मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में यथार्थ को लाने वाली शख्सियतों में बिमल रॉय सबसे आगे थे. रॉय ने नेहरू के भारत में चुनौतियों से जूझ रहे रोमांटिक यथार्थ को बदल कर रख दिया. फिल्म बनाने की उनकी विधा ने कभी भी सितारों के आगे घुटने नहीं टेके और उनके व्यक्तित्व की छाप उनकी फिल्मों के मानवतावादी पहलुओं में बखूबी दिखी. यही चीज उनकी फिल्मों को नई ऊंचाइयों तक ले गईं.
एक नजर डालते हैं इस महान फिल्म निर्देशक से जुड़ी खास बातों पर, जो अपनी फिल्मों के जरिये आज भी हमारे बीच हैं.
1. बची हुई रील से काम किया
फिल्मी दुनिया में बिमल रॉय ने अपने करियर की शुरुआत बतौर कैमरामैन कलकत्ता के न्यू थियेटर स्टूडियो से की. लेकिन रॉय को निर्देशक का काम करना था, इसलिए वो स्टूडियो के मालिक बी एन सिरकार से मिले और उनसे इसके लिए अनुमति मांगी. सिरकार इस पर सहमत हो गए, लेकिन साथ में एक शर्त रखी कि रॉय इसके लिए केवल फिल्मों की बची हुई रील का ही इस्तेमाल कर सकते हैं.
रॉय ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया और केवल ऐसी ही रील का इस्तेमाल कर एक फिल्म बना दी. ये 1944 की बात है और फिल्म थी उदयेर पाथे. फिल्म सुपरहिट रही. रॉय ने बाद में इस फिल्म का हिंदी वर्जन हमराही भी बनाया.
2. राष्ट्रगान होने से पहले ही जन गन मन का इस्तेमाल किया
बिमल रॉय ने रबींद्रनाथ टैगोर के जन गन मन का इस्तेमाल अपनी फिल्म उदयेर पाथे और इसके हिंदी वर्जन हमराही में किया. और ये काम बिमल राय ने 1950 में इसके राष्ट्रगान बनने के काफी पहले किया.
3. रशोमोन से प्रेरित
बिमल रॉय प्रोडक्शन के वजूद में आने में अकीरा कुरोसवा के ‘रशोमोन’ का बड़ा योगदान रहा. बॉम्बे के इरोज सिनेमा में इस फिल्म को देखने के बाद बिमल रॉय और उनकी टीम के कुछ और सदस्य एक डबल डेकर बस में सवार होकर मलाड लौट रहे थे. तब उनके साथ ह्रषिकेश मुखर्जी भी थे.
इस फिल्म ने इन लोगों के दिलो-दिमाग पर इतनी गहरी छाप छोड़ी कि मुखर्जी ने रॉय से इस बात की संभावना तलाशने के लिए कहा कि क्यों न हमलोग भी इस तरह की फिल्में बनाएं? आश्चर्य के साथ जब रॉय ने ये सवाल किया कि हम इस स्तर का राइटर कहां से लाएंगे, तो मुखर्जी ने तुरंत इस काम का जिम्मा खुद उठा लिया. टीम के बाकी सारे सदस्यों ने इस बात पर हामी भरी कि सबके कंपनी में शेयर होंगे. और इसके साथ ही एक बस के अंदर बिमल रॉय की प्रोडक्शन कंपनी की बुनियाद रख दी गई.
4. सुजाता का वो शॉट
सुजाता फिल्म में एक सीन कुछ यूं था कि अधीर (सुनील दत्त) एक ग्रीनहाउस के अंदर सुजाता (नूतन) से कहता है कि उसके आने का मुख्य उद्देश्य उसे (सुजाता को) देखना था. ये सुनते ही सुजाता को लाजवंती के पत्ते की तरह सिमटते हुए पेश करना था.
इस सीन की बड़ी दिलचस्प कहानी है. रॉय ने इस सीन की शूट करने में 4 दिन लगा दिए. कोशिश बस ये थी कि कैसे सुजाता को उन पत्तों के जरिये दर्शाया जाए? आखिरकार शूटिंग के चौथे दिन जब एक विशाल प्रोपेलर पंखे को लाजवंती के पौधे के सामने लगाया गया तो उसके पत्ते उस रूप में बंद होते दिखे, जैसा रॉय चाहते थे.
इस दौरान फिल्म की रील के 50,000 फीट का इस्तेमाल कर लिया गया. और जब शूटिंग के इस पूरे हिस्से को एडिट करने की जिम्मेदारी एडिटर अमित बोस को सौंपी गई, तो उनके सामने जैसे पूरी जिंदगी में से सिर्फ डेढ़ मिनट का सीन निकालने की चुनौती थी. लेकिन जब बोस को इस प्रयास में निराशा हाथ लगी, तो बिमल रॉय ने अपने असिस्टेंट सखाराम के साथ मिलकर दो दिन से भी कम समय में इस पूरे सिक्वेंस को निकाल लिया.
5. जब बलराज साहनी को रुलाया
दो बीघा जमीन के आखिरी शॉट में शंभू (बलराज साहनी) को एक हारे हुए इंसान की शक्ल में बैठना था और जमींदार (मुराद) के पैर पकड़कर अपनी जमीन के लिए भीख मांगनी थी. निर्देशक बिमल रॉय ने चुपके से मुराद को कह दिया कि वो अपना पैर साहनी की पकड़ से छुड़ा लें और खुद को कैमरे की रेंज से अलग कर लें. ये एक ऐसी बात थी, जिसके बारे में बलराज साहनी को जानकारी नहीं दी गई थी. इसका नतीजा ये हुआ कि टेक लेते समय मुराद का पैर साहनी के चेहरे पर जा लगा. इस बात से दुखी बलराज साहनी खुद को अपमानित महसूस कर कैमरा ऑफ होने के बाद रोते नजर आए. मुराद भागकर आए और माफी मांगी, साहनी को गले लगाया और फिर पीछे की कहानी सुनाई. ये सीन ऐतिहासिक बना और साहनी की नजर में बिमल रॉय पहले से भी ज्यादा सम्मानित शख्सियत बन गए.
(लेखक एक पत्रकार और पटकथा लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडल है: @RanjibMazumder)
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