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सुप्रीम कोर्ट में खत्म हो सकता है पुराना, अस्पष्ट और डरावना राजद्रोह कानून?

राजद्रोह कानून Sedition Law को लेकर आखिर वे कौन से सवाल हैं, जिन्हें लेकर लोग कोर्ट गए हैं

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5 मई से सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह कानून को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई होने वाली है, वहां ये मुख्य दलीलें हो सकती हैं . यदि किसी कानून को पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक माना है तो फिर इसे कोर्ट में चुनौती देने का कोई मतलब भी है?

यह एक ऐसा सवाल है जो भारत में राजद्रोह कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं के मन में रहा होगा.

आखिरकार, 1962 में, केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य में, सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन पीनल कोड की धारा 124A - जो राजद्रोह की परिभाषा और सजा तय करती है को संवैधानिक माना था और कानूनी बताया था.

कोर्ट का ये सिर्फ मौखिक अवलोकन नहीं था, बल्कि पांच-जजों की संविधान पीठ का एक निर्णय था, जिसे पिछले 60 वर्षों में कई मामलों में बाध्यकारी माना गया है.

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‘तो फिर आखिर, एक रिटायर्ड मेजर जनरल, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, एक अनुभवी पत्रकार और पूर्व केंद्रीय मंत्री ने इस मामले को फिर से सुप्रीम कोर्ट में उठाने का फैसला क्यों किया?’

इन याचिकाओं में जो एक सामान्य बात है वो ये कि कैसे केदार नाथ सिंह का फैसला आज के हिसाब से प्रासंगिक नहीं है. 1962 में धारा 124 A को बनाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो तर्क रखा था, उनका बाद की कुछ घटनाओं के बाद कोई मायने नहीं रह गए हैं.

अगर बाद में हुई घटनाओं पर विचार करें तो, याचिका देने वालों का तर्क है कि राजद्रोह को अब संविधान के अंतर्गत अपराध नहीं माना जा सकता है और इसे समाप्त करने की आवश्यकता है.

सुप्रीम कोर्ट में 5 मई से चुनौतियों पर सुनवाई होने वाली है. मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे, एडिटर्स गिल्ड और अरुण शौरी की याचिकाओं में राजद्रोह कानून पर पुनर्विचार करने के लिए कई ग्राउंड बताए गए हैं जिन्हें जजों ने माना है, ऐसे में एक बहस चल रही है कि देश से राजद्रोह या देशद्रोह कानून का अंत हो सकता है.

पुराना, अस्पष्ट और डरावना : सुप्रीम कोर्ट क्यों खत्म कर सकता है राजद्रोह का कानून ?

  1. आजादी से बनाए पहले गए कानूनों की संवैधानिकता का कोई मतलब नहीं.

  2. मौलिक अधिकार पूरी तरह से अलग नहीं है.

  3. राजद्रोह का दायरा साफ नहीं और व्यापक रखा गया है और ये बहुत डरावना है.

  4. राजद्रोह का मामला बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बनाया जाता है.

  5. जिस देश ने राजद्रोह का कानून बनाया उसने भी इसे खत्म कर दिया है.

  6. क्या 1962 का फैसला बहुत सावधानी से नहीं दिया गया ?

आजादी से पहले बने कानूनों की संवैधानिकता का कोई मतलब नहीं

कोर्ट किसी भी न्यायिक रिव्यू में सबसे पहले जिस पर विचार करता है वो है संवैधानिकता का सिद्धांत.

कोर्ट कभी भी किसी कानून को इस नजरिए से नहीं देखना शुरू करता कि क्या कानून असंवैधानिक है , और क्या विधायिका ने जो कानून बनाया है वो विधि सम्मत है या नहीं ?

इसके बजाय, अदालतें ये देखती हैं कि क्या कानून किसी खास संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है और अगर उस कानून को व्याख्या करने का कोई तरीका जो इसे संवैधानिक बनाती है तो कोर्ट उस व्याख्या को कानूनन लागू करने के लिए कहता है.

इस सिद्धांत का पालन सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदार नाथ सिंह के फैसले में किया था. पैरा 26 बताता है कि IPC की धारा 124ए की व्याख्या करने के दो तरीके हैं.

एक व्याख्या के तहत, कोई भी ऐसी बात या कार्रवाई जो " सरकार के प्रति घृणा या अवमानना, या उत्तेजना या असंतोष को बढ़ाने की कोशिश करती है इसे राजद्रोह या देशद्रोह माना जाएगा.’ यह धारा 124ए में जो कुछ लिखा गया है उनका सीधा अनुवाद है लेकिन अगर कोर्ट ने इसे मान लिया तो सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 19(1) (ए) का स्पष्ट उल्लंघन होगा.

