(YS शर्मिला के कांग्रेस में शामिल होने के बाद यह ओपिनियन पीस सबसे पहले 4 जनवरी को पब्लिश हुआ था. अब उनके आंध्र प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद इस कॉपी को अपडेट कर फिर से पब्लिश किया जा रहा है.)
वाईएस शर्मिला (YS Sharmila) ने हाल ही में अपनी वाईएसआर तेलंगाना पार्टी का कांग्रेस में विलय किया और कांग्रेस में शामिल हो गयीं. इसके बाद उन्हें कांग्रेस पार्टी की आंध्र प्रदेश इकाई का प्रमुख नियुक्त किया गया है.
वाईएस शर्मीला को यह जिम्मेदारी गिदुगु रुद्र राजू द्वारा सोमवार, 15 जनवरी को आंध्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी (एपीसीसी) के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद दी गयी है.
‘जगन के तीर’ ने क्यों छोड़ी उनकी पार्टी?
शर्मिला संयुक्त आंध्र प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की बेटी हैं. वह YSR कांग्रेस में काफी सक्रिय रहती थीं. उन्होंने केंद्रीय एजेंसियों द्वारा भ्रष्टाचार के आरोप में जगन की गिरफ्तारी के बाद मैराथन पदयात्रा की थी. तब उन्होंने खुद को ‘जगन का तीर’ कहा था.
लेकिन बाद में राजन्ना बिड्डा (YSR की बेटी) और उनके भाई की राहें अलग हो गईं. शर्मिला के करीबी सूत्रों का आरोप है कि YSR कांग्रेस के लिए इतनी मेहनत करने के बावजूद जगन उनको मौका देने को तैयार नहीं थे. इस बीच, दिवंगत मुख्यमंत्री के परिवार की कथित तौर पर विशाल प्रॉपर्टी को लेकर पारिवारिक कलह की भरोसेमंद रिपोर्टें भी हैं.
शर्मिला के वफादारों का दावा है कि इस मामले में उनकी मां विजयम्मा की सलाह को भी अनसुना कर दिया गया. दिवंगत YSR के भाई विवेकानंद रेड्डी की हत्या, जिसमें जगन के चचेरे भाई और कडप्पा से सांसद अविनाश रेड्डी भी आरोपियों में से एक हैं, ने परिवार के अंदरूनी झगड़े में और ज्यादा कड़वाहट घोल दी.
इस मामले में उन्होंने अपनी चचेरी बहन और विवेकानंद रेड्डी की बेटी सुनीता का खुलकर समर्थन किया, जिस पर जगन बहुत नाराज हुए थे. शर्मिला और उनकी मां विजयम्मा भी कथित तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में राजशेखर रेड्डी परिवार के किसी व्यक्ति के बजाय कडप्पा से अविनाश रेड्डी को मैदान में उतारने के जगन के फैसले से नाराज थीं. राजनीतिक और पारिवारिक विवाद बढ़ते जाने पर शर्मिला ने वाईएस जगन का साथ छोड़ दिया.
हालांकि, वह जगन से सीधे लड़ाई के लिए एकदम से तैयार नहीं थी. हो सकता है कि वह निजी और राजनीतिक वजहों से ऐसा करने से बचना चाह रही हों. पारिवारिक दबावों ने उन्हें आंध्र प्रदेश की राजनीति में दाखिल होने से पीछे रखा होगा. इसके अलावा, उनके पास राज्य में कामयाब होने की बहुत कम गुंजाइश है, क्योंकि चुनावी राजनीति पूरी तरह से जगन के नेतृत्व वाली YSR कांग्रेस और पूर्व सीएम एन चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलुगु देशम पार्टी (TDP) और अभिनेता से नेता बने पवन कल्याण की जनसेना के बीच बंटी है. (अंतिम दोनों व्यक्तियों ने हाल ही में एक साथ चुनाव लड़ने का फैसला किया है).
शर्मिला का राजनीतिक जोड़-घटाना
इसके बाद शर्मिला ने तेलंगाना को अपना गृह प्रदेश बताते हुए वाईएसआर तेलंगाना पार्टी (YSRTP) नाम से तेलंगाना में अपनी पार्टी शुरू करने का फैसला लिया.
उन्होंने तत्कालीन सत्तारूढ़ KCR (के.चंद्रशेखर राव) सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुए हजारों किलोमीटर की कठिन पदयात्रा की. उन्होंने मौजूदा मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रेवंत रेड्डी समेत दूसरी पार्टियों के नेताओं पर गंभीर आरोप लगाए.
कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता, जो राजशेखर रेड्डी के करीबी थे, शर्मिला के साथ अच्छे संबंध रखते थे, ये नेता पार्टी की अंदरूनी प्रतिद्वंद्विता में रेवंत रेड्डी के विरोधी थे. इस तरह शर्मिला का रेवंत रेड्डी की आलोचना करना उनके विरोधियों को पसंद आता था. लेकिन उनका पूरा राजनीतिक आकलन बचकाना और बेकार साबित हुआ.
वह बंटवारे के बाद के तेलंगाना में बदले राजनीतिक हालात को समझ पाने में नाकाम रहीं. सीमांध्र क्षेत्र के नेताओं के नेतृत्व में हुआ राजनीतिक गठन, जो अब शेष आंध्र प्रदेश राज्य है, को बहुत जल्द नए राज्य तेलंगाना में भुला दिया गया. उप-क्षेत्रीय पहचान बहुत मजबूत थी. इस माहौल में तेलंगाना भावना की प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करते हुए शर्मिला ने YSR की याद के सहारे अपनी राजनीति करने की कोशिश की.
2014 के चुनाव में पार्टी का एक सांसद और तीन विधायकों के जीतने के बावजूद विभाजन के तुरंत बाद जगन तेलंगाना से अपनी YSR कांग्रेस को समेटने वाले पहले शख्स थे. उन्हें तेलंगाना में अपनी राजनीतिक पार्टी जारी रखने की निरर्थकता का एहसास था, जिसका अस्तित्व सीमांध्र के राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व के विरोध पर कायम था.
चंद्रबाबू नायडू ने राज्य के गठन के बाद भी तेलंगाना में अपनी TDP जारी रखी क्योंकि उनकी पार्टी BJP के साथ गठबंधन में थी. 2018 के विधानसभा चुनाव में KCR की तूफानी कामयाबी के बावजूद TDP ने दो सीटें जीतीं. लेकिन नायडू ने भी आखिरकार तेलंगाना से किनारा कर लिया और उनकी पार्टी हालिया विधानसभा चुनावों से दूर रही.
इस पृष्ठभूमि में, शर्मिला को आखिरकार जमीनी हालात की समझ आई और उन्होंने तेलंगाना विधानसभा चुनाव नहीं लड़ने और इसके बजाय कांग्रेस का समर्थन करने के अपने फैसले की घोषणा की. उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय करने के बाद खम्मम की एक कमजोर सीट से चुनाव लड़कर तेलंगाना के चुनावी मैदान में उतरने की बेकार कोशिश की.
हालांकि, कांग्रेस नेताओं, खासकर रेवंत रेड्डी के कड़े विरोध के चलते यह मुमकिन नहीं हो सका. ऐसे में उनके पास पार्टी को बिना शर्त समर्थन देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. फिर भी, तेलंगाना कांग्रेस ने तेलंगाना भावना के चलते प्रतिक्रिया के डर से, अपने चुनाव प्रचार के दौरान उनका साथ कुबूल करने से इनकार कर दिया. कांग्रेस ने 2018 का चुनाव TDP के साथ गठबंधन में लड़ा था, और KCR ने इसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए किया. और उन्हें डर था कि अगर शर्मिला को राज्य में साथ लिया गया, खासकर विधानसभा चुनाव से पहले, तो फिर इसी तरह के हालात होंगे.
भाई जगहन मोहन रेड्डी को कितना नुकसान पहुंचा पाएंगी बहन शर्मिला?
इस बीच, राजनीतिक पर्यवेक्षक आंध्र प्रदेश में चुनावी नतीजों पर शर्मिला के संभावित असर का आकलन करने में मशरूफ हैं. अगर वह YSR कांग्रेस के वोटों का एक हिस्सा अपनी तरफ खींचती हैं, जो स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के प्रति अपने प्रेम के कारण जगन की ओर मुड़ गए, तो सत्तारूढ़ पार्टी को भारी नुकसान होगा.
YSR कांग्रेस, जो पहले से ही TDP-जनसेना गठबंधन से कड़ी चुनौती का सामना कर रही है, वोटरों में किसी भी तरह की कमी का जोखिम नहीं उठा सकती. जगन बड़ी संख्या में मौजूदा विधायकों को दोबारा टिकट नहीं देने पर विचार कर रहे हैं. YSR कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं को शर्मिला के रूप में एक विकल्प मिल सकता है. मंगलागिरी से YSR कांग्रेस विधायक अल्ला रामकृष्ण रेड्डी, जिन्होंने 2019 में लोकेश को हराया था, पहले ही शर्मिला को समर्थन दे चुके हैं क्योंकि यह साफ था कि उन्हें दोबारा मैदान में नहीं उतारा जाएगा.
चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाला विपक्ष YSR परिवार के हालात का मजा ले रहा होगा. कांग्रेस, जो इस क्षेत्र के लोगों की मर्जी के खिलाफ राज्य का बंटवारा करने की वजह से आंध्र प्रदेश में खत्म हो गई थी, शर्मिला में पुनरुत्थान का मौका देख रही है. पड़ोसी राज्य तेलंगाना और कर्नाटक में हालिया जीत के बाद देश की सबसे पुरानी पार्टी की उम्मीदें परवान पर हैं.
(वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर के नागेश्वर उस्मानिया यूनिवर्सिटी के फैकल्टी मेंबर और पूर्व MLC हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.)
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