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दुष्यंत कुमार: सत्ता के कुकर्मों के खिलाफ गुस्से से पैदा हुई आवाज

दुष्यंत कुमार ने ही इमरजेंसी में कहा था- मत कहो कि आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

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रहनुमाओं की अदाओं पर फ़िदा है दुनिया,

इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों,

कैसे आकाश में सुराख़ हो नहीं सकता,

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।

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ये शब्द हैं उस शख्स के जिसने धूमिल और नागार्जुन की तरह आम लोगों की भाषा में कविताएं लिखीं, जिसकी कविताएं सत्ता के कुकर्मों को नंगा करने की चुनौती देती थीं. हम बात कर रहे हैं हिंदी के कालजयी कवि दुष्यंत कुमार की. 30 दिसंबर को उनकी पुण्यतिथि है. इस मौके पर क्विंट हिंदी उन्हें याद करते हुए श्रद्धांजलि दे रहा है.

70 का दौर कुछ ऐसा था कि शासन, सत्ता के खिलाफ गुस्सा हर तरफ जाहिर हो रहा था. अगर फिल्मों में अमिताभ बच्चन उभर कर आए, तो कविताओं में दुष्यंत कुमार. दुष्यंत कुमार ही थे जिन्होंने आपातकाल में कहा था- मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.

दुष्यंत ने महज 42 साल की छोटी सी उम्र में ही जिंदगी को अलविदा कह दिया. लेकिन अपने शब्दों से लोगों के मन पर वो छाप छोड़ी, जो साल दर साल और गाढ़ी होती जा रही है.

दुष्यंत कुमार ने ही इमरजेंसी में कहा था- मत कहो कि आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
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दुष्यंत कुमार का जन्म उत्तरप्रदेश के बिजनोर जिले के राजपुर नवाडा गांव में 1 सितंबर, 1933 में हुआ था. इलाहाबाद में उन्होंने अपनी पढ़ाई-लिखाई की. इस दौरान उनकी कहानीकार कमलेश्वर से गहरी दोस्ती हुआ करती थी.

दुष्यंत कुमार ने ही इमरजेंसी में कहा था- मत कहो कि आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

दुष्यंत कुमार ने कविता ,गीत ,गजल ,काव्य नाटक ,कथा, हिंदी की सभी विधाओं में लेखन किया. लेकिन उनकी गजलें उनके लेखन की दूसरी विधाओं पर भारी पड़ गईं.

पढ़िए दुष्यंत कुमार की कुछ और बेहतरीन रचनाएं-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

निदा फाजली के मुताबिक,

दुष्यंत की नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से सजी-बनी है. यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है.

आगे आप जो कविता पढ़ेंगे वो आपको दुष्यंत की कलम की ताकत महसूस करा देगी. इमरजेंसी के दौर के हालातों को ये कविता बहुत अच्छे से बयां करती नजर आती है. अपनी मौत से चंद महिने पहले, दुष्यंत द्वारा लिखी इन पंक्तियों में आप उस वक्त के हिंदुस्तान का मर्म समझ सकते हैं.

एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है।

खास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए, यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।

एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है।

मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है।

इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है।

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला की हिन्दुस्तान है।

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।

दुष्यंत कुमार ने भोपाल में आकाशवाणी में बतौर असिस्टेंट प्रोड्यूसर भी काम किया. वहीं उन्होंने 30 दिसंबर 1975 को आखिरी सांस भी ली. आगे पढ़िए उनकी कवितासूर्य का स्वागत.इस नाम से उनका मशहूर काव्य संग्रह भी है.

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये,

इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये।

गूंगे निकल पड़े हैं, ज़ुबां की तलाश में,

सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।

बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन,

सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये।

उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें,

चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये।

जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ,

इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिए।

...और ये अल्फाज दिल में नश्तर की तरह उतरते महसूस होते हैं

कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिये, कहां चराग मयस्सर नहीं शहर के लिये।

यहां दरख़्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहां से चलें उम्र भर के लिये।

न हो कमीज़ तो घुटनों से पेट ढ़क लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिये।

खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही, कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये।

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिये।

जिएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिये।

अब जरा इन पर गौर फरमाइए...

आंगन में काई है, दीवारें चिकनीं हैं, काली हैं, धूप से चढ़ा नहीं जाता, ओ भाई सूरज ! मैं क्या करूं? मेरा नसीबा ही ऐसा है !

खुली हुई खिड़की देखकर तुम तो चले आए, पर मैं अंधेरे का आदी, अकर्मण्य...निराश... तुम्हारे आने का खो चुका था विश्वास।

पर तुम आए हो- स्वागत है ! स्वागत !...घर की इन काली दीवारों पर! और कहां? हां, मेरे बच्चे ने खेल खेल में ही यहां काई खुरच दी थी, आओ-यहां बैठो, और मुझे मेरे अभद्र सत्कार के लिए क्षमा करो। देखो ! मेरा बच्चा तुम्हारा स्वागत करना सीख रहा है।

‘आवाजों के घेरे’, ‘जलते हुए बसंत’ और ‘सूर्य का स्वागत’, दुष्यंत कुमार के कविता संग्रह हैं. उनका संग्रह ‘साये में धूप’ गजल के क्षेत्र में एक अलग मुकाम रखता है. ‘एक कंठ विषयापी’ नाम से दुष्यंत ने एक काव्य संग्रह की भी रचना की.

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