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जयपुर लिटरेचर फेस्ट: क्या किताबों की जगह ले सकेगी डिजिटल दुनिया? 

डिजिटल युग में किताबों के भविष्य को लेकर नफे-नुकसान की चर्चा

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ये दौर डिजिटल इंडिया का है. नई सोच का है. डिजिटल आंकड़े तैयार करने और उनके इस्तेमाल का है. इन आंकड़ों का पूरा सच क्या है? डिजिटल माध्यम विकास का पर्याय हैं या कुछ पीछे छूटता भी जा रहा है? उनसे जुड़े मुद्दे क्या-क्या हैं? नफा-नुकसान का तराजू किस ओर भारी पड़ रहा है? कुछ समय पहले तक ये सवाल उपेक्षित चिंगारियां थीं, जो अब परवान चढ़ने लगी हैं.

जयपुर साहित्य महोत्सव के दौरान ऐसे ही सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश की गई. दरअसल जयपुर साहित्य सम्मेलन के परिप्रेक्ष्य में जयपुर बुक मार्क का भी सालाना सम्मेलन आयोजित होता है, जो दक्षिण एशिया की कंटेंट इन्डस्ट्री को विचार-विमर्श करने का मंच प्रदान करता है.

जयपुर बुक मार्क के तत्वावधान में डिजिटल माध्यम की गुत्थियों पर विचार के लिए गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता भारत के सेंसर बोर्ड की सबसे युवा सदस्य वाणी त्रिपाठी टिक्कू ने की.
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इन दिनों कंटेंट के इस्तेमाल के लिए उपभोक्ताओं का रुझान और कंटेंट की व्यापकता का सवाल पूरे प्रकाशन तथा मनोरंजन उद्योग के सामने बेहद महत्त्वपूर्ण है. पुस्तक का अर्थ अब एक जिल्द के भीतर समाए पन्ने ही नहीं रहे, बल्कि डिजिटल मीडिया के ई-बुक भी पुस्तक के दायरे में समा चुके हैं. बदले हुए दौर में पढ़ने की आदत भी बदली है.

पारम्परिक पुस्तकों की जगह अब डिजिटल किताबें ले रही हैं – ऑडियो, ऑडियो-विज़ुअल या ई-बुक के रूप में. लिहाजा कंटेंट से जुड़ी अर्थव्यवस्था को भी नई तरह से परिभाषित करना पड़ रहा है और प्रकाशकों तथा विक्रेताओं को उसी के अनुरूप सेल्स तथा मार्केटिंग रणनीति बनानी पड़ रही है. बाजार के ताजा रुझानों से स्पष्ट है कि विक्रय के मामले में मीडिया का नया दौर तेजी से परवान चढ़ रहा है.

“70% प्रकाशक अपनी बौद्धिक सम्पदा को ई-बुक के रूप में बदलने को तैयार हैं. ये बात साबित करती है कि रुझान बदल रहे हैं.” ये कहना है नेल्सन के विक्रम माथुर का.

तो क्या इसका अर्थ ये है कि भविष्य में पुस्तकें डिजिटल कंटेंट के रूप में दिखेंगी? “मुझे लगता है कि एक लेखक को उसकी लिखी पुस्तक पर बनी फिल्म, टेलिविजन धारावाहिक या ओटीटी धारावाहिक के कारण नहीं जाना जाता. अगर गालिब को जगजीत सिंह की वजह से ही जाना जाता तो दुनिया की रंगत कुछ और होती, हालांकि गालिब अगर युवी पीढ़ी में लोकप्रिय हैं, तो जगजीत सिंह के कारण.” ये विचार थे फिल्म निर्माता सुधीर मिश्रा के.

अगर पुस्तकों को उनपर बनी फिल्मों के कारण जाना जाए, तो यकीनन किताबों की दुनिया और पाठकों को भारी नुकसान होगा. कल्पनालोक से निकलकर यथार्थ का सामना करना ही साहित्य की पहचान है. “ये दिशा उल्टी नहीं होनी चाहिए.” उन्होंने कहा.

हालांकि दूसरा तबका मिश्रा की बात से असहमत था. बैंडिट क्वीन के निर्माता बॉबी बेदी का कहना है कि फिल्मों के लिए उनके हिसाब से शोध किया जाता है. हालांकि फिल्मों को प्रेरित करने के लिए किताबों की बिक्री पर गौर करने की परम्परा बढ़ी है, लेकिन ये पुस्तक कारोबार में लगे सभी लोगों के लिए फायदेमंद भी है.

कहानियां सुनाने के अपने अंदाज के कारण घर-घर में मशहूर नीलेश मिस्रा पहले ही समझ चुके थे, कि भारतीय श्रोताओं का रुझान एक बार फिर कहानियां सुनने की ओर बढ़ रहा है. इस परम्परा को उन्होंने अपने यादों का इडीयट बॉक्स सीरीज़ से आगे बढ़ाया. सेन्टर फॉर द स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक मुख्य धारा की मीडिया में ग्रामीण भारत से जुड़ी खबरें मात्र 2% होती हैं. ये वो तबका है, जो न सिर्फ देश का पेट भरता है, बल्कि परम्पराओं को जिंदा रखने और सांस्कृतिक विकास का भार भी अपने कंधों पर थामे हुए है.

