“पाकिस्तान एक बेनाम डर का नाम है. और हर मुसलमान डरा हुआ है. ये डर क्या है बलभद्र? और ये डर क्यों है? तुम मुझपे शक क्यों करते हो? और मैं तुमसे खौफ क्यों खाता हूं?”
1966 में राही मासूम रज़ा के कालजयी उपन्यास टोपी शुक्ला में एक किरदार ये सवाल पूछता है. वो सवाल जिसका जवाब आज तक खोजा जा रहा है. सदियों से खोजा जा रहा. शायद ये सवाल पूछने से भी पहले से.
गंगा का बेटा, ‘महाभारत’ का लेखक
करीब 3 दशक पहले दूरदर्शन पर एक सीरियस के प्रसारण के समय सड़कें सुनसान हो जाती थीं. वो सीरियल था- महाभारत. महाभारत के पटकथा-संवाद लेखक थे डॉ. राही मासूम रज़ा. गाजीपुर में 1 सितंबर, 1927 को जन्मे राही मासूम रज़ा की शिक्षा-दीक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुई. उनके जन्मस्थान के पास में गंगा बहती थी. रज़ा साहब खुद को दो माताओं का बेटा बताते थे. एक ने उन्हें जन्म दिया और दूसरी- गंगा.
इसी गंगापुत्र राही मासूम रज़ा को जब बीआर चोपड़ा ने महाभारत की पटकथा-संवाद लिखने की जिम्मेदारी दी तो मुल्क के कई हिस्सों में विरोध हुआ. चोपड़ा साहब को इस संबंध में लोगों ने चिट्ठियां लिखीं. चोपड़ा साहब ने वो पत्र राही मासूम रज़ा को भेज दिए. उन्हें पढ़ने के बाद रज़ा ने कहा- ‘अब तो महाभारत मैं ही लिखूंगा’.
इस तरह एक मुसलमान, जो खुद को गंगा का बेटा मानता था, ने हिंदू धर्म की महागाथा का संवाद-पटकथा लेखन किया.
यही रज़ा साहब इस घटना से कुछ साल पहले फिल्म राइटर एसोसिएशन के खिलाफ जाकर इमरजेंसी का विरोध कर चुके थे. एसोसिएशन इमरजेंसी के समर्थन में प्रस्ताव पारित कर रही थी जिसका रज़ा साहब ने अपने दो दोस्तों विमल मित्र और अजीज़ कैसी के साथ वॉकआउट कर विरोध किया था.
‘टोपी शुक्ला’- पन्नों पर बिखरा हिंदुस्तान
आज राही मासूम रज़ा के उपन्यास टोपी शुक्ला को याद करते हुए रज़ा साहब के लेखन और व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करते हैं .
टोपी शुक्ला को पढ़ कर ये नहीं लगता कि इसका प्रकाशन साल 1966 में हुआ था. इसमे वर्णित घटनाएं आजकल में घटित लगती हैं .
कुल 18 अध्यायों में बंटे 114 पेज के छोटे से उपन्यास में लगता है डॉ. राही मासूम रज़ा ने एक डॉक्टर बनकर हिंदुस्तानी समाज को हुए फोड़े में चीरा लगा रहे हैं. इस किताब के पन्ने दर पन्ने पलटने से वो मवाद बहता दिखता है जिसे हम रोजमर्रा की जिंदगी में देखते हैं.
पेज 9
‘’धर्म मे भी साली पॉलिटिक्स घुस आई है भाई!’’ टोपी ने झल्लाकर कहा. ‘’धर्म सदा से पॉलिटिक्स का ही एक रूप रहा है. न सोमनाथ का मंदिर तुम बनवा सकते हो और न दिल्ली की जामा मस्जिद मैं.’’
पेज 12
‘’यहां बैठकर प्रगतीशील बनते हो मगर खाल के नीचे हो हिन्दू ही.’’
(आज भी स्वयंभू बुद्धिजीवियों की स्थिति यही है)
पेज 15
‘’टोपी एक ही है. सफेद हो तो आदमी कांग्रेसी दिखाई देता है, लाल हो तो प्रजा सोशलिस्ट और केसरी हो तो जनसंघी.’’
(अभी कुछ दिन पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में आये और आते ही उनके गले में जो मफलर हमेशा रहता है, उसका रंग बदल गया)
पेज 39
मगर जब मौलवी साहब हाजिरी लेने लगते तो उदास हो जाते. मुहम्मद हनीफ, अकरमुल्ला, बदरुल हसन, नजफ़ अब्बास.. एक ही तरह के नाम पुकारते-पुकारते वो बोर हो जाते. कहां गए वो आशाराम, नरबदाप्रसाद, मातादीन, मसीहपीटर..
(एक संवेदनशील-समझदार व्यक्ति हिंदी को हिंदुओ की भाषा, उर्दू को मुसलमानों की भाषा कभी नहीं मान सकता)
रज़ा ने आज की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक बेरोजगारी पर करारे तंज कसे-
पेज 62
‘’पहले दिलों के बीच मे बादशाह आया करते थे. अब नौकरी आती है. हर चीज़ की तरह मुहब्बत भी घटिया हो गयी है.’’
पेज 63
‘’हमारे देश मे पढ़े-लिखे होने का सबूत नौकरी है.’’
पेज 68
‘’अरे नौकरी न मिले तो क्या करें? घर पड़े रहने से तो अच्छा है कि आदमी पीएचडी ही कर लें.’’
पेज 69
“असल में बेरोजगारी की समस्या इतनी गंभीर हो गयी है कि हर नवयुवक केवल नेता बनने के ही ख्वाब देख सकता है.”
पेज 70
“मुसलमान लड़कों के दिलों में दाढ़ियां और हिन्दू लड़कों के दिलों में चोटियाँ उगने लगी. ये लड़के फिजिक्स पढ़ते हैं और कॉपी पर ओम या बिस्मिल्लाह लिखे बिना सवाल का जवाब नहीं लिखते.”
पेज 95
‘’जिस देश की यूनिवर्सिटी में यह सोचा जा रहा हो कि ग़ालिब सुन्नी थे या शिया और रसखान हिन्दू थे या मुसलमान, उस देश में पढ़ाने का काम नहीं करूंगा.’’
15 मार्च, 1992 को राही मासूम रज़ा का इंतकाल हो गया. लेकिन किताबों की शक्ल में जो विरासत वो छोड़ गए हैं उसके जरिए वो हमेशा दिलों में जिंदा रहेंगे.
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