एक स्वतंत्रता सेनानी, एक उद्योगपति और एक मीडिया बैरन – ये था रामनाथ गोयनका का परिचय, जिन्होंने अपने जीवनकाल में ही कई खिताब अपने नाम जोड़ लिए थे. 85 साल पुराने 'इंडियन एक्सप्रेस' ग्रुप के संस्थापक और संरक्षक को 'सच्चे स्वतंत्रता सेनानी और रूढ़ीवाद के कट्टर विरोधी' के रूप में याद किया जाता है. वो एक ऐसे इंसान थे, जिसमें 'सच्चाई के लिए सीना तानकर खड़ा होने का साहस था.'
रामनाथ गोयनका ने अपना करियर अखबार बांटने वाले के रूप में शुरू किया और आगे चलकर वे नेशनल न्यूजपेपर्स एडिटर्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष बन गए. उन्हें सबसे ज्यादा याद किया जाता है, जब 1975 में इन्दिरा गांधी की अगुवाई में कांग्रेस सरकार ने देश में आपातकाल लगा दिया था और वो प्रेस की आजादी के लिए सरकार से दो-दो हाथ करते रहे.
उन दिनों अधिकतर न्यूज संगठनों को या तो डरा-धमकाकर रखा गया था या केन्द्र सरकार का प्रवक्ता बना दिया गया था. लेकिन गोयनका की अगुवाई में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ सरकार से लोहा लेता रहा. सेंसरशिप को नजरंदाज कर वो न्यूज आर्टिकल छापते रहे. अचानक बिजली जाना और सरकार की मांगों को पूरा न करने के कारण ग्रुप पर भारी जुर्माना लगाने जैसे जुल्मों के बीच उनका संघर्ष बदस्तूर जारी रही. आपातकाल के विरोध में एक दिन गोयनका ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का एडिटोरियल कॉलम खाली रहने का हुक्म दिया. आज तक माना जाता है कि ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का ये तरीका, शब्दों का इस्तेमाल कर विरोध जताने का ज्यादा प्रभावशाली तरीका था.
इसका श्रेय निश्चित रूप रामनाथ गोयनका को देना चाहिए. उनके बिना हम कुछ नहीं कर सकते थे. हमारा फ्रंट पेज खाली नहीं था, लेकिन हमने दो कॉलम खाली छोड़े. वो हमारा विरोध था. उस वक्त किसी अखबार ने ये कदम नहीं उठाया था.आपातकाल के दौरान ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के सम्पादक कुलदीप नय्यर ने Livemint को बताया
आपातकाल के खिलाफ लगातार संघर्ष
'इंडियन एक्सप्रेस' के सहायक सम्पादक कूमी कपूर आपातकाल के दौरान गोयनका की अगुवाई में काम करने वाले एक युवा पत्रकार थे.
रामनाथ गोयनका एक नायाब अखबार बैरन थे, जिनकी सोच सिर्फ सरोकार ही नहीं थी.कूमी कपूर, सहायक सम्पादक, द इंडियन एक्सप्रेस
अपनी किताब ‘Emengence: A Personal History’ में कूमी कपूर, गोयनका और आपातकाल के खिलाफ उनके संघर्ष के बारे में विस्तार से लिखते हैं.
कपूर के मुताबिक इन्दिरा गांधी सरकार का पहला कदम अखबारों के चेन पर कब्जा करना था. एक अनुमान के मुताबिक उस वक्त 50 लाख से ज्यादा लोग अखबार पढ़ते थे.
तत्कालीन वित्त मंत्री सी सुब्रह्मण्यम ने गोयनका से भी सम्पर्क किया और उनसे कांग्रेस या उसके किसी प्रतिनिधि को अखबार बेचने के लिए तैयार रहने को कहा. गोयनका ने उनकी मांग ठुकरा दी. नतीजा ये निकला कि सरकार ने अखबार के खिलाफ सख्त कदम उठाए.
जब 'इंडियन एक्सप्रेस' ने 'हिन्दुस्तान टाइम्स' से मदद मांगी
आपातकाल के दौरान सूचना और प्रसारण मंत्री वीसी शुक्ला ने ऐलान किया कि सरकार अखबारों की अनियमितता की जांच शुरू करेगी. जब 'इंडियन एक्सप्रेस' ने अदालत का दरवाजा खटखटाया तो सरकार ने गोयनका को धमकाया कि उनकी पत्नी और बेटे को मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया जाएगा.
डावांडोल वित्तीय हालत और 4 करोड़ कर के भार तले दबे गोयनका ने मदद के लिए केके बिड़ला से सम्पर्क किया, जो हिन्दुस्तान टाइम्स के मालिक और ‘आपातकाल के कट्टर समर्थक’ थे.
इसके बाद सरकार ने 11 सदस्यों की कमेटी 'द इंडियन एक्सप्रेस' बोर्ड के डायरेक्टर के रूप में मनोनीत की. गोयनका को पांच लोगों को चुनने की इजाजत मिली, जबकि छह सदस्य सरकार ने चुने. इनमें अध्यक्ष के रूप में केके बिड़ला, कांग्रेस नेता कमलनाथ और उस वक्त केरल कांग्रेस के युवा नेता एके एंटनी शामिल थे.
