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जयंती विशेष: हिंदी साहित्‍य में जयशंकर जैसा कोई नहीं, क्‍योंकि...

जयशंकर प्रसाद की जयंती पर क्‍व‍िंट हिंदी उन्‍हें श्रद्धांजलि दे रहा है. 

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साहित्‍य की दुनिया में कोई-कोई नाम ऐसा होता है, जो अपने-आप में एक पूरे युग की तस्‍वीर उकेर देता है. जयशंकर प्रसाद हिंदी के वैसे ही साहित्‍यकारों में गिने जाते हैं. 30 जनवरी को प्रसाद जी की जयंती है. इस मौके पर क्‍व‍िंट हिंदी उनकी कृतियों को याद कर उन्‍हें श्रद्धांजलि दे रहा है.

वैसे तो जयशंकर प्रसाद ने कविता, नाटक, कहानी, निबंध, उपन्‍यास- हर विधा में अपनी अमिट छाप छोड़ी है, पर नाटक के क्षेत्र में उनका योगदान बेहद खास है. दरअसल, उपन्‍यास की दुनिया में जो स्‍थान प्रेमचंद का है, वही स्‍थान हिंदी नाटक साहित्‍य में प्रसाद को हासिल है.

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संक्षि‍प्‍त जीवन परिचय

  • जन्‍म: 30 जनवरी, 1889
  • मृत्‍यु: 14 जनवरी, 1937
  • जन्‍म स्‍थान: वाराणसी, उत्तर प्रदेश

जयशंकर प्रसाद के पिता देवी प्रसाद साहू बनारस के धनी-मानी लोगों में गिने जाते थे. उनके घर में साहित्‍यकारों और विद्वानों की मंडली लगा करती थी. शुरुआती शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई. जब उनकी अवस्‍था 12 साल की थी, तभी उनके पिता चल बसे. इसके बाद उनके जीवन में संघर्ष का दौर आया.

परिवार से मिले साहित्‍य‍िक माहौल में प्रसाद जी को अपनी प्रतिभा निखारने का मौका मिला. उन्‍होंने संस्‍कृत, पाली, प्राकृत और अंग्रेजी का गहन अध्‍ययन किया और साधना समझकर साहित्‍य की सेवा की. उनकी शुरुआती रचनाएं ब्रजभाषा में मिलती हैं.

प्रसाद छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में गिने जाते हैं. भारतेंदु के बाद जयशंकर प्रसाद ने ही नाटक को एक नया आयाम दिया. उन्‍होंने पश्चिमी देशों की नाट्य शैली और देसी नाट्य साहित्‍य के बीच बेहतर तालमेल कायम किया, जो एक अनूठी बात है.
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जयशंकर प्रसाद के प्रमुख नाटक

  • सज्‍जन
  • कल्‍याणी
  • परिणय
  • करुणालय
  • प्रायश्‍चित
  • राज्‍यश्री
  • विशाख
  • अजातशत्रु
  • जनमेजय का नागयज्ञ
  • कामना
  • स्‍कंदगुप्‍त
  • ध्रुवस्‍वामिनी
  • अग्‍न‍िमित्र
  • चंद्रगुप्‍त

जाहिर है, इनमें से कई नाटक ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि पर आधारित हैं, जिनके जरिए सांस्‍कृतिक चेतना जगाने की कोशिश की गई. प्रसाद के नाटकों की भाषा संस्‍कृतनिष्‍ठ है, मतलब इनमें संस्‍कृत के भारी-भरकम शब्‍दों की अधिकता दिखती है. कई पात्रों के संवादों में दर्शन (फिलॉसफी) की झलक मिलती है. मनुष्‍य जीवन की समस्‍याओं और मन की उलझनों को भी प्रसाद ने अपनी रचना में बखूबी उभारा है.

