1 अप्रैल, 1911 को जन्मे केदारनाथ अग्रवाल को प्रगतिशील काव्यधारा के प्रमुख कवि के रूप में पहचान प्राप्त है. आधुनिक हिंदी साहित्य में प्रगतिशील कविता का अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान है. प्रगतिशील कविता में शीर्षतम कवि के रूप में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को ख्याति प्राप्त है, लेकिन उनके बाद जिस कवि का नाम आता है, उनका नाम केदारनाथ अग्रवाल है.
“अच्छी कविता तभी बनती है, जब कवि उसमें डूब जाता है और आए हुए आषाढ़ी बादल की तरह बरस पड़ता है.”केदारनाथ अग्रवाल
केदार जी ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं को अपनी लेखनी से समृद्ध करने का प्रयास किया और इसमें वे सफल भी रहे. उनके रचना-संसार पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि वे असाधारण सृजनशीलता एवं अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे. उनका पहला काव्य-संग्रह ‘युग की गंगा’ मार्च, 1947 में प्रकाशित हुआ था.
ऐसा माना जाता है कि केदार जी का यह काव्य-संग्रह हिंदी साहित्य के इतिहास का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है. प्रस्तुत हैं इस बहुमूल्य दस्तावेजी काव्य-संग्रह की कुछ पंक्तियां-
प्रकृति-सौंदर्य के रोमानी कवि
ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े होने के कारण केदार जी का बचपन से ही प्रकृति से अनन्य प्रेम एवं लगाव रहा. उनका सौंदर्य-बोध प्रकृति के सहज सजीव चित्रण पर आधारित है. उनकी कविताओं में प्रकृति की अभिव्यक्ति बिल्कुल नए तरीके से हुई है. उनकी कविताएं पढ़ने से पता चलता है कि उनके काव्य में प्रकृति-सौंदर्य की कोई सीमा ही नहीं है और इस तरह वे प्रकृति के रोमानी कवि बनकर उभरे हैं और इसे उन्होंने अपनी कविताओं में भी प्रकट किया-
किसानी को चाहने वाला अनोखा कवि
अगर हम देखें तो ग्रामीण पृष्ठभूमि से एक से बढ़कर एक साहित्यकार साहित्य-पटल पर आया और उसने अनेक महान रचनाएं रचकर न केवल धरती से जुड़े किसानी जीवन का सजीव चित्र उकेरा, बल्कि साहित्य को भी समृद्ध किया. इन साहित्यकारों में केदारनाथ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होंने किसानी जीवन पर अपनी कविताओं में विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है.
चूंकि किसान का पूरा जीवन उसकी धरती से जुड़ा रहता है और चाहे कैसा भी मौसम हो, वह परिश्रम करके धरती को उपजाऊ बनाता है और देश के लिए अन्न उगाता है. धरती-पुत्र किसान के बारे में उन्होंने कुछ इस प्रकार लिखा है-
‘कहां नहीं पराजित हो रहा मनुष्य’
केदार जी मार्क्सवादी साहित्य से बहुत प्रभावित थे. जब वे मार्क्सवादी दर्शन के संपर्क में आए तो उसने उनमें जनता के संघर्ष के प्रति आस्था को प्रगाढ़ कर दिया और इस तरह केदार जी ने थकी-हारी जनता को संबोधित करते हुए कई कविताएं रचीं. वे विपत्तियों से घिरी जनता के दुख-दर्द से क्षुब्ध होकर व्यंग्यात्मक लहजे में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहते हैं-
‘लंदन में बिक आया नेता, हाथ कटाकर आया’
चाहे वह अंग्रेजी राज रहा हो या स्वाधीन भारत का शासन, केदार जी ने मुखर होकर दोनों ही सत्ताओं के विरुद्ध आवाज बुलंद की. मार्क्सवादी दर्शन को अपने आदर्श के रूप स्वीकार करने वाले केदार जी ने अर्थनीति और राजनीति को शब्दों के पाश में जकड़ते हुए अपने विचार कविता के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किए हैं कि पढ़ने वाले का मन-मस्तिष्क झनझना उठे-
केदार जी ने लंबी कविताएं भी रचीं और छोटी कविताएं भी, लेकिन छोटी कविताओं की संख्या अधिक है. फिर भी कविता छोटी हो या लंबी, वे अपनी बात को कहने और समझाने में कामयाब दिखाई पड़ते हैं. इस बारे में उन्होंने अपने विचार कुछ इस प्रकार व्यक्त किए हैं-
“मेरी अधिकांश कविताएं छोटे कद की हैं. देखने में सहज व साधारण लगती हैं. न फैशनेबल हैं, न नाटकीय, मंचीय तो वह कतई नहीं हैं. कहने में जो कहती हैं, थोड़े में कहती हैं, विवेक से कहती हैं. ऐसे ढंग से कहती हैं कि कही बात खुल जाए, पूरी तरह से स्पष्ट हो जाए.”
केदार जी के साहित्य-संसार की विशालता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने काव्य-लेखन के साथ-साथ गद्य-लेखन भी किया. उनके लेखन में 20 से अधिक काव्य-संग्रह, निबंध-संग्रह, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, पत्र-संकलन और अनूदित कविता-संकलन इत्यादि सम्मिलित हैं.
उन्होंने अनूदित कविताओं के अंतर्गत पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत, मायकोवस्की एजरा पाउंड और पुश्किन आदि की कविताओं का अनुवाद किया है. उनके द्वारा अनूदित स्पैनिश कवि पाब्लो नेरूदा की एक कविता के कुछ अंश इस तरह हैं-
आजादी को नहीं, बचाना होगा केले,
और सोमोजा काफी होगा इसके खातिर
यही बड़े विजयी विचार सब
ग्रीस, चीन में पैठ गए हैं
ताकि वहां की सरकारों को मदद प्राप्त हो
जो कि मलिन दरियों के सम ही दागदार हैं
अरे सिपाही!
‘फूल नहीं, रंग बोलते हैं’, ‘अपूर्वा’, ‘गुलमेंहदी’, ‘लोक और आलोक’, ‘आग का आईना’ तथा ‘पंख और पतवार’ केदार जी के प्रमुख काव्य-संग्रह हैं. ‘फूल नहीं, रंग बोलते हैं’ के लिए उन्हें ‘सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया, जबकि ‘अपूर्वा’ के लिए उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ. इसके अलावा उन्हें ‘हिंदी संस्थान पुरस्कार’, मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार’ इत्यादि से भी सम्मानित किया गया.
उनके बारे में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनकी कविताओं को भारत के बाहर भी खूब पसंद किया गया है. यही कारण है कि उनकी कविताओं का रूसी, अंग्रेजी, जर्मन और चेक भाषाओं में अनुवाद किया गया है.
22 जून, 2000 को यह ‘कलम का सिपाही’ इस दुनिया से कूच कर गया और पीछे छोड़ गया इतना विशाल साहित्य-संसार कि जहां से उनके शब्द बाहर निकलकर कभी ‘किसानी संघर्ष’ को हिम्मत बंधाते प्रतीत होते हैं, तो कभी लाचार-मजबूर वर्ग की आवाज को बुलंद करते प्रतीत होते हैं.
(एम.ए. समीर कई वर्षों से अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों से लेखक, संपादक, कवि एवं समीक्षक के रूप में जुड़े हैं. देश की विभिन्न पत्रिकाओं में इनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं. 30 से अधिक पुस्तकें लिखने के साथ-साथ अनेक पुस्तकें संपादित व संशोधित कर चुके हैं.)
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