फिर भी सरकार 'द इंडियन एक्सप्रेस' के काम से संतुष्ट नहीं थी, क्योंकि उसने सरकार की मांगें ठुकरा दी थीं. इसी दौरान गोयनका को दिल का दौरा पड़ा और माना जाने लगा कि सरकार की मनोनीत कमेटी अखबार पर पूरी तरह कब्जा कर लेगी.
लेकिन बोर्ड की एक बैठक में अचानक गोयनका उम्मीद के विपरीत धमक गए और अखबार पर अपना कब्जा बरकरार रखा.
‘मेरे दिल की सुनो’
18 अगस्त, 1976 को इन्दिरा गांधी सरकार ने प्री-सेंसरशिप लागू किया. इसके मुताबिक छपाई से पहले अखबारों को सरकार को दिखाना होता था. इसका मतलब था अखबारों की छपाई में देरी होना, जिससे डिस्ट्रीब्यूशन प्रभावित होता. ये बताने की जरूरत नहीं कि अखबार में क्या छपना है और क्या नहीं छपना है, उन आदेशों का भी पालन करना था.
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एक बार फिर 'द इंडियन एक्सप्रेस' इस आदेश को कोर्ट में चुनौती देने वाला इकलौता अखबार था.
सरकार जानती थी कि इस केस का नतीजा उसके खिलाफ आएगा. लिहाजा 30 दिसम्बर 1976 को प्री-सेंसरशिप आदेश वापस ले लिया गया. लेकिन उसके बाद से ‘इंडियन एक्सप्रेस’ पर कई बार प्रतिबंध लगाए गए.कूमी कपूर
अभी सेंसरशिप लगा हुआ ही था कि गोयनका की अगुवाई में अखबार ने अपना मौन तोड़ा और जनवरी 1977 से आर्टिकल के सीरीज छापने शुरू किये. इनका विषय आपातकाल का कड़वा सच और इससे आम आदमी की परेशानी थी.
‘’मेरे पास दो विकल्प थे: अपने दिल की बात सुनना या अपने बटुए की. मैंने दिल की बात सुनना स्वीकार किया.” जब गोयनका से पूछा गया कि 1975 में लगाए आपातकाल के खिलाफ वो क्यों इतने मुखर थे, तो यही उनका जवाब था.
अखबार बांटने वाले से मीडिया बैरन तक का सफर
रामनाथ गोयनका का जन्म 1904 में बिहार के दरभंगा में एक मारवाड़ी परिवार में हुआ था. युवावस्था में उन्हें काम करने के लिए अपने मामाओं के पास कलकत्ता भेज दिया गया, जो वहां सूत और सूत के बने सामानों के सबसे बड़े कारोबारी थे. 1922 में उनके मामाओं ने उन्हें अपना एजेंट बनाकर मद्रास भेज दिया. उस वक्त उनकी पगार 30 रुपये थी.
मद्रास में उन्होंने व्यापार के गुर सीखे. हैदराबाद के एक व्यापारी के साथ साझेदारी में उन्होंने खुदरा सामानों का कारोबार शुरू किया. 1926 में अंग्रेजों ने उन्हें मद्रास लेजिस्लेटिव काउंसिल का सदस्य मनोनीत किया.
अखबारों से उनका नाता मद्रास जाने के दस साल बाद शुरू हुआ. बताया जाता है कि अखबारों की दुनिया में उन्होंने अपना करियर फ्री प्रेस जर्नल के वेंडर के रूप में शुरू किया. अखबार बांटने के लिए वो खुद वैन ड्राइव करते थे. बाद में उन्होंने घाटे में चल रहे फ्री प्रेस जर्नल को खरीद लिया.
उन्होंने 1936 में इंडियन एक्सप्रेस की शुरुआत ब्रिटिश राज को चुनौती देने के लिए की.
कांग्रेस के टिकट पर चुनाव
लोग ये तो जानते हैं कि गोयनका ने इन्दिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि गोयनका ने एक बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव भी लड़ा था.
आजादी के बाद 1952 में हुए पहले चुनाव में गोयनका ने त्रिवेन्द्रम सीट से (उन दिनों मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा) कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था. हालांकि तमिल राष्ट्रवाद के नाम पर लड़ने वाले डीएमके उम्मीदवार के हाथों उनकी हार हुई थी.
ब्रिटिश राज के खिलाफ संघर्ष
1940 के शुरुआती सालों तक गोयनका देशभर में 'इंडियन एक्सप्रेस' ग्रुप के 35 से ज्यादा एडिशन निकाल रहे थे. उनके दत्तक पुत्र विवेक गोयनका के मुताबिक गोयनका ने गांधीजी की एक राष्ट्रीय अखबार होने की अपील पर अखबार निकालना शुरू किया था.
जब 1942 में गांधीजी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, तो राष्ट्रवादी झुकाव वाला 'द इंडियन एक्सप्रेस' अंग्रेजों के दमनकारी नीतियों के विरोध में अखबार बंद करने वाले पहले अखबारों में था.
‘Heart strings and Purse strings’