उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में पहली बार है, जब किसी मसले पर पार्टी के दो नेताओं ने पार्टी के भीतर चल रही कलह को इस तरह से उजागर किया हो. आईपी सिंह अभी अधिकारिक तौर पर बीजेपी के प्रवक्ता नहीं हैं. दीप्ति भारद्वाज यूपी बीजेपी की प्रवक्ता भले नहीं हैं, लेकिन टेलीविजन चैनलों पर पार्टी का पक्ष रखने के लिए पार्टी ने उन्हें अधिकृत किया है.
दीप्ति भारद्वाज ने कहा, “अमित शाह जी, उत्तर प्रदेश को बचा लीजिए, सरकार के निर्णय शर्मसार कर रहे हैं. ये कलंक नहीं धुलेंगे. नरेंद्र मोदी जी, आपके साथ हम सबके सपने चूर चूर होंगे.”
दीप्ति भारद्वाज के इस ट्वीट के जवाब में आईपी सिंह आए. आईपी सिंह का जवाब था:
कुलदीप सेंगर को गिरफ्तार करने का फैसला योगी ने ले लिया था और सीएम ऑफिस में गिरफ्तारी होती, साथ-साथ उन्नाव कप्तान को निलंबित करना तय हुआ था. लेकिन अचानक एक बड़े व्यक्ति के हस्तक्षेप से मामला लंबित हो गया, जिसका खामियाजा पूरी पार्टी ने भुगता.
बीजेपी विधायक पर लगे बेहद शर्मनाक आरोपों पर भारतीय जनता पार्टी के 2 नेताओं के ट्वीट दरअसल पार्टी की उस कलह को सबके सामने ला रहे हैं, जो लम्बे समय से उत्तर प्रदेश में चल रही है. सबको चौंकाते हुए बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया, तो इतना तो तय हो गया था कि योगी अपने हिसाब से ही सरकार चलाएंगे. उस समय से ही यह सवाल खड़ा होने लगा था कि आखिर संगठन के साथ योगी का तालमेल किस तरह का होगा.
इस सवाल के खड़े होने के पीछे सबसे बड़ी वजह तो यही थी कि योगी ने कभी संगठन में काम नहीं किया, बल्कि ज्यादातर समय भारतीय जनता पार्टी के सांसद होने के बावजूद संगठन के खिलाफ ही खड़े नजर आए.
हालांकि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की सरकार के ज्यादातर फैसले बेहतर साबित हुए हैं. फिर वो कानून-व्यवस्था का मसला हो या फिर प्रदेश में निवेश आकर्षित करने के लिए ब्रांडिंग बेहतर करने का.
अब योगी आदित्यनाथ, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ हो चुके हैं, लेकिन लखनऊ के बीजेपी दफ्तर में कहा जाता है कि मुख्यमंत्री बनने से पहले विधानसभा के सामने बीजेपी मुख्यालय में शायद ही कभी सांसद आदित्यनाथ गए हों. गोरखपुर में बीजेपी दफ्तर से कम, गोरखनाथ मठ से ज्यादा चलती थी.
मठ और बीजेपी दफ्तर के बीच सीधा टकराव पहली बार खुले तौर पर 2002 में देखने को मिला, जब योगी आदित्यनाथ ने बीजेपी प्रत्याशी शिवप्रताप शुक्ला को टिकट देने का विरोध कर दिया. शिवप्रताप शुक्ला लगातार 4 बार गोरखपुर शहर की सीट से विधायक चुने गए थे. 1989, 1991, 1993, और 1996.
4 बार के विधायक और मंत्री रहे शिवप्रताप शुक्ला का बीजेपी ने टिकट नहीं काटा, तो योगी आदित्यनाथ ने डॉक्टर राधामोहन दास अग्रवाल को अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के बैनर पर चुनाव लड़ा दिया. शिवप्रताप चुनाव हारे और गोरखपुर में बीजेपी मनोबल. 2007 के विधानसभा चुनाव में योगी के प्रत्याशी राधामोहन दास अग्रवाल को बीजेपी का प्रत्याशी बना दिया.