फिर धारा 124A की एक दूसरी व्याख्या है, जो कहती है कि ऐसी किसी भी बात या एक्शन में अव्यवस्था या कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने का इरादा होना चाहिए - यानी, पब्लिक ऑर्डर के लिए खतरा जैसा कुछ होना चाहिए, भले ही धारा 124A इसके बारे में कुछ नहीं कहता है.

1962 के फैसले के अनुसार,

"यह अच्छी तरह से तय है कि एक व्याख्या किसी कानून को उनके प्रावधान के हिसाब से संविधान के अनुरुप बना देंगे तो दूसरी व्याख्या उन्हें असंवैधानिक बना देगी, ऐसे में कोर्ट हमेशा संवैधानिक पक्ष के साथ रहता है. सेक्शन में जो प्रावधान रहते हैं उन्हें संपूर्णता में पढ़ा जाता है और सभी स्पष्टीकरण को समझा जाता है. सेक्शन को ठीक से पढ़ने पर ये समझ में आता है कि जो प्रावधान किए गए हैं उनका लक्ष्य केवल ऐसी गतिविधियों को दंडित करना है, जो हिंसा का सहारा लेकर सार्वजनिक शांति में अव्यवस्था या अशांति पैदा करते हैं या इसका इरादा रखते हैं’
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सुप्रीम कोर्ट इस तरीके से ही धारा 124ए की संवैधानिकता को बरकरार रखने और इसे कानूनी बनाए रखने के फैसले देता है , भले ही यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को स्पष्ट रूप से प्रभावित करता हो.

जैसा कि अरुण शौरी और एसजी वोम्बटकेरे की याचिकाओं में दावा किया गया है कि 'संवैधानिकता के अनुमान का सिद्धांत' आजादी से पहले बने कानूनों पर लागू नहीं होता है.

संविधान के लागू होने के बाद संसद ने जो कानून बनाए हैं उनमें मौलिक अधिकारों का ध्यान रखा गया है लेकिन संविधान के बनने से पहले एक औपनिवेशिक सत्ता ने जो कानून बनाए, उसने उनकी फिक्र नहीं की.

हालांकि अब दो केस में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसले दिए हैं उनसे बहुत सी बातें बहुत साफ हो चुकी हैं और कोर्ट ने भी इसे मान लिया है. विशेष रूप से नवतेज जौहर मामले में न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन की राय (जहां अदालत की 5 न्यायाधीशों की पीठ ने सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया) और जोसेफ शाइन केस ( जहां व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया)... का फैसला.

संवैधानिकता को देखे परखे बिना, कोर्ट के लिए जरूरी नहीं कि वह उस कानून की व्याख्या लागू करे जो किसी विशेष प्रावधान को संवैधानिक बना दे, भले ही कानून की शब्दावली कुछ और कहती है.

जैसा कि अरुण शौरी की याचिका में तर्क दिया गया है,

"भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 124ए में जो शब्द लिखे गए हैं उनको पढ़ने की जरूरत नहीं है. दरअसल ये पूरा कानून इस इरादे से लाया गया था कि असहमति या विरोध की आवाज को दबाओ. तो अब उस कानून को सीधे अर्थों में आज असंवैधानिक करार देना चाहिए.
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मौलिक अधिकार पूरी तरह से अलग संरचना नहीं है-

दरअसल अब जो दलील दी जा रही है कि केदार नाथ सिंह का निर्णय अच्छा कानून नहीं है..क्योंकि आरसी कूपर मामला 1970 में (जिसे बैंक राष्ट्रीयकरण मामले के तौर पर जाना जाता है) सुप्रीम कोर्ट ने जो ऐतिहासिक फैसला दिया उससे मौलिक अधिकार को देखने का नजरिया भी बदल गया.

पहले शीर्ष अदालत ने यह जांचने के लिए एक संकुचित नजरिया अपनाया था कि क्या किसी विशेष कानून से मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहा है .

उदाहरण के लिए केदारनाथ सिंह मामले में विचाराधीन केस को अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार माना गया था. यह आकलन करने के लिए कि क्या राजद्रोह का अपराध संवैधानिक था, अदालत ने इस बात को देखा था कि क्या अनुच्छेद 19 (2) के तहत इस अधिकार पर विधायिक उचित प्रतिबंध लगा सकती है या नहीं ?

