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वो 5 किरदार जो संजीव कुमार को एक एक्टर के तौर पर बदलकर रख देते

संजीव कुमार के अभिनय की गहराई और क्षमता ने उन्हें मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा का जरूरी हिस्सा बना दिया 

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सितारों के झुंड के बीच संजीव कुमार एक अभिनेता थे. उन्होंने न सिर्फ हिंदी फिल्मों के हीरो के एक तय चरित्र को चुनौती दी, बल्कि खुद को सफलता के लिहाज से केस स्टडी के तौर पर पेश किया. उनके अभिनय में वो सबकुछ था जिसकी बदौलत कम बजट की फिल्मों में भी उन्होंने गहराई पैदा कर दी और बड़े बजट की फिल्मों में उनकी मौजूदगी ने फिल्म को और बड़ा व भव्य बना दिया. अपने छोटे से जीवन काल में उनके अभिनय की विविधता, उसकी गहराई और उनकी क्षमता ने उन्हें मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा का जरूरी हिस्सा बना दिया.

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एक नजर डालते हैं उन कुछ किरदारों पर जिनमें वो नजर आते, अगर नियति की योजना कुछ और होती.

मिर्जा गालिब (1988)

संजीव कुमार के अभिनय की  गहराई और क्षमता ने उन्हें मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा का जरूरी हिस्सा बना दिया 
नसीरुद्दीन शाह ने टीवी सीरीज मिर्जा गालिब (1988) में मिर्जा गालिब की भूमिका निभाई थी

70 के दशक में गुलजार मिर्जा गालिब पर बायोपिक प्लान कर रहे थे और उनकी योजना संजीव कुमार को महान उर्दू कवि गालिब के रूप में पेश करने की थी. लेकिन ये प्रोजेक्ट कभी पूरा नहीं हो सका. लगभग एक दशक बाद गुलजार ने अपने इस पुराने सपने को टीवी सीरियल के रूप में पेश किया, जिसमें नसीरुद्दीन शाह मिर्जा गालिब के लीड रोल में नजर आए.

इसके बारे में नसीरुद्दीन शाह के पार एक बहुत ही दिलचस्प कहानी है. वे कहते हैं कि-

मैंने गालिब पर 1954 में बनी फिल्म देखी थी, जिसमें भारत भूषण मिर्जा गालिब के रोल में थे और इसके बाद 1970 में सुना था कि गुलजार भाई गालिब पर मूवी बनाने की तैयारी कर रहे हैं, जिसमें संजीव कुमार लीड रोल में होंगे. इसके बाद मैंने उन्हें (गुलजार को) रजिस्टर्ड पोस्ट से चिट्ठी लिखी कि वो ऐसा नहीं कर सकते. जिस किसी ने सत्यजीत रे की 1977 में आई फिल्म शतरंज के खिलाड़ी देखी हो, वो इस बात को मानेगा.

“वह (संजीव कुमार) इस रोल के लिए पूरी तरह गलत थे, मेरे कहने का मतलब ये है कि वो एक गुजराती थे, ऐसे में आप उन्हें कैसे एक ऐसे रोल में पेश कर सकते हो? मुझे उस रोल में होना चाहिए. इसीलिए मैंने गुलजार भाई को ये कहते हुए चिट्ठी लिखी कि वे इस रोल में संजीव कुमार को नहीं रख सकते. उन्हें इसमें मुझे कास्ट करना चाहिए. और इसके बाद उस फिल्म के बारे में मैंने कभी नहीं सुना. ऐसा तब हुआ, जबकि मैं इंडस्ट्री में अपेक्षाकृत कम पहचान रखता था. बाद में गुलजार भाई ने मुझे बताया कि उन्हें कभी मेरी ऐसी कोई चिट्ठी नहीं मिली.”

-नसीरुद्दीन शाह (as reported by thefridaytimes.com)

सारांश (1984) में बी वी प्रधान

संजीव कुमार के अभिनय की  गहराई और क्षमता ने उन्हें मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा का जरूरी हिस्सा बना दिया 
अनुपम खेर जब सिर्फ 28 साल के थे, तो उन्होंने सारांश (1984) में 65 साल के बुजुर्ग का रोल प्ले किया. इस रोल के लिए संजीव कुमार पर भी विचार किया गया था.

अनुपम खेर जब 28 साल के थे तब उन्होंने 65 साल के बूढ़े इंसान का रोल किया. इसी के जरिये उन्होंने एक एक्टर के रूप में अपना लोहा मनवाया. लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि उस फिल्म के बी वी प्रधान के रोल के लिए संजीव कुमार का नाम गंभीरता के साथ सामने आया था.

