कीमतें तय करने की आजादी के सुधारवादी कदम को एक बड़ा धक्का पहुंचाया.
  • मार्केट ने इस कदम पर तीखी प्रतिक्रिया दी और एक घंटे की ट्रेडिंग के दौरान सरकारीतेल कंपनियों में निवेशकों के 1 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा स्वाहा हो गए.
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दूसरा संकट: रुपए की तेज गिरावट

भारतीय रुपया तेल कीमतों पर काफी हद तक निर्भर है. मोदी सरकार ने अप्रैल से अब तक इसकी गिरावट को रोकने के लिए 40 अरब डॉलर खर्च किए हैं. मोदी के सत्ता में आने के बाद से देश के विदेशी मुद्रा भंडार में ये सबसे बड़ी गिरावट है. इसके पहले 2013 में यूपीए सरकार ने रुपए को संभालने के लिए 20 अरब डॉलर खर्च किए थे, लेकिन वो संकट भरे दिन थे, जब तेल 100 डॉलर प्रति बैरल पर था. आज मोदी सरकार जो कर रही है उसमें दूरदर्शिता बिलकुल नहीं है, और ये कदम असरदार भी नहीं हैं.

मैं अब तक ये नहीं समझ पाया हूं कि मोदी सरकार ने 40 अरब डॉलर के एनआरआई बॉन्ड क्यों नहीं जारी किए हैं. खासकर इसलिए क्योंकि विदेशी निवेशकों ने इस साल डेट और इक्विटी से 15 अरब डॉलर पहले ही निकाल लिए हैं. तुरंत कदम उठाने की बातचीत तो हो रही है, लेकिन अभी तक कुछ हुआ नहीं है, जबकि रुपया डॉलर के मुकाबले 75 का स्तर छूने को तैयार है.

यहां दूसरा ब्रह्मास्त्र भी अभी तक संभालकर रखा हुआ है. क्यों? पता नहीं.

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तीसरा संकट: आईएलएफएस बनी देश की क्रेडिट इकोनॉमी की रुकावट

सही या गलत, आईएलएफएस को अर्ध-सरकारी कंपनी की तरह देखा जाता है, जिसका मालिकाना हक और नियंत्रण एसबीआई और एलआईसी जैसी कई सरकारी दिग्गजों के हाथ में है. पिछले कुछ हफ्तों में इसने कई बार डिफॉल्ट किए हैं. इसे अभी से 31 मार्च 2019 तक 34,000 करोड़ रुपए चुकाने हैं. इसका ऑपरेटिंग कैश फ्लो निगेटिव है. सिर्फ इसका बोर्ड बदलकर मोदी सरकार ने खाली बंदूक चलाने जैसा काम किया है. जब तक कि मुश्किलों में घिरी इस कंपनी को नगदी का ब्रह्मास्त्र नहीं दिया जाता, ये डिफॉल्ट करती रहेगी.

मार्केट ने पहले ही निवेशकों के 20 लाख करोड़ रुपए डुबो दिए हैं. इससे भी गंभीर बात ये है कि क्रेडिट इकोनॉमी पूरी तरह अटक सकती है. याद रखें कि सरकारी बैंकों ने आईएलएफएस को 40,000 करोड़ रुपए का कर्ज दिया है. प्रोविडेंट और पेंशन/इंश्योरेंस फंड्स के भी करीब 30,000 करोड़ रुपए फंसे हैं. एनबीएफसी, म्युचुअल फंड्स और दूसरे निवेशकों को बचे 20,000 करोड़ को बट्टे खाते में डालने पर मजबूर होना पड़ सकता है.

इससे एक भयानक संकट खड़ा हो सकता है, जिसके लक्षण दिखने लगे हैं. आईएलएफएस के कर्ज को राइट ऑफ करने को मजबूर म्युचुअल फंड्स ने एनबीएफसी को कर्ज देना रोक दिया है, और उन्होंने हाउसिंग कंपनियों को कर्ज देने से हाथ खींच लिए हैं.

यानी एक सुपरटेक डिफॉल्ट करता है, जिससे अगले दिन इंडियाबुल्स हाउसिंग 15 फीसदी गिर जाता है, जिससे कई फंड्स के एनएवी नीचे आ जाते हैं, उन पर रिडेंप्शन का दबाव बढ़ता है, और वो अच्छे बॉन्ड भी बेचने को मजबूर हो जाते हैं, कीमतें और नीचे आती हैं, कर्ज मिलना पूरी तरह रुक जाता है, और कंपनियां डिफॉल्ट करती हैं, और ज्यादा रिडेंप्शन होते हैं, मजबूरी में कम कीमत में एसेट बेचने पड़ते हैं...जब तक कि क्रेडिट इकोनॉमी पूरी तरह रुक ना जाए. 

आईएलएफएस संकट के दौर से अब तक एनबीएफसी -एचएफसी संपत्ति हिस्सेदारी

आईएलएफएस के डिफॉल्ट के बाद से टॉप 20 एनबीएफसी ने निवेशकों के तीन लाख करोड़ रुपए से ज्यादा डुबो दिए हैं. ये अपने आप में भयानक संकट है.

सरकार के पास कई विकल्प हैं. वो ब्रह्मास्त्र के रूप में आईएलएफएस के लिए 30,000 करोड़ रुपए का एक सुपीरियर डेट या इक्विटी इंस्ट्रूमेंट जारी कर सकती है. संकट एकाएक रुक जाएगा. बाजार की घबराहट थम जाएगी. और फिर नया बोर्ड आईएलएफएस को बचाने के लिए एक योजना बना सकता है, जिसमें अगले कुछ महीनों में एसेट की बिक्री भी शामिल है.

दुर्भाग्य से, मोदी सरकार के आधे-अधूरे मन से उठाए गए कदमों ने संभावित ब्रह्मास्त्र को संकट के बूमरैंग में तब्दील कर दिया है, जो 3 लाख करोड़ डॉलर की इकोनॉमी के लिए घातक है, और कुछ अरब डॉलर की लायबिलिटीज की वजह से संकट में पड़ी है.

इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता!

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