चूंकि अनुच्छेद 19(2) ने पब्लिक ऑर्डर को बनाए रखने में पाबंदी लगाए जाने की इजाजत दे रखी है, इसलिए अदालत ने माना कि धारा 124ए संवैधानिक है. लेकिन इसे केवल तभी लागू किया जा सकता है जहां हिंसा के जरिए पब्लिक ऑर्डर को खतरा हो.

1962 में न्यायशास्त्र की मौलिक समझ को ध्यान में रखते हुए इस बात की पड़ताल नहीं की गई कि क्या राजद्रोह का अपराध अन्य मौलिक अधिकारों, जैसे कि अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समान व्यवहार) या अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) , खास कर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबंध में संवैधानिक था या नहीं .

आठ साल बाद, आरसी कूपर मामले में, सुप्रीम कोर्ट की 11-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि इस नजरिए को बदलना होगा. 1978 में मेनका गांधी मामले और पुट्टस्वामी (अधिकार) जैसे मामलों से कानूनी स्थिति और साफ हुई फिर साल 2017 में प्राइवेसी के अधिकार से और ज्यादा स्पष्ट.

जैसा कि मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एसजी वोम्बतकेरे ने अपनी याचिका में दलील दी है -

"इनमें से प्रत्येक निर्णय अब यह स्थापित करता है कि संविधान में मौलिक अधिकारों को अलग-अलग साइलो के रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए, बल्कि ऐसे पढ़ा जाना चाहिए जैसे कि प्रत्येक मौलिक अधिकार की सामग्री एक दूसरे से जुड़ी है"

हालांकि यह अभी बहुत छोटी बात लग सकती है लेकिन नजरिए में बदलाव के हिसाब से देखें तो ये महत्वपूर्ण है.

केवल अनुच्छेद 19 (2) और यह देखने के बजाय कि क्या राजद्रोह को उचित ठहराया जा सकता है, शीर्ष अदालत अब यह देखने की क्षमता भी रखती है कि क्या कानून.. संविधान के मूल अधिकार का उल्लंघन करता है और क्या इसकी इतनी जरूरत है भी जितना इसे लागू किया जा रहा है ?

वे यह भी देख सकते हैं कि क्या सफाई नहीं रहने से कानून मनमाना हो गया है और इससे यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करने वाला बन जाता है ?

1962 में केदार नाथ सिंह मामले का फैसला करते समय ऐसे विचार अदालत के सामने नहीं थे, लेकिन अब वो मौलिक अधिकार न्यायशास्त्र के महत्वपूर्ण पहलू हैं.

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राजद्रोह साफ नहीं, बढ़ाचढ़ाकर और डरावना असर

जब हम धारा 124ए की भाषा को देखते हैं, तो एक बात बहुत साफ है कि ये बहुत उलझा हुआ है और इसमें सफाई नहीं है.

क्या है IPC की धारा 124 A

भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के अनुसार, जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व या किसी और तरह से घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या भारत में कानून से स्थापित सरकार के प्रति असंतोष को भड़काने का प्रयास करता है तो वह राजद्रोह का आरोपी है. यह एक एक गैर -जमानती अपराध है. इसमें सजा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और जुर्माना है.

  • सफाई1: इसमें असंतोष का मतलब गैरवफादारी और वैमनस्यता का भाव

  • सफाई 2: ऐसे विचार जो सरकार के खिलाफ हैं लेकिन किसी तरह की हिंसा या नफरत सरकार के खिलाफ नहीं बढ़ाती है वो इस अपराध के दायरे में नहीं आते हैं

  • सफाई 3: ऐसे विचार जो किसी प्रशासन या एक्शन के खिलाफ है लेकिन किसी हिंसा, नफरत को नहीं बढ़ाते वो इस अपराध के दायरे में नहीं आते हैं

अब ऐसे में सवाल ये है कि सरकार के प्रति "घृणा" वास्तव में क्या है? हम जानते हैं कि अदालत की अवमानना क्या है, लेकिन सरकार के प्रति "अवमानना" क्या है ? और "असंतोष" क्या है, जिसे "वफादारी और वैमनस्यता की सभी भावनाओं" को शामिल करने के लिए समझाया गया है?

क्या सरकार की कड़ी आलोचना ..राजद्रोह की जो परिभाषा है उसमें फिट नहीं हो जाएगी ?