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कहानी संग्रह

  • छाया
  • प्रतिध्वनि
  • आकाशदीप
  • आंधी
  • इंद्रजाल

उपन्‍यास

  • कंकाल
  • तितली
  • इरावती

काव्‍य

  • कामायनी
  • आंसू
  • लहर
  • झरना
  • कानन कुसुम
  • चित्राधार
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कामायनी: छायावाद का 'उपनिषद'

'कामायनी' आधुनिक काल का सबसे महत्‍वपूर्ण महाकाव्‍य तो है ही, साथ ही इसे इस दौर का सबसे अंतिम सफल महाकाव्‍य तक माना जाता है. इसे छायावाद का 'उपनिषद' भी कहा जाता है.

'कामायनी' में आदि मानव मनु और श्रद्धा की कहानी को काव्‍य में पिरोया गया है. पर इस क्रम में इन पात्रों के जरिए मानव के मन की परतों और उसमें पनप रही तरंगों को बखूबी सामने लाया है.

'कामायनी' को 15 सर्गों में बांटा गया है. इनके नाम रखे गए हैं- चिंता, आशा, श्रद्धा, काम, वासना, लज्जा, कर्म, ईर्ष्‍या आदि. इनमें कुछ सर्गों की लाइनें देखिए और कवि की भावनाओं में खो जाइए...

चिंता

सुरा सुरभिमय बदन अरुण,

वे नयन भरे आलस अनुराग।

कल कपोल था जहाँ बिछलता,

कल्पवृक्ष का पीत पराग।

विकल वासना के प्रतिनिधि,

वे सब मुरझाये चले गये।

आह जले अपनी ज्वाला से,

फिर वे जल में गले, गये।

आशा

जीवन-जीवन की पुकार है,

खेल रहा है शीतल-दाह।

किसके चरणों में नत होता,

नव-प्रभात का शुभ उत्साह।

मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों,

लगा गूँजने कानों में,

मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ'

शाश्वत नभ के गानों में।

लज्जा

मेरे सपनों में कलरव का

संसार आँख जब खोल रहा।

अनुराग समीरों पर तिरता था

इतराता-सा डोल रहा।

अभिलाषा अपने यौवन में

उठती उस सुख के स्वागत को।

जीवन भर के बल-वैभव से

सत्कृत करती दूरागत को।

काम

"मधुमय वसंत जीवन-वन के,

बह अंतरिक्ष की लहरों में।

कब आये थे तुम चुपके से,

रजनी के पिछले पहरों में?

क्या तुम्हें देखकर आते यों,

मतवाली कोयल बोली थी?

उस नीरवता में अलसाई,

कलियों ने आँखे खोली थीं?

जब लीला से तुम सीख रहे,

कोरक-कोने में लुक करना।

तब शिथिल सुरभि से धरणी में,

बिछलन न हुई थी? सच कहना।

वासना

सृष्टि हँसने लगी

आँखों में खिला अनुराग।

राग-रंजित चंद्रिका थी

उड़ा सुमन-पराग।

और हँसता था अतिथि

मनु का पकड़कर हाथ।

चले दोनों स्वप्न-पथ में

स्नेह-संबल साथ।

देवदारु निकुंज गह्वर

सब सुधा में स्नात।

सब मनाते एक उत्सव

जागरण की रात।

आ रही थी मदिर भीनी

माधवी की गंध।

पवन के घन घिरे पड़ते थे

बने मधु-अंध।

शिथिल अलसाई पड़ी

छाया निशा की कांत।

सो रही थी शिशिर कण की

सेज पर विश्रांत।

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'प्रयाणगीत' में कवि के ओजस्‍वी स्‍वर देखिए:

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से,

प्रबुद्ध शुद्ध भारती।

स्वयंप्रभा समुज्ज्वला,

स्वतंत्रता पुकारती॥

अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो।

प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो बढ़े चलो॥

असंख्य कीर्ति रश्मियाँ,

विकीर्ण दिव्य दाह-सी।

सपूत मातृभूमि के,

रुको न शूर साहसी॥

अराति सैन्य सिन्धु में, सुबाड़वाग्नि से जलो।

प्रवीर हो जयी बनो, बढ़े चलो बढ़े चलो॥

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