राजश्री प्रोडक्शंस चाहता था कि इस रोल के लिए कोई जोखिम न लेते हुए सहज रास्ता अपनाया जाए और इसके लिए संजीव कुमार जैसे दिग्गज एक्टर से बेहतर कोई और नहीं हो सकता. लेकिन अनुपम खेर ने इस रोल को हासिल करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी और निर्देशक महेश भट्ट को ये समझाने में कामयाब रहे कि इस रोल में वो सर्वश्रेष्ठ च्वाइस होंगे. और जब फिल्म बनकर तैयार हुई, तो अनुपम ने अपने किरदार को जिस शिद्दत से निभाया, उसे देखकर उन्हें शाबाशी देने वालों में संजीव कुमार भी शुमार थे.

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कालिया (1981) में जेलर राघवीर सिंह

संजीव कुमार के अभिनय की  गहराई और क्षमता ने उन्हें मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा का जरूरी हिस्सा बना दिया 
कालिया (1981) में प्राण ने जेलर रघवीर सिंह की भूमिका निभाई. जबकि इस रोल के लिए संजीव कुमार असली च्वाइस थे.

जेलर की भूमिका में संजीव कुमार का होना तय हो गया था लेकिन तभी उनका निर्देशक टीनू आनंद के साथ एक विज्ञापन को लेकर विवाद हो गया. ये एक सिटी न्यूजपेपर में पूरे पेज का विज्ञापन था, जिसमें इस बात की घोषणा की गई थी कि फिल्म में अमिताभ बच्चन लीड रोल में होंगे. इसी विवाद के बाद जेलर का रोल प्राण को दे दिया गया.

शोले (1975) में गब्बर/वीरु

संजीव कुमार के अभिनय की  गहराई और क्षमता ने उन्हें मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा का जरूरी हिस्सा बना दिया 
अमजद खान ने शोले (1975) में गब्बर का किरदार निभाया, इस रोल पर संजीव कुमार की नजर थी.

सलीम-जावेद की जोड़ी ने जब संजीव कुमार को शोले (1975) की कहानी सुनाई, तो इसमें भरी-पड़ी हिंसा को लेकर वे स्तब्ध रह गए. हालांकि वे इस फिल्म में काम करने के लिए तैयार थे लेकिन अलग-अलग किरदारों के डायलॉग सुनने के बाद उन्हें लगा कि गब्बर इस फिल्म के लिहाज से सबसे बेहतर रोल होगा.

संजीव कुमार, गब्बर का रोल करना चाहते थे, लेकिन वो ज्यादा देर तक इस रोल के लिए जोर नहीं दे सके क्योंकि गब्बर एक अपराधी था और संजीव कुमार क्रूरता से नफरत करते थे. कहानी यहीं खत्म नहीं हुई. पूरी स्क्रिप्ट सुनने के बाद धर्मेंद्र, ठाकुर का रोल करना चाहते थे. उन्हें समझ में आ गया था कि फिल्म में केंद्रीय भूमिका में ठाकुर और गब्बर को ही होना है. इसके बाद निर्देशक रमेश सिप्पी ने चालाकी से इस मसले को सुलझाया. उन्होंने धर्मेंद्र से कहा कि अगर उनका वीरू का किरदार संजीव कुमार के ठाकुर के किरदार से बदल दिया गया, तो फिल्म के आखिर में हेमा मालिनी संजीव कुमार को हासिल हो जाएंगी. और उस वक्त असल जिंदगी में संजीव कुमार, हेमा मालिनी को प्रपोज कर चुके थे. इसके बाद धर्मेंद्र का सारा संदेह खत्म हो गया और उन्होंने वीरु के रोल के लिए हामी भर दी.

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मीरा (1979) में राणा भोजराज

संजीव कुमार के अभिनय की  गहराई और क्षमता ने उन्हें मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा का जरूरी हिस्सा बना दिया 
गुलजार की फिल्ममीरा (1979) में विनोद खन्ना ने राणा भोजराज का किरदार निभाया
गुलजार अपनी फिल्म मीरा में एक बड़े रोल में मुझे रखना चाहते थे लेकिन मैंने मना कर दिया. तब मेरे और हिरोइन के बीच में कुछ टेंशन था. आप जानते हैं हेमा (मालिनी). इसलिए मैंने फिल्म में काम करने से मना कर दिया. स्वाभाविक है कि अब हमारे बीच में कुछ भी नहीं है.
संजीव कुमार (1978 में फिल्मफेयर में छपे एक इंटरव्यू में)

क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि वो रोल कौन सा था? ये रोल राणा भोजराज का था. मीरा के पति का. जिसे बाद में फिल्म में विनोद खन्ना ने निभाया.

(लेखक एक पत्रकार और पटकथा लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडल: @RanjibMazumder) (ये लेख द क्विंट के आर्काइव से लिया गया है और पहली बार 6 नवंबर 2016 को प्रकाशित हुआ था. संजीव कुमार की पुण्यतिथि पर इसे फिर से प्रकाशित किया जा रहा है.)

ये भी पढ़ें- संजीव कुमार: उनकी याद में उनके सुपरहिट गाने

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