केदार नाथ सिंह मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को यह कहकर समझाने की कोशिश की:

"जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, धारा के मुख्य निकाय से जुड़े स्पष्टीकरण यह स्पष्ट करते हैं कि सार्वजनिक उपायों की आलोचना या सरकारी कार्रवाई पर टिप्पणी, चाहे कितनी भी कठोर शब्दों में हो, उचित सीमा के भीतर होगी और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के अनुरूप होगी. भाषण और अभिव्यक्ति चाहे वो लिखित हो या जुबानी अगर उसमें सार्वजनिक अव्यवस्था या कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी पैदा करने का इरादा या प्रवृति होगी तो पब्लिक ऑर्डर बनाए रखने के लिए इसे रोका जा सकता है.

परेशानी ये है कि यह असली समस्या का समाधान नहीं है. चूंकि अदालत की व्याख्या उन शब्दों के लिए राजद्रोह या देशद्रोह लागू करने की अनुमति देती है जो सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने या कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने की 'प्रवृत्ति' रखते हैं. मौजूदा स्वरूप में पुलिस इसे सिर्फ आलोचनात्मक भाषणों के मामलों में भी लागू कर सकती है. पुलिस की दलील रहती है कि इससे गंभीर दिक्कत हो सकती है.

हां, अदालतें अंततः मामले को रद्द कर सकती हैं, या आरोपी को अंततः बरी कर दिया जा सकता है, लेकिन यह पुलिस को शुरू में ही राजद्रोह का मामला दर्ज करने से नहीं रोकता है. यह प्रक्रिया अभी भी खुद में बहुत बड़ी सजा है.

निष्पक्ष आलोचना और निजी बातचीत को भी शामिल कर लिया गया

धारा 124ए की भाषा, को अगर हम ठीक से देखें तो इसमें सरकार की निष्पक्ष आलोचना और निजी बातचीत को भी शामिल कर लिया गया है. ये उकसाने और किसी मुददे की पैरवी करने तक में कोई फर्क नहीं करता. अगर देश में पुलिस जो मामले दर्ज करती है उसको देखेंगे तो ये बात समझ में आती है.

वास्तव में, राजद्रोह के मामले पिछले कुछ वर्षों में बढ़े हैं, क्योंकि क्रिकेट मैच में पाकिस्तान के लिए नारे लगाने की बात हो , आजादी का नारा लगाने, या सिर्फ मोदी सरकार की आलोचना करने की. इनको आधार बनाकर ही FIR कर दिया जाता है और महीनों तक जेल में रखने के लिए ऐसे आधार ही काफी हैं.

यह सब सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों को पारित करने के बावजूद हुआ है, जो यह दर्शाता है कि ये चीजें राजद्रोह नहीं हैं, जिसमें बलवंत सिंह मामले में1996 का महत्वपूर्ण फैसला भी शामिल है. इसमें कहा गया है कि बिना हिंसा के 'खालिस्तान जिंदाबाद' जैसे नारे लगाने से राजद्रोह नहीं होगा.

इसलिए, राजद्रोह की परिभाषा में सफाई नहीं रहने और इसकी व्यपाकता की वजह से ये अभियक्ति की आजादी या फ्री स्पीच के लिए बहुत खौफनाक है. इसी से इसके असंवैधानिक बनने का एक आधार भी मिलता है, जैसा कि 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने श्रेया सिंघल में आईटी अधिनियम की धारा 66 ए को रद्द करके किया था.
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डरावने कानून की अवधारणा साल 1962 के बाद ज्यादा साफ हुई इसलिए केदारनाथ सिंह मामले में इसकी बात ही नहीं की गई थी.

जैसा कि एसजी वोम्बटकेरे और अरुण शौरी की याचिकाएं बताती हैं, इस अवधारणा ने 1967 में वॉकर बनाम सिटी ऑफ बर्मिंघम में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जोर पकड़ लिया.

इस अमेरिकी फैसले को आर राजगोपाल बनाम तमिलनाडु राज्य (1994) और एस खुशबू बनाम कन्नियाम्मल (2010) में फैसले के वक्त नजीर बताया गया था.

जैसा कि जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने श्रेया सिंघल मामले में कहा, ये फैसले सुप्रीम कोर्ट पर बाध्यकारी हैं. इसलिए राजद्रोह को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ता इस सिद्धांत का उपयोग कर सकते हैं और केदार नाथ सिंह फैसला इसमें रोड़ा नहीं है.

