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विद्यासागर कौन थे, जिनकी मूर्ति टूटने पर बंगाल में आया ‘भूचाल’ 

विद्यासागर समाज-सुधार के लिए शास्त्रों की अपील पर भरोसा करने के बजाय सहज बुद्धि, तर्क-विवेक पर भरोसा करना चाहते थे

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ईश्वरचंद्र विद्यासागर उन लोगों में से थे, जिनके बारे में कहा जाता है कि होनहार बीरवान के होत चीकने पात. साथ ही, वे उनमें से नहीं थे, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे मुंह में चांदी का चम्मच लेकर जन्मे हैं. उन्हें रवीन्द्रनाथ या राममोहन राय जैसा आर्थिक रूप से संपन्न जीवन नहीं मिला था. वे उन लोगों में से नहीं थे, जो हिन्दू चिंतन-परंपरा की अधकचरा जानकारी के आधार पर उसकी निंदा-प्रशंसा करते रहते हैं.

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वे ऐसे संस्कृत पंडित थे, जो इस बात के लिए पारंपरिक पंडितों की निंदा कर सकते थे कि वे आधुनिक वैज्ञानिक सत्यों का अनुसंधान करने की बजाय इस झूठे अभिमान में डूबे रहते हैं कि सारा ज्ञान-विज्ञान तो हमारे शास्त्रों में से पहले से ही मौजूद है.

यह बात उन्होंने बनारस संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल जेआर बैलेंटाइन द्वारा संस्कृत पांडित्य-परंपरा की अंधाधुंध प्रशंसा से चिढ़ कर कही थी.

एक बार, जब उन्हें सलाह दी गयी कि काशी-विश्वनाथ की तीर्थयात्रा कर लें, तो उनका जबाव था कि मेरे लिए मेरे पिता ही विश्वनाथ हैं और मां साक्षात देवी अन्नपूर्णा. विद्यासागर ने अपना अंत समय किसी तीर्थ-नगरी में नहीं, करमातर के संथालों की सेवा में बिताया.

सहज बुद्धि, तर्क और विवेक पर निरंतर बल देने वाले, यूरोपीय और पारंपरिक दोनों तरह के ज्ञान में गहरा दखल रखने वाले, अपने ज्ञान को समाज-हित में बरतने वाले, निंदा-प्रशंसा की परवाह किये बिना समाज को अधिक मानवीय बनाने की आजीवन तपस्या करने वाले इंसान थे वो. देशप्रेम का अर्थ होता है देशवासियों से प्रेम- इस बात को जीवन में उतारने वाले ईश्वरचंद्र विद्यासागर सच में अनोखे इंसान थे. टैगोर के अनुसार, करोड़ों में एक इंसान.

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ईश्वरचंद्र विद्यासागर के बारे में मैंने सबसे पहले, शायद आठ-नौ साल की उम्र में गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित बच्चों की किसी किताब में पढ़ा था. वही मशहूर घटना कि एक साहब विद्यासागर से मिलने उनके गांव पहुंचे, जहां विद्यासागर बहुत समय बिताते थे. स्टेशन छोटा सा, साहब को कुली की दरकार. साधारण से कपड़े पहने एक आदमी दिखा, हुक्म दिया, “ ऐ चल, सामान उठाकर विद्यासागरजी के घर ले चल.” अगले ने सामान उठाया, चल पड़ा, पीछे पीछे साहब, देहाती दुनिया का नजारा लेते हुए. घर के सामने पहुंच कर कुली ने कहा, यह रहा घर और मैं हूं विद्यासागर, बताइए क्या सेवा करूं?”

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वह साहब भी उतने बेशर्म नहीं थे, उन्होंने पांव छू कर माफी मांगी. 26 सितंबर, 1819 को जन्मे विद्यासागर उस वक्त आठ साल के थे, जब वे पहली बार अपने पिता ठाकुरदासजी के साथ अपने गांव बीरसिंह से कोलकाता पहुंचे थे. रास्ते में सियालखा से सलकिया तक की उन्नीस मील की दूरी में मील के पत्थरों को पढ़ते-पढ़ते उन्होंने अंग्रेजी में लिखे जाने वाले अंक सीख लिये थे.

वे एक अत्यंत सम्मानित, लेकिन गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे. कड़ी मेहनत से पारंपरिक और आधुनिक, दोनों तरह की शिक्षा हासिल की. संस्कृत कॉलेज कोलकाता के प्रिंसिपल बने. अपनी विद्वता और प्रशासन-क्षमता का, साथ ही स्वतंत्र सोच-विचार का लोहा मनवाया. रिटायरमेंट के बाद हाईकोर्ट के जज का यह अनुरोध ठुकरा दिया कि अब वकालत करने लगें, क्योंकि उनके जैसा हिन्दू धर्मशास्त्र (कानून) का जानकार मिलना मुश्किल है.