नीलेश मिस्रा ने कंटेंट नीति निर्माताओं और मार्केट के दिग्गजों की सोच के विपरीत राह थामी. ग्रामीण जनता के लिए पहले उन्होंने गांव कनेक्शन नामक अखबार का प्रकाशन आरम्भ किया और अब खबरों को डिजिटल रूप में पेश कर एक संतुलन कायम करने की कोशिश कर रहे हैं.

देखने-सुनने के माध्यम में ये बदलाव उपभोक्ताओं के लिए लोकतंत्रीकरण से कम नहीं. हालांकि इससे पाठकों की संख्या में भी कमी आई है. “कंटेंट की ताकत का अहसास आज विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में होता है, जहां स्नैप चैट के माध्यम से गांव कनेक्शन की वीडियो कहानियां उन जगहों पर भी साझा की जाती हैं, जहां इंटरनेट नहीं है. क्या आंकड़ों के संचार के इस माध्यम को कई रोक सकता है?” सवाल का जवाब स्पष्ट है.

ऐसे समय में जब किताबों और कहानियों की बिक्री का आंकड़ा एक्सेल शीट पर तैयार होता है, ताकि सभी फायदेमंद पहलुओं को एक जगह इकट्ठा किया जा सके, “बेस्टसेलर” तैयार करना ही सफलता की कुंजी है. जहां अनीश चांडी जैसे लोग ऐसी समकालीन कहानियों की तलाश में रहते हैं, जिन्हें बड़े कारोबार में बदला जा सके, वहीं यतीन्द्र मिश्रा जैसे लेखक भी हैं, जिन्हें भारत रत्न लता मंगेशकर पर पुस्तक लिखने में साढ़े छह वर्ष तक मेहनत करनी पड़ी.

सुप्रसिद्ध गायिका के साक्षात्कारों पर आधारित पुस्तक के लिए यतीन्द्र मिश्र को भारत सरकार ने स्वर्ण कमल पुरस्कार से सम्मानित किया. जिस दौर में ओटीटी, रेडियो तथा अन्य डिजिटल मंचों में रफ्तार की होड़ लगी हो, उसी दौर में एक पुस्तक लिखने के लिए आधे दशक से भी अधिक समय लेना विरोधाभासी है. फिर भी सुधीर मिश्रा से सहमति जताते हुए यतीन्द्र को भरोसा है कि पुस्तकें हमेशा अर्थव्यवस्था के केन्द्र में बनी रहेंगी.

दूसरी ओर अनीश चांडी को माध्यम में तेजी से आता बदलाव दिखता है. “मुझे प्रतिदिन कई आवाजें प्राप्त होती हैं. पिछले एक दशक से आमतौर पर हर आवाज के अंत में ये कहा जाता है कि वो “बेस्टसेलर” हो सकते हैं. हालांकि पिछले दो वर्षों से रुख में बदलाव आया है. नई आवाज अगले “स्क्रीनप्ले” में अपनी संभावनाएं तलाशती है. ये नए प्रकार की जागरुकता है और स्वागत योग्य है.”

कंटेंट का वाणिज्यीकरण करने और विभिन्न रूपों में परिवर्तित करने वाली MAMI की स्मृति किरण का कहना है, “इस प्रक्रिया में अनुबंध करने, समय-सीमा बांधने, पैकेजिंग करने और उन्हें अधिक प्रासंगिक बनाने जैसे कई कार्य करने होते हैं.”

स्टोरीटेल के कंट्रीहेड योगेश दशरथ का मानना है कि ना सिर्फ प्रकाशन के क्षेत्र में, बल्कि अन्य प्रारूपों के उपयोगकर्ताओं के लिहाज से भी आने वाले समय में ऑडियो का महत्त्व बढ़ेगा. हालांकि वो ये भी मानते हैं कि ये तय करना भी महत्त्वपूर्ण है कि कौन सा कंटेंट किस डिजिटल प्लेटफॉर्म पर अधिक उपयोगी है. इसके अलावा युवा वर्ग के लिए फिल्टर लगाना भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि डिजिटल दुनिया में सेंसरशिप काफी ढीला है.

“डिजिटल क्षेत्र के संगम में जवाब कम, सवाल ज़्यादा हैं. सम्बंधित उद्योगों के लिए भविष्य की जरूरतों पर विचार करने के लिए एकजुट होना समय की मांग है.” गोलमेज सम्मेलन में परस्पर विरोधी विचारों के बीच संतुलन कायम करने की कोशिश करते हुए ये टिक्कू के विचार थे.

महोत्सव की सह-संचालक नीता गुप्ता ने भविष्य में डिजिटल अर्थव्यवस्था पर अधिक विचार-विमर्श करने का प्रस्ताव रखा, क्योंकि जयपुर बुक मार्ट एक ऐसा मंच है, जहां पुस्तकों से जुड़े सभी आयामों पर चर्चा की जाती है.

उनका कहना था, “हम 22 भाषाओं में हर वर्ष लाखों पुस्तकों का प्रकाशन करते हैं. प्रकाशन उद्योग में कार्यरत 40,000 से अधिक कर्मचारी उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के लिए शानदार कंटेंट तैयार करते हैं. हम नए रुझान को विस्तार से समझना चाहते हैं और इस क्षेत्र में वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं.”

लेखिका अदिति महेश्वरी गोयल पिछले 56 वर्षों से बेहतरीन हिन्दी साहित्य का प्रकाशन करने वाले वाणी प्रकाशन की कार्यकारी निदेशिका हैं. वो वाणी फाउंडेशन की मैनेजिंग ट्रस्टी हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रकाशन विभाग में अध्येता हैं.

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