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की याचिका विशेष रूप से इस बात पर ध्यान देती है कि कैसे राजद्रोह कानून की अस्पष्टता की वजह से इसका दुरुपयोग प्रेस की आजादी पर हमला के लिए किया जा रहा है. भले ही पत्रकारों ने भीड़ को हिंसा के लिए नहीं उकसाया हो लेकिन उनके खिलाफ राजद्रोह के केस दर्ज किए जा रहे हैं.

राजद्रोह का मामला जरूरत से ज्यादा बढ़ाया चढ़ाया

2017 में सुप्रीम कोर्ट के 9-न्यायाधीशों के निजता के अधिकार के फैसले के प्रमुख नतीजों में से एक आनुपातिकता के परीक्षण का समर्थन है जिसका उपयोग मौलिक अधिकारों पर किसी भी प्रतिबंध का आकलन करते समय किया जाना है.

भले ही कोई कानून अनुच्छेद 19(2) से 19(6) में उचित प्रतिबंधों के आधार के भीतर फिट बैठता हो, अगर वह आनुपातिकता के परीक्षण में विफल रहता है, तब भी इसे अदालत असंवैधानिक बता सकती है.

ऐसे जो टेस्ट किए जाते हैं इनमें मोटे तौर पर इन बातों का ध्यान रखा जाता है:

  1. मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून का एक वैध उद्देश्य होना चाहिए.

  2. उन वैध उद्देश्यों की रक्षा के लिए प्रतिबंध आवश्यक होने चाहिए और प्रतिबंधों और उनके पीछे के उद्देश्य के बीच एक तर्कसंगत संबंध होना चाहिए.

  3. कानून ने जो उपाय सुझाए हैं उनका आवश्यकता से अधिक इस्तेमाल नहीं करना चाहिए और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए ..उद्देश्य प्राप्त करने में प्रतिबंध कम से कम लगना चाहिए.

  4. उपायों का अधिकार का लोगों पर असंगत प्रभाव नहीं होना चाहिए..

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2020 में गुजरात मजदूर सभा बनाम गुजरात राज्य में, जैसा कि एसजी वोम्बटकेरे ने अपनी याचिका में कहा है शीर्ष अदालत ने यहां तक ​​सुझाव दिया कि यह विचार करने के लिए आनुपातिकता की परीक्षा का हिस्सा है कि क्या राज्य ने कानून के दुरुपयोग के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षा उपाय प्रदान किए है .

आईपीसी की धारा 124ए के तहत द्रेशद्रोह या राजद्रोह का अपराध इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता. यह सर्वविदित है कि इसे 1870 में ब्रिटिशों ने असंतोष को दबाने के साधन के रूप में IPC में जोड़ा था, जिसका अर्थ है कि कोई वैध राष्ट्रीय उद्देश्य नहीं है.

आईपीसी के अन्य प्रावधान हैं जो राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने से लेकर दंगा करने तक, सरकार को उखाड़ फेंकने या हिंसा और अव्यवस्था पैदा करने के लिए की गई वास्तविक कार्रवाइयों से संबंधित हैं. आतंकवादी हरकतों से निपटने के लिए हमारे पास विशेष कानून भी हैं.

नतीजतन, धारा 124ए ज्यादातर लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने का हथियार बन जाता है, जिसकी कोई जरूरत नहीं है ..या कम से कम उस रूप में नहीं है जो वर्तमान में है, और आजीवन कारावास की एक बड़ी सजा के साथ.

एडिटर्स गिल्ड की याचिका ने राजद्रोह पर विभिन्न अध्ययनों का हवाला दिया है, जिसमें स्पष्ट रूप से दिखाया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के बावजूद सुरक्षा उपाय नहीं रहने से इसका कैसे दुरुपयोग किया जा रहा है .

जिस देश ने राजद्रोह कानून बनाया, वहीं कानून खत्म

केदार नाथ सिंह के फैसले में एक और तर्क है जिसकी वजह से राजद्रोह कानून को बनाए रखा गया, अब वो समय बीतने के साथ तर्क खत्म हो गया ,

इसके मुताबिक -

राज्य के खिलाफ अपराध के मामले को अंग्रेजों ने खोजा नहीं था. ये भारत में हो या फिर इंग्लैंड में . .सदियों से ये चला आ रहा है कि प्रत्येक राज्य, चाहे उसकी सरकार का कोई भी रूप हो, को उन लोगों को दंडित करने की शक्ति से लैस होना चाहिए जो, उनके आचरण से, राज्य की सुरक्षा और स्थिरता को खतरे में डालते हैं, या विश्वासघात की ऐसी भावनाओं का प्रसार करते हैं जो राज्य के विघटन या सार्वजनिक अव्यवस्था की ओर ले जाती हैं.
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अदालत के अनुसार, इसका मतलब यह नहीं था कि राजद्रोह केवल कुछ औपनिवेशिक युग का कानून था जिसका इस्तेमाल भारतीयों को वश में करने के लिए किया जाता था, बल्कि दुनिया भर के देश वैध कारणों से इस कानून को अपनाते थे.