यह बहुत विचारोत्तेजक बात है कि शुरुआत में विद्यासागर समाज-सुधार के लिए शास्त्रों की अपील पर भरोसा करने की बजाय सहज बुद्धि और तर्क-विवेक पर भरोसा करना चाहते थे. 1851 में उन्होंने बाल-विवाह के विरुद्ध निबंध लिखा, ‘बाल-विवाह के दोष’. इसमें उन्होंने बाल-विवाह के विरुद्ध शास्त्रों या स्मृतियों से प्रमाण नहीं दिये, उलटे कहा, “दुर्भाग्य है कि रीति-रिवाज और शास्त्रों के बंधन से बंधे होने के कारण हम बाल-विवाह जैसी प्रथा के फेर में पड़े हुए हैं, जिससे पैदा होने वाले दुखों का कोई अंत नहीं है.”

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विद्यासागर यहां कितने अलग दिखते हैं स्वामी दयानंद सरस्वती और राजा राममोहन राय से. वे कुप्रथा का खंडन यह कहकर नहीं कर रहे कि वह शास्त्र विरुद्ध है, बल्कि यह कह कर रहे हैं कि वह सहज बुद्धि और मानवता के विरुद्ध है. लेकिन जल्दी ही विद्यासागर को लगा कि शास्‍त्र-परंपरा में स्वयं को स्थापित किये बिना कुरीतियों से संघर्ष बहुत दूर तक नहीं जा पाएगा.

‘ बाल-विवाह के दोष’ के पांच ही साल बाद, विधवा-विवाह और लड़कियों की शिक्षा के पक्ष में जनमत बनाने के लिए विद्यासागर ने शास्त्रों का सहारा लिया, खासकर पराशर स्मृति का. फिर भी विवेक और अनुभव पर उनका जोर बना ही रहा. वे शास्‍त्रों का उपयोग समाज को अधिक मानवीय बनाने के लिए कर रहे थे, अतीत के अंधाधुंध महिमामंडन के लिए नहीं. “हमारे यहां तो सब कुछ पहले से मौजूद है” — ऐसी सोच से तो उन्हें चिढ़ थी.

विद्यासागर ने औरतों की हालत सुधारने के लिए, उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए, सोशल एक्टिविस्ट की भी भूमिका भी निभाई. जरूरी कानून बनें, उन पर अमल हो, इसके लिए काम किया. विरोध का मुकाबिला करते हए अपनी पहलकदमी पर विधवा-विवाह कराए, कई विधवाओं के मां-बाप दोनों की भूमिका निभाई.

वे जो थोड़े से आत्मकथात्मक नोट्स छोड़ गये हैं, उनसे मालूम होता है कि उनके मन में न केवल अपनी मां के प्रति, बल्कि रायमणि देवी के प्रति भी कितनी गहरी कृतज्ञता थीं, जिनके घर में विद्यासागर कई बरस रहे. रायमणि देवी उन जगत-दुर्लभ चौधरी नामक सज्जन की विधवा बहन थीं. उन 'देवी स्वरूपा' महिला की याद आने पर विद्यासागरजी की आंखों में आभार के आंसू आए बिना नहीं रहते थे.

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यह आभार उन्होंने केवल आंसुओं और शब्दों में नहीं, कर्मों में व्यक्त किया. उन्होंने बांग्‍ला भाषा के शिष्ट और साधारण रूपों का भेद मिटाने की भी कोशिश की, अपने लेखन के जरिए भी और लेखकों को प्रोत्साहित करके भी. ‘वर्ण-परिचय’ नामक पुस्तक में राखाल-गोपाल की जोड़ी के जरिए उन्होंने बच्चों को केवल भाषा का ही नहीं, अच्छे-बुरे का भी बोध दिया.

विद्यासागर सही मायने में समाज के नेता थे. सामाजिक सुधारों के साथ ही, सामाजिक विपदा के पलों में भी वे पीछे नहीं रहते थे. 1865 के अकाल के दौरान जो लंगर उन्होंने अपने गांव में चलाया, वह साल भर तक चलता ही रहा. बर्दवान में फैली महामारी के दौरान सरकार से पहले ही विद्यासागरजी ने वॉलंटियर दल खड़ा करके महामारी की चपेट से लोगों को बचाया. उनका कर्ज केवल बंगाल पर नहीं, सारे भारत पर है.

और उनके निधन ( 29 जुलाई, 1891) के कोई सवा सौ साल बाद, 14 मई, 2019 के दिन कोलकाता में किस शानदार तरीके से यह कर्ज चुकाया गया. राष्ट्रवाद के नाटक में एक दृश्य राष्ट्र के सच्चे सपूत के अपमान का भी खेला गया. विद्यासागर बाबा! मूर्खता का उत्सव मनाते इस अभागे समय में जी रहे हम लोग क्षमा-याचना करते हैं तुम से और अपने दूसरे पुरखों से.

यह धतकर्म करने वाले अपराधी हैं, वे आक्रामक मूर्खता के नशे के एडिक्ट भी हैं. जो यह एडिक्शन समाज में फैला रहे हैं. इस भयानक अपराध की जिम्मेवारी लेकर पछताने के बजाय, समाज से माफी मांगने की बजाय लीपा-पोती कर रहे हैं, वे केवल अपराधी नहीं, बल्कि पापी भी हैं. यह फैसला समाज को करना है कि वह इस पाप से मुक्ति चाहता है या इसी में डूबे रहना.

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