प्राण एक ऐसे एक्टर थे, जिन्होंने अपने करियर में अधिकतर विलेन का किरदार ही निभाया और ये सिलसिला करीब पांच दशक और 350 फिल्मों तक लंबा चला. प्राण के जन्म पर नजर डालते हैं इस एक्टर के रील और रियल लाइफ के कुछ दिलचस्प पहलुओं पर:
एक फोटोग्राफर जो एक्टर बन गया
प्राण ने कभी नहीं सोचा था कि वो एक एक्टर बनेंगे. उन्होंने फोटोग्राफी को अपने करियर के रूप में चुना और दिल्ली से इसकी शुरुआत भी कर दी थी. बाद में वो लाहौर शिफ्ट हो गए. डिनर के बाद अपने दोस्तों के साथ प्राण अकसर एक खास पान की दुकान पर जाया करते थे. ये वही जगह है, जहां उन पर लेखक मोहम्मद वली की नजर उन पर पड़ी और उन्होंने एक्टिंग के लिए प्राण से संपर्क किया.
मोहम्मद वली तब जाने-माने निर्माता और फिल्म स्टूडियो के मालिक दलसुख पंचोली के लिए लिख रहे थे, जो कि उन दिनों ‘यमला जट’ नाम से एक पंजाबी फिल्म प्लान कर रहे थे. वली को लगा कि फिल्म के एक मुख्य किरदार के लिहाज से प्राण फिट हैं और उन्हें उस रोल में मौका दिया जा सकता है. प्राण इस बात के लिए खुशी-खुशी राजी हो गए. इसके बाद वली ने उन्हें अपना कार्ड दिया और अगले दिन 10 बजे सुबह मिलने को कहा. लेकिन 19 साल के युवा प्राण ने तब वली के ऑफर को गंभीरता से नहीं लिया और उनसे मिलने भी नहीं गए.
अगले ही शनिवार को प्राण प्लाजा सिनेमा में किसी फिल्म का मैटिनी शो देखने पहुंचे, जहां वली फिर से उनके सामने थे. वली ने तब प्राण को समझाया कि उन्होंने उन्हें कितना बड़ा रोल ऑफर किया है और इसके लिए उन्होंने (वली ने) अपने निर्माता को किसी और को साइन करने तक से रोक रखा है.
ग्लानि से भरे प्राण ने वादा किया कि वो अगले दिन जरूर आएंगे. लेकिन वली एक और रिस्क नहीं लेना चाहते थे. उन्होंने प्राण का पता नोट किया और अगले दिन उन्हें खुद ले जाने के लिए उनके घर पहुंच गए. फोटो सेशन और एक इंटरव्यू के बाद प्राण को फिल्म के मुख्य विलेन के तौर पर साइन कर लिया गया. प्राण की पहली फिल्म ‘यमला जट’ सुपर हिट रही. ये साल 1940 की बात है.
नूरजहां के साथ डेब्यू
प्राण की तीसरी फिल्म ‘खानदान’ (1942) कई मायनों में अहम थी. पहली तो ये कि ये उनकी पहली हिंदी फिल्म थी और दूसरी ये कि ये उनकी पहली फिल्म थी, जिसमें वो नायक (हीरो) के रोल में थे. यही नहीं, ये फिल्म नूरजहां के लिए भी डेब्यू फिल्म थी, जिसमें वो प्राण के सामने फिल्म की लीड एक्ट्रेस थीं. चूंकि भविष्य की मल्लिका-ए-तरन्नुम तब सिर्फ 12-13 साल की थीं, लिहाजा प्राण की लंबाई से मैच कराने के लिए क्लोज दृश्यों की शूटिंग के वक्त कई बार नूरजहां ईंटों पर खड़ा करना पड़ता था.
लाहौर से बॉम्बे
भारत स्वतंत्रता हासिल करने की दहलीज पर था. लेकिन साथ ही माहौल में दंगों और सांप्रदायिक षड्यंत्रों का अहसास हो रहा था. प्राण ने समय रहते अपनी पत्नी, साली और करीब एक साल के बेटे को इंदौर भेज दिया. इसके बाद लाहौर में दंगे भड़क गए. प्राण वहीं रुक गए. लेकिन प्राण की पत्नी ने उनके इंदौर न आने की सूरत में अपने बेटे का पहला जन्मदिन मनाने से मना कर दिया, जो कि 11 अगस्त 1947 को पड़ता था. हालांकि वो लाहौर में ही रुकना चाहते थे, लेकिन अपनी पत्नी की जिद के आगे उन्हें 10 अगस्त को लाहौर से इंदौर आना पड़ा.
