हिंदी भाषा की साहित्यिक आलोचना के पर्याय माने जाने वाले नामवर सिंह का देहान्त 19 फरवरी को आधी रात से कुछ क्षण पहले दिल्ली के अस्पताल में हुआ, जहां प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, विपक्ष के अध्यक्ष और भारत की तमाम साहित्यिक संस्थाओं ने 'दूसरी परंपरा की खोज' के लेखक को अंतिम विदाई दी, वहीं पूरा साहित्यिक जगत उनके महाप्रस्थान का साक्षी बन लोधी रोड स्थित निगम बोधघाट में शामिल हुआ.
सन 1926 में बनारस के चंदौली जिले में जन्मे नामवर सिंह ने अपने जीवनकाल में सौ से अधिक पुस्तकें लिखी जिनमे 'कविता के नए प्रतिमान', 'इतिहास और आलोचना', 'मलयज की डायरी' इत्यादि पुस्तकें प्रमुख हैं. समय के साथ आलोचना के बदलते तेवर का दस्तावेजीकरण नामवर सिंह से बेहतर शायद ही कोई कर पाया हो. हिंदी आलोचना को अंतराष्ट्रीय गतिविधियों से जोड़ना, उनसे संवाद स्थापित करना और हिंदी पट्टी के साहित्यिक गलियारों में हो रही उथल -पुथल पर निगाह बनाये रखना- यह नामवर सिंह की साहित्यिक यात्रा की विशेषताएं रही.
साहित्य की दूसरी परम्परा के जनक नामवर ने हिंदी साहित्य के तीन पीढ़ियों के छात्रों की सोच को नई दृष्टि दी है. हमलों और विवादों से घिरे रहने के बावजूद सभी के प्रिय भी रहे, और आदरणीय भी. यह अनोखी बात है. किसान माता-पिता के बेटे अपने जनपक्षधर सरोकारों के लिये भी हमेशा याद किये जायेंगे.
नामवर सिंह ने अपने व्यावहारिक आलोचना परिसर में हिंदी के जाने माने लोकप्रिय साहित्यकार जैसे प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, निराला, निर्मल वर्मा, रघुवीर सहाय, नागार्जुन , केदारनाथ अग्रवाल, धूमिल, अज्ञेय, मुक्तिबोध और उनके गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी की रचनाओं की सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से विवेचना की है.
'कहना न होगा' में वरिष्ठ कथाकार उदय प्रकाश और अशोक वाजपेयी के साथ हुए संवाद में सिंह ने सन 1956 को आलोचना के दृष्टिकोण से विभाजक रेखा माना है. इस वर्ष सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 20 वीं कांग्रेस हुई थी, जिसमें स्टालिनवाद को ध्वस्त कर नए मार्क्सवाद की नींव रखी गयी. इसका प्रभाव आने वाले वर्षों में साहित्य, समाज व संस्कृति पर देखा गया.
पचास के दशक के सहज समाजवादी यथार्थवाद से रेवोलुशनरी रोमांटिसिज्म यानि क्रांतिकारी स्वछंदतावाद की दूरी तय करते रूसी साहित्य को गौर से पढ़ रहे नामवर सिंह ने यह माना है कि सत्तर के दशक के बाद प्रगतिशील आंदोलन ने उग्र रूप धारण किया जिससे साहित्य को गंभीर क्षति पहुंची, जिसे अशोक वाजपेयी ने इसी साक्षात्कार के एक हिस्से में 'कठमुल्लापन, यांत्रिक और चीजों को सरलीकृत करके देखने की प्रवृत्ति' कहा. पुस्तक का संकलन व संपादन उनकी पुत्री समीक्षा ठाकुर ने किया है.
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