एक दबी हुई आंख की वो नफरत भरी निगाह...चेहरे पर वो डरावने भाव...और जुबां पर बहु को कोसते हुए वो कर्कश अल्फाज- "अरी कलमुंही"...यही थी ललिता पवार की अदाकारी की वो अदाएं, जिसने उन्हें बॉलीवुड में सबसे ज्यादा क्रूर सास होने की पहचान दिलाई. हालांकि ललिता पवार के दौर के बाद भी अरुणा ईरानी और बिंदु ने हिंदी फिल्मों में 'जुल्मी सास' के किरदार की कमान बखूबी संभाली थी, लेकिन वो ललिता पवार के आगे कमतर ही साबित हुईं. जिस शिद्दत से ललिता पवार ने इस इमेज में खुद को ढाला, वो भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुआ.
बाल कलाकार के तौर पर शुरुआत
18 अप्रैल 1916 को नासिक में जन्मीं ललिता पवार को 11 बरस की उम्र में एक बार पिता और छोटे भाई के साथ पुणे जाना का मौका मिला. यहां वो आर्यन फिल्म कंपनी के स्टूडियो में एक फिल्म की शूटिंग देखने गयीं. वहां निर्देशक नाना साहेब सरपोतदार की नजर उन पर पड़ी और उन्होंने ललिता को फिल्मों में बाल भूमिकाएं करने का ऑफर दिया.
पिता पहले राजी नहीं थे, लेकिन बाद में मान गए. कंपनी ने उन्हें 18 रुपए की मासिक सैलरी पर नौकरी दे दी. साल 1927 में बतौर बाल कलाकार ललिता की पहली फिल्म एक सायलेंट फिल्म थी, जिसका नाम था ‘पतित उद्धार’. ललिता ने इस कंपनी के लिए करीब 20 फिल्मों में काम करने के बाद नौकरी छोड़ दी और बाहर की फिल्मों में भी काम करना शुरू कर दिया.
ललिता पवार ने अपनी दमदार एक्टिंग से दर्शकों के बीच एक अलग पहचान बनाई. अपने 60 साल से ज्यादा लंबे करियर में उन्होंने 700 से ज्यादा फिल्मों में काम किया, जिनमें हिंदी, मराठी और गुजराती फिल्में शामिल हैं.
आवाज और अदाकारी ने दिलाई शोहरत
1931 में ‘आलम आरा’ के रिलीज के साथ सायलेंट फिल्मों का दौर खत्म हुआ और फिल्मों को आवाज मिल गई. बोलती फिल्मों के उस शुरुआती दौर में कलाकारों को अपने गीत खुद गाने पड़ते थे. ललिता पवार अच्छी गायिका थीं, तो इसका फायदा उन्हें मिला. उन्होंने कई फिल्मों के लिए गाने गए, जो काफी मशहूर हुए. इसके अलावा ललिता ने ‘मस्तीखोर माशूक’(1932), ‘भवानी तलवार’(1932), ‘कैलाश’(1932), ‘प्यारी कटार’(1933), ‘जलता जिगर’(1933), ‘नेक दोस्त’(1934) और कातिल कटार’(1935) जैसी फिल्मों में हीरोइन के तौर पर लीड रोल निभाकर काफी शोहरत हासिल की.
हादसे ने तोड़ा सपना
ललिता हीरोइन बनने के अपने सपने को बखूबी जी रही थीं, लेकिन उनका यह सपना एक हादसे की वजह से चकनाचूर हो गया. बात साल 1942 की है. 'जंग-ए-आजादी' फिल्म की शूटिंग चल रही थी. फिल्म के एक सीन में भगवान दादा को ललिता पवार को थप्पड़ मारना था. भगवान दादा से दूरी का सही अंदाजा लगाने में चूक हुई और उन्होंने दुर्घटनावश ललिता पवार को इतनी तेज थप्पड़ मार दिया, कि वो जमीन पर गिर पड़ीं. उनकी बायीं आंख की एक नस फट गयी. यहीं से उनकी जिंदगी ने एक नया मोड़ लिया.
इस हादसे की वजह से उनके शरीर के बाएं हिस्से में लकवा मार गया. तीन साल तक उनका इलाज चला. वो ठीक तो हो गयीं, लेकिन उनकी बायीं आंख हमेशा के लिए दब गयी. इसके बाद उन्हें फिल्मों में हीरोइन का रोल मिलना बंद हो गया, और उनका करियर ‘स्टीरियोटाइप’ किरदारों के लिए सीमित हो गया.
कमजोरी को बनाई ताकत
हादसे से उबरने के बाद ललिता पवार की दबी हुई आंख ही उनकी सबसे प्रमुख और यादगार खासियत बन गई, और उन्होंने इसी के बलबूते फिल्मों में बेहतरीन करेक्टर आर्टिस्ट के तौर पर पांव जमा लिया. अनाड़ी, श्री 420, प्रोफेसर, मेम दीदी, औरत और मिस्टर एंड मिसेस 55 जैसी फिल्मों में यादगार काम किया. ललिता ने टीवी पर भी अपनी एक्टिंग का लोहा मनवाया, जब उन्होंने रामानंद सागर की रामायण में मंथरा का जबरदस्त अभिनय किया.
मौत के वक्त कोई नहीं था साथ
बॉलीवुड इंडस्ट्री का एक स्याह चेहरा है. यहां सिर्फ चमकते सूरज को ही सलाम किया जाता है. 700 से ज्यादा फिल्मों में जिसने सबका मनोरंजन किया, उसे अपने आखिरी पलों में किसी का साथ नसीब नहीं हुआ. 24 फरवरी 1998 को ललिता पवार ने पुणे में अपने घर में अकेले रहते हुए ही दुनिया से विदा ले ली. उस समय उनके पति राजप्रकाश अस्पताल में भर्ती थे और बेटा अपने परिवार के साथ मुंबई में था. उनकी मौत की खबर तीन दिन बाद मिली जब बेटे ने फोन किया और किसी ने उठाया नहीं. घर का दरवाजा तोड़ने पर पुलिस को ललिता पवार की तीन दिन पुरानी डेड बॉडी मिली.
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