फिर अगले कुछ दिनों में समाचार आने लगे कि लाहौर में कैसे लोगों का कत्लेआम हो रहा है और अब ये तय हो गया कि प्राण दोबारा लाहौर नहीं जा सकते. चूंकि उनके पास अब तक फिल्मों का एक सफल करियर बन चुका था, लिहाजा उन्होंने बॉम्बे को अपने पेशे के लिए उचित समझा. प्राण 14 अगस्त को ही बंदरगाहों के शहर बॉम्बे पहुंच गए. उन्होंने उस वक्त के वहां के सबसे अव्वल होटल ताज महल में अपने लिए कमरा बुक कराया. लेकिन जल्दी ही प्राण को ये अहसास हो गया कि लाहौर में उनका 20 फिल्मों का करियर बॉम्बे की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए कोई मायने नहीं रखता है.
6 महीने से ज्यादा समय तक खाली रहने के बाद वो छोटे होटल में शिफ्ट कर गए और नौबत यहां तक आ गई कि रोज-ब-रोज की जरूरतें पूरी करने के लिए उन्हें अपनी पत्नी के गहने तक बेचने पड़े.
किसी बच्चे का नाम प्राण नहीं
जब प्राण की पहचान एक विलेन के तौर पर घर-घर में बन चुकी थी, तो कुछ पत्रकारों ने बॉम्बे, दिल्ली, पंजाब और यूपी के स्कूलों और कॉलेजों में एक सर्वे किया कि क्या किसी बच्चे का नाम प्राण है? नतीजा ये आया कि इन चारों ही जगहों पर कोई एक बच्चा भी ऐसा नहीं मिला, जिसका नाम प्राण हो. माना जाता था कि रावण नाम के बाद प्राण दूसरा ऐसा नाम है, जो बुराई का इतना बड़ा प्रतीक बन गया कि जिसके नाम पर कोई भी मां-बाप अपने बच्चे का नाम रखने की सोच भी नहीं सकता.
अवॉर्ड लेने से मना किया
1973 में सोहनलाल की फिल्म ‘बेईमान’ ने फिल्मफेयर अवॉर्ड में धूम मचा दी. इसी फिल्म में बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर के लिए प्राण को भी अवॉर्ड के लिए चुना गया, लेकिन प्राण ने ये अवॉर्ड लेने से मना कर दिया, क्योंकि उन्हें लगता था जजों की कमेटी ने ‘बेईमान’ के लिए शंकर जयकिशन को बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का अवॉर्ड देकर गलत किया है, इसके हकदार ‘पाकीजा’ फिल्म में म्यूजिक देने वाले गुलाम मोहम्मद थे.
प्राण और दिलीप कुमार की दोस्ती
प्राण, दिलीप कुमार और राज कपूर के बेहद करीब थे. फिल्म इंडस्ट्री में इनके बीच बड़ा लंबा रिश्ता रहा. दिल दिया दर्द लिया (1966) में दिलीप कुमार ने प्राण को उनका रोल निभाने में काफी मदद की.
जब दिलीप कुमार की शादी हो रही थी, तो प्राण कश्मीर में शूटिंग कर रहे थे. भारी बरसात और मौसम खराब होने के बाद भी प्राण अपने दोस्त की शादी में शामिल होने के लिए बॉम्बे पहुंच गए. शादी की रात राज कपूर समेत पूरा गैंग नशे में धुत होकर दिलीप कुमार के बेडरूम का दरवाजा तब तक पीटता रहा, जब तक कि उन्होंने दरवाजा खोलकर उन सबको हैलो नहीं कह दिया.
असल जिंदगी के किरदारों में खुद को ढाला
अपने अभिनय के दौरान प्राण किरदारों को एक अपना अलग टच देने के लिए भी जाने जाते थे. इसके लिए वो कई बार दिलचस्प हाव-भाव पैदा करते थे. प्राण फिल्म में अपनी लुक को लेकर बड़े ही संजीदा रहते थे. प्राण जैसे ही असल जिंदगी में, किताबों में या किसी मैगजीन में कोई दिलचस्प किरदार देखते थे, तो उसे वो अपने दिमाग में उतार लेते और बाद में अपनी एक्टिंग में उसका इस्तेमाल करते.
असल जिंदगी के कई व्यक्तित्वों को उन्होंने पर्दे की जिंदगी में उतार लिया. जिन कुछ चर्चित और बड़ी शख्सियतों के साथ उन्होंने ये प्रयोग किया उनमें शेख मुजीबुर्रहमान, हिटलर, सैम पित्रोदा और अब्राहम लिंकन शामिल रहे. अपने इस नायाब प्रयोग के जरिये प्राण फिल्मों में अपने किरदार को और ज्यादा ऊंचाइयों तक ले गए.
जिस देश में गंगा बहती है (1960) के दौरान वो प्राण ही थे, जिन्होंने राज कपूर को सलाह दी थी कि खूंखार डाकू राका का खौफ पैदा करने के लिए उन्हें अपना हाथ अपने गले पर घुमाना चाहिए और खुद के अंदर हमेशा ये महसूस करना चाहिए कि एक रस्सी उसके गले के चारो ओर कहीं मौजूद है. और इसी के बाद खूंखार डकैत राका का जन्म हुआ.
(लेखक एक पत्रकार और पटकथा लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडल है: @RanjibMazumder)
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