अयोध्या के राजा रामचंद्र का चरित्र पिछली कई सदियों से भारतीय जनमानस, खास कर हिंदुओं के जीवन मूल्यों का आदर्श है. गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ की रचना के बाद राम की छवि एक मर्यादित पुरुष के तौर पर स्थापित हो गई है.
उस पुरुष की छवि जो अपने व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन में मूल्यों का पालन करता है. जो अनुशासन में बंधा है और यह कोई कानून का बनाया अनुशासन नहीं है. यह आंतरिक अनुशासन है.
आज जब हिन्दुस्तान में लोगों के व्यक्तिगत, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में मर्यादाओं को तोड़ने की होड़ मची है तो राम के इस मर्यादित रूप की अहमियत और बढ़ गई है.
राम की कहानी एक मर्यादित, नियंत्रित और वैधानिक अस्तित्व की कहानी है. व्यक्ति, समाज और राजनीति के संदर्भ में राम के इस मर्यादित रूप की सबसे अच्छी व्याख्या की है महान समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने.
हड़पे बगैर फैलने की कहानी है राम का जीवन
लोहिया लिखते हैं- राम की सबसे बड़ी महिमा उनके उस नाम से मालूम होती है जिसमें कि उनको मर्यादा पुरुषोत्तम कह कर पुकारा जाता है. राम मर्यादा पुरुष थे. ऐसा रहना उन्होंने जान-बूझ कर और चेतन रूप से चुना था. आज जब दुनिया भर में हड़पने और विस्तार की महत्वाकांक्षा सिर उठाए खड़ी है तो राम की मर्यादा को याद करना जरूरी हो जाता है. राम का जीवन बिना हड़पे हुए फैलने की एक कहानी है. उनका निर्वासन देश को एक शक्ति केंद्र के अंदर बांधने का मौका था.
राम ने अयोध्या से लंका तक की अपनी यात्रा में कभी अतिक्रमण नहीं किया. दायरे से बाहर नहीं गए. पहली बार उन्हें वानर नरेश बालि के साम्राज्य पर अधिकार करने का मौका मिला था. वे चाहते तो बालि के भाई सुग्रीव का साथ देने के बहाने उसका साम्राज्य हड़प सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया है. यह एक विशाल हृदय राजकुमार की मर्यादा थी. यह नीतिशास्त्र की मर्यादा थी और राजनीति की भी.
इसलिए मर्यादा पुरुषोत्तम थे राम
राम के मर्यादा पुरुष बन कर उभरने का सबसे शुरुआती प्रसंग उनका वनवास स्वीकारना है. राजा दशरथ कैकेयी को वचन दे चुके थे. राम चाहते तो विद्रोह कर सकते थे. शक्ति संतुलन उनके पक्ष में था. वह अयोध्या के राजकुमार थे और गद्दी पर बैठना उनके लिए बेहद आसान था. लेकिन राम ने पारिवारिक संबंधों की मर्यादा को सबसे ऊपर रखा. उन्होंने अपने जीवन में इसके कई उदाहरण पेश किए.
सीता की अग्निपरीक्षा राम के जीवन में एक दागदार प्रसंग के तौर पर याद किया जाता है. इसे स्त्री विरोधी कदम माना जाता है. लोहिया इस प्रसंग की व्याख्या कुछ इस तरह करते हैं- एक धोबी ने कैद में सीता के बारे में शिकायत की. शिकायती केवल एक व्यक्ति था और शिकायत गंदी होने के साथ-साथ बेदम थी.
लेकिन नियम था कि हर शिकायत के पीछे कोई न कोई दुख होता है और उसकी उचित दवा या सजा होनी चाहिए. इस मामले में सीता का निर्वासन ही एक मात्र इलाज था. नियम अविवेकपूर्ण था. सजा क्रूर थी और पूरी घटना एक कलंक थी, जिसने राम को जीवन के शेष दिनों में दुखी बनाया. लेकिन उन्होंने एक नियम का पालन किया, उसे बदला नहीं. वे पूर्ण मर्यादा पुरुष थे. नियम और कानून से बंधे हुए थे और अपने बेदाग जीवन में धब्बा लगने पर भी उसका पालन किया.
धीरज, ध्यान और ध्येय के प्रतीक
राम सौम्य हैं. वह शालीन हैं. शील और मर्यादा के देवता हैं. वह धर्म में धीर, ध्यान और ध्येय के प्रतीक हैं. उनकी राजनीति में मर्यादा है. वह व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अनुशासित हैं. राजा होकर भी 14 साल का वनवास और फिर मर्यादाओं को भीतर रह कर अनुशासित जीवन उनकी जिंदगी से निकलने वाले सबसे अहम सबक हैं. भारतीय जनमानस को खुद को संतुलित रख कर एक ध्येय के साथ राष्ट्र निर्माण करना हो तो प्रेरणा के लिए उसे बाहर देखने की जरूरत नहीं है.
राम के चरित्र में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र निर्माण की सारा विधान और अभिव्यक्तियां मौजूद हैं. इसीलिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आदर्श थे राम. लोहिया की नजर में इस देश में किसी राजनीतिक पुरुष ने सबसे ज्यादा राम को जिया तो वे थे महात्मा गांधी.
राम के समावेशी चरित्र के सबक
इस दौर में जब राम के नाम पर राजनीति में ध्रुवीकरण की कोशिश हो रही हो तो राम के समावेशी चरित्र का सबक सबसे अहम हैं. राम ने अपने संघर्ष में एक समावेशी चरित्र विकसित किया था. एक क्षत्रिय राजा होने के बावजूद उन्होंने निषादों का साथ लिया. भीलों, वानरों और भालुओं का सहयोग लिया. उनकी सेना में अलग-अलग जाति के लोग थे. भारत जैसे नस्लीय, जातीय और सांस्कृतिक विरासत वाले देश में राम हर किसी के नायक हो सकते हैं. बशर्ते उनका सौम्य, शालीन और आश्वस्त करने वाले चेहरे और चरित्र को आगे किया जाए.
लेकिन अफसोस राजनीतिक फायदे लिए कुछ लोग उन्हें एक वर्ग को आक्रांत करने वाले उनके कृत्रिम आक्रामक रूप को आगे बढ़ा रहे हैं. यह उनकी मर्यादा के खिलाफ है.
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