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जब अशोक कुमार ने अपने अजीज दोस्त मंटो को पहचानने से इनकार कर दिया

‘मंटो’ ने एक बार खुद के बारे में कहा था, “ऐसा होना मुमकिन है कि सआदत हसन मर जाए और मंटो जिन्दा रहे.

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सआदत हसन अली 'मंटो' ने एक बार खुद के बारे में कहा था, "ऐसा होना मुमकिन है कि सआदत हसन मर जाए और मंटो जिंदा रहे." और इत्तेफाक देखिए कि ऐसा हो गया. मंटों की हजारों छवियां हैं. सकीना की खुली सलवार के जरिए हमारी तहजीब की धज्जियां उड़ा मंटों जो बड़ी अकड़ के साथ कहता था, "मैं सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्जियों का काम है.” या फिर टोबा टेक सिंह की तरह नो मैंस लैंड पर खड़ा होकर बदहवासी की हालत में विभाजन के कत्ल-ओ-गारत को देखता मंटो.

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जिस मंटो पर फिल्म बन रही है, किसी दौर में मंटो इसी शहर की गलियों में आवारा की तरह भटका करते थे. वो खुद को 'चलता-फिरता बॉम्बे' कहते थे. विभाजन के बाद उन्हें बॉम्बे छोड़ना पड़ा. मंटो की कलम ने इतिहास के इस नाजुक मौके को कुछ इस तरह दर्ज किया-

“मेरे लिए ये तय करना नामुमकिन हो गया है, कि दोनों मुल्कों में अब मेरा मुल्क कौन-सा है. बड़ी बेरहमी के साथ हर रोज जो खून बहाया जा रहा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? अब आजाद हो गए हैं लेकिन क्या गुलामी का वजूद खत्म हो गया है? जब हम गुलाम थे तो आजादी के सपने देख सकते थे, लेकिन अब हम आजाद हो गए हैं तब हमारे सपने किसके लिए होंगे?”

मंटो पाकिस्तान छोड़कर चले तो गए थे लेकिन उनका बॉम्बे उनके साथ ही नत्थी होकर चला गया था. बॉम्बे छोड़ने के करीब पौने चार साल बाद उन्होंने लाहौर की एक साहित्यिक महफिल में मंटो अपने बारे यह कहते हुए पाए गए कि वो खुद चलता-फिरता बॉम्बे हैं. बाद में उन्होंने मीना बाजार नाम से एक किताब लिखी. इसमें उन्होंने अशोक कुमार, नूरजहां, नरगिस जैसे चोटी के सितारों के साथ बिताए वक्त का जिक्र किया है.

जब अपनी मां को लेकर मंटो के घर पहुंच गईं नरगिस

किस्सा तब का है जब मंटो फिल्मिस्तान स्टूडियो में काम किया करते थे और अपनी बीवी साफिया और दो सालियों के साथ बायकला चौक के पास रहा करते थे. जिस समय वो अपने दफ्तर में हुआ करते थे पीछे से उनकी बीवी और दोनों सालियां मजे के लिए अलग-अलग फिल्मी हस्तियों के घर फोन लगाकर खूब बातें किया करतीं. इस दौरान वो अपनी पहचान छुपाए रहतीं. ऐसे ही मजे-मजे में उन्होंने एक बार नरगिस के यहां फोन मिला दिया. मंटो की सालियां और नरगिस हमउम्र थीं. तीनों में खूब पटरी बैठने लगी. बातचीत का सिलसिला मुलाकात के नुक्ते पर आकर ठहर गया . मंटो की सालियों ने नरगिस को घर आने का न्योता दिया.

उस समय तक फिल्म में काम करने वाली औरतों को बुरी नजर से देखा जाता था. ऊपर से नरगिस की मां जद्दन बाई बॉम्बे की मशहूर तवायफ रही थीं. यह वो तथ्य था जो ‘अच्छे घर की औरतों’ को नरगिस की सोहबत से रोकता था. मंटो को उनकी मुलाकात के बारे में मालूम ना चल जाए इसलिए साफिया और उनकी बहनों ने नरगिस को दोपहर में अपने घर बुलाया था.