हालाँकि, 2009 में, कोरोनर्स एंड जस्टिस एक्ट ने इंग्लैंड में राजद्रोह को निरस्त कर दिया, इसके उन्मूलन के कारण दिए गए:

"राजद्रोह का एक अनावश्यक और व्यापक आम कानून अपराध होना, जब समान मामलों को अन्य कानूनों के तहत निपटाया जाता है तो राजद्रोह कानून न केवल भ्रमित और अनावश्यक है, बल्कि ये भाषण की स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाला है. यह दूसरे देशों को गलत संकेत भेजता है जो इसे बनाए रखते हैं और वास्तव में राजद्रोह के अपराधों को राजनीतिक बहस को सीमित करने के साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं"

न्यूजीलैंड, या संयुक्त राज्य अमेरिका (जहां युद्ध के दौरान विभिन्न राजद्रोह अधिनियम पारित किए गए थे) जैसे कई अन्य देशों ने भी इस कानून को खत्म करने राजद्रोह अपराध को हटा दिया है क्योंकि एक आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में मौजूद रहने के लिए इनका कोई वाजिब कारण नहीं दिखता.

इंग्लैंड में राजद्रोह के अपराध को खत्म किए जाने की बात न्यायधीशों की नजर में है .. कि राजद्रोह को बरकरार रखने वाला पुराना फैसला अब सही नहीं है.

क्या 1962 के फैसले में शुरू से ही खामियां थी ?

सुप्रीम कोर्ट में जो याचिकाएं दी गई हैं वो इस बात की दलील देती है कि बदले समय के हिसाब से अब केदार नाथ सिंह फैसला अच्छा नहीं रह गया ..लेकिन अरुण शौरी ने जो धारा 124 ए को चुनौती दी है उसमें उनका तर्क है केदारनाथ सिंह फैसला शुरू से ही गलत था.

अगर राजद्रोह को सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा माना जाता है, तो ये खतरा कैसे इसको साल 1962 के फैसले में ठीक से देखा नहीं गया क्योंकि साल 1960 में कोर्ट ने जो फैसला दिया था वो एक मिसाल है कि कोई कदम राजद्रोह या देशद्रोह कैसे हो सकता है . अरुण शौरी का कहना है कि 1962 के फैसले में 1960 के फैसले की अनदेखी हुई थी .

शौरी की याचिका में तर्क दिया गया है कि 1960 में डॉ राम मनोहर लोहिया के फैसले में,

"यह माना गया था कि (ए) केवल 'कानून और व्यवस्था' के विरोध में 'सार्वजनिक व्यवस्था' की बढ़ती अशांति का उपयोग भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के लिए किया जा सकता है और (बी) उत्तेजना के बीच सीधा और निकट संबंध होना चाहिए और सार्वजनिक व्यवस्था में गंभीर व्यवधान"
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1962 के फैसले में एक मिसाल की अनदेखी हुई

यह निर्णय भी 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ का था, और इसलिए केदार नाथ सिंह मामले में अदालत के लिए बाध्यकारी माना जाना चाहिए था.

फिर भी, उस मामले में, जैसा कि ऊपर बताया गया है अदालत ने यह कह दिया कि ऐसे शब्द या कार्य जिनमें अव्यवस्था पैदा करने या "कानून और व्यवस्था" को बिगाड़ने की "प्रवृत्ति" भी हो, वे भी राजद्रोह के अपराध की श्रेणी में आ सकते हैं.

यह स्पष्ट रूप से राम मनोहर लोहिया फैसले के खिलाफ है. इसका मतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय यह मान सकता है कि 1962 का फैसला अमान्य था क्योंकि इसमें एक मिसाल की अनदेखी हुई थी. हालाँकि, इसके लिए अदालत को मामले की सुनवाई के लिए 5-न्यायाधीशों की एक नई पीठ स्थापित करने की आवश्यकता हो सकती है क्योंकि वर्तमान में केवल तीन न्यायाधीश ही पीठ पर हैं.

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