इसका नतीजा यह रहा कि 2012 के चुनाव में हिन्दू युवा वाहिनी के जरिए योगी ने बीजेपी पर दबाव बनाया. तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के फैसलों पर भी योगी ने सवाल खड़ा किया था.
2017 में प्रचण्ड बहुमत के बाद बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ भले बन गए, लेकिन कम ही लोगों को याद होगा कि 2017 के विधानसभा चुनावों के लिए बनी समिति में आदित्यनाथ का नाम तक नहीं था. इसके विरोध में हिन्दू युवा वाहिनी ने बीजेपी के खिलाफ प्रत्याशी खड़ा करने तक का ऐलान कर दिया था. गोरखपुर के प्रत्याशी उपेंद्र शुक्ला के हारने के बाद भी कई तरह के साजिशी सिद्धान्तों की बात खूब उछली.
इन सब वजहों से बीजेपी संगठन में योगी आदित्यनाथ को लेकर बहुत अच्छा भाव नहीं रहा. उस पर सुनील बंसल जैसे ताकतवर संगठन मंत्री के होने से संगठन और सरकार दो समान्तर सत्ता खड़ी हो गई. सुनील बंसल विद्यार्थी परिषद के संगठन मंत्री रहे और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साथ 2014 के लोकसभा चुनाव में जमकर काम किया.
अमित शाह की ओर से मिले भरोसे से सुनील बंसल उत्तर प्रदेश में सबसे ताकतवर बन गए. हालांकि सुनील बंसल की कार्यशैली को लेकर भी कई सवाल उठे. विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण में बाहरी लोगों को तरजीह देने का आरोप भी लगा. लेकिन बेहतर चुनाव परिणाम मिलने की वजह से सुनील बंसल की ताकत बनी हुई है.
इसके अलावा योगी आदित्यनाथ भी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के लिए मुसीबत बने हुए हैं. पढ़ने में लग रहा होगा कि योगी आदित्यनाथ भी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के लिए मुसीबत कैसे बन सकते हैं? लेकिन सच यही है.
देश के सबसे बड़े राज्य के मुखिया बन जाने के बावजूद मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पर योगी आदित्यनाथ 'महाराज जी' हावी रहते हैं. इसकी वजह से गोरखपुर के अलावा प्रदेश के दूसरे बीजेपी कार्यकर्ताओं की आदित्यनाथ से नजदीकी मुश्किल से हो पा रही है.
इन सब वजहों से उन्नाव के बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर दुष्कर्म के आरोप और उसके बाद के घटनाक्रम में संगठन के भीतर से भी सरकार को समर्थन नहीं मिला.
भारतीय जनता पार्टी में एक बार यह सवाल फिर से बड़ा हो गया है कि बाहरी लोगों को सत्ता में साझेदार बनाना विस्तार के लिए जरूरी तो है, लेकिन क्या इससे पार्टी का असली चरित्र बचा रह सकेगा?
2017 विधानसभा चुनाव के ठीक पहले पार्टी में कुलदीप सिंह सेंगर के मामले के बाद बीजेपी की यह परेशानी खुलकर सामने आ गई है. लेकिन लगता नहीं है कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ या फिर संगठन मंत्री सुनील बंसल इस गम्भीर मसले पर एक साथ बात भी कर पा रहे हैं.
पहले राज्यसभा चुनावों के लिए और अब उत्तर प्रदेश में हो रहे विधान परिषद प्रत्याशियों में भी बाहरी बाजी मार ले गए और संगठन के समर्पित कार्यकर्ता हाशिए पर रह गए हैं. यानी 2019 लोकसभा चुनाव के पहले यूपी बीजेपी की मुश्किल अभी और बढ़ने वाली है. आगे की राजनीति में नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर देखे जा रहे योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से बीजेपी और संघ को सबसे बड़ी उम्मीद यही थी कि उत्तर प्रदेश में जातिवाद को खत्म करने में कामयाबी मिलेगी, लेकिन होता उल्टा दिख रहा है.
(हर्षवर्धन त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने हिंदी ब्लॉगर हैं. उनका Twitter हैंडल है @harshvardhantri. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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