इत्तफाकन मंटो उसी रोज फिल्मिस्तान से दोपहर में ही घर लौट आए. इधर नरगिसस अपनी मां के साथ एक लंबी सी कार में बायकला चौक पर खड़ी थीं, उधर मंटो की आमद की वजह से साफिया अपने घर में घबराई सी खड़ी थीं. मंटो को जब पूरे मामले की जानकारी मिली तो खुद नरगिस को लेने बायकाला चौक पहुंच गए. यह नरगिस की उनके घर में पहली आमद थी. इसके बाद वो कभी भी उनके घर आ धमकतीं.

अब तक नरगिस तकदीर, हुमायूं और रामायणी जैसी फिल्मों की वजह से काफी नाम कमा चुकी थीं वो मंटो की नजर में कच्ची अदाकारा थीं. उनकी अदाकारी का जिक्र करते हुए मंटो लिखते हैं-

“नरगिस की अदाकारी के बारे में मेरा ख्याल बिल्कुल अलग था. वह जज्बात और अहसास को ठीक तरीके से उकेर नहीं पाती थी. मुहब्बत की नब्ज किस तरह चलती है, यह अनाड़ी उंगलियां कैसे महसूस कर सकती थीं. इश्क की दौड़ में थककर हांफना और स्कूल की दौड़ में थककर सांस फूलना दो बिल्कुल मुख्तलिफ चीज थी. मेरा ख्याल है कि नरगिस भी इस फर्क से आगाह नहीं थी.”
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जब शूटिंग के पहले ही दिन गोला मार कर नूरजहां व्हिस्की पीने बैठ गईं

हिंदी सिनेमा के शुरुआती दिनों में ज्यादातर अदाकारा कोठे या पारसी थियेटर से होते हुए सिनेमा के परदे पर पहुंचा करती. नूरजहां भी उसी पीढ़ी की अदाकारा थीं, जिन्होंने अपनी एक्टिंग की बजाय आवाज के लिए नाम कमाया था. मंटो के शब्दों में कहा जाए तो उनकी आवाज कयामतखेज थी. मंटो अपनी किताब में नूरजहां के साथ एक ऐसी महफिल का जिक्र करते हैं, जब नूरजहां शूटिंग के पहले ही दिन सेट पर जाने की बजाय उनके साथ बैठकर व्हिस्की के घूंट भर रही थीं. हालांकि मंटो इस महफिल में इत्तेफाक से पहुंचे थे, लेकिन इसके बाद जो वाकया उस महफिल में पेश आया वो बहुत दिलचस्प था.

हुआ यूं कि नूरजहां उस समय नूरजहां को बॉम्बे आए हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ था. इससे पहले लाहौर में रहने के दौरान उन्होंने फिल्म खानदान के जरिए काफी शोहरत हसिल कर ली थी. बॉम्बे आने पर फिल्म प्रोड्यूसर वीएस व्यास ने उन्हें अपनी एक फिल्म में काम दे दिया. फिल्म की शूटिंग का पहला ही दिन था और नूरजहां सेट से गायब थीं.

इधर मंटो किसी काम से अपने दोस्त रफीक गजनवी के घर पहुंचे. वहां पहले महफिल चल रही थी. गजनवी के अलावा इस महफिल में मौजूद थे नूरजहां के मैनेजर निजामी, अनुराधा और नूरजहां. चारों लोग बैठकर व्हिस्की पी रहे थे कि फोन की घंटी बजी. दूसरी तरफ थे परेशान हाल श्रीमान व्यास. उन्होंने फोन पर नूरजहां के बारे में पूछा तो निजामी के इशारे पर अनुराधा ने साफ मना कर दिया.

हारमोनियम लेकर ठुमरी गाने लगीं. बोल थे, "मेरे नैन काजर बिन कारे". वो गाने में मशगूल थीं और इधर व्यास की कार घर के पोर्च में दाखिल हो चुकी थी. व्यास की आमद के बारे में जानकर एक बार सबके हलक सूख गए. निजामी ने धीरे से नूरजहां से कहा कि वो पेट पकड़कर लेट जाएं.

व्यास जब कमरे में दाखिल हुए तो उन्होंने नूरजहां को दर्द से कराहते पाया. नूरजहां के मैनेजर निजामी ने बड़ी बेचारगी के साथ व्यास को बताया कि नूरजहां 'औरतों वाली तकलीफ" झेल रही हैं. यह बात चल ही रही थी कि तभी अनुराधा किचन से गर्म पानी की बोतल ले आईं. व्यास के पास कोई चारा नहीं बचा और वो भन्नाते हुए वहां से चले गए. मंटो लिखते हैं-

“यह था जीते-जागते, सौ फीसदी हकीकी ड्रामे की झलक. सेठ वीएम व्यास के जाने के बाद सबकी जान में जान आई.”
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3. जब मंटो ने अशोक कुमार को दादामुनि कहना शुरू किया

अपनी किताब में अशोक कुमार को अपना जिगरी दोस्त बताते हैं. अशोक कुमार के हवाले से उनके पास दर्जनों किस्से हैं, जिसमें उनके असफल प्रेम और फैंस के बीच घिर जाने के ब्योरे मौजूद हैं. मंटों एक जगह जिक्र करते हैं कि अशोक कुमार और मंटो 'उम्र में कौन बड़ा है?' के सवाल पर बच्चों की तरह झगड़ पड़े थे. मंटो के मुताबिक एक बार अशोक कुमार ने उन्हें हिदायत दी कि वो उन्हें "दादा मुनि" कह कर बुलाया करें. इस पर मंटो ने एतराज जताते हुए कि वो अशोक कुमार से ज्यादा उम्रदराज हैं. मंटो लिखते हैं-

“दोनों की उम्र का हिसाब किया गया. वह मुझसे दो माह और कुछ दिन बड़ा निकला. चुनांचे मुझे उसे अशोक या मिस्टर गांगुली की जगह दादा मुनि कहना पड़ा. यह मुझे पसंद भी था क्योंकि इसमें बंगालियों की महबूब मिठाई रसगुल्ले की मिठास और गोलाई थी.वह मुझे पहले मिस्टर मंटो कहा करता था. जब उससे दादा मुनि कहने का मुआहदा हुआ तो वह मुझे मंटो कहने लगा.”

यह अजीब बात है कि मंटो किताब में जहां अशोक कुमार को अपना अजीज दोस्त बताते हैं वहीं अशोक कुमार एक मौके पर उनको पहचानने से भी इनकार कर चुके हैं. मंटो को लेकर अशोक कुमार के इस भुल्लकड़पने का जिक्र हमें मिलता है दूरदर्शन के पत्रकार रहे शरद दत्त के लेख में. बीबीसी पर छपे इस लेख में शरद कहते कि मंटो के गुजरने के सालों बाद उन्होंने अशोक कुमार का इंटरव्यू किया था. जब उनसे मंटो के साथ उनके रिश्तों के हवाले से सवाल पूछा गया तो पहली बार में उन्होंने किसी मंटो को पहचानने से ही इनकार कर दिया. फिल्मिस्तान और बॉम्बे टॉकीज के दिनों की याद दिलाने पर उन्होंने सपाट लहजे में कहा, " वो शराब बहुत पीते थे और अश्लील कहानियां लिखते थे."

अशोक कुमार ने मंटो के बारे में जो कहा वो उनके बारे में सबसे ज्यादा दोहराया जाने वाले बयान है. हालांकि यह इंटरव्यू मंटो के जाने के काई साल बाद हुआ था लेकिन मंटो ने अपने जीते-जी इस किस्म के इल्जामों को झेला था. वो कहा करते थे-

“जमाने के जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, अगर आप उससे वाकिफ नहीं तो मेरे अफसाने पढ़िए और अगर आप इन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि जमाना नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है.”

फिर भी अशोक कुमार ने मंटो की याद को जिस तरह से बोदा किया उससे बेहतर था कि वो उन्हें भूल ही गए होते.

यह भी पढ़ें: ...गर इस्मत से निकाह होता तो हम दोनों खाक हो जाते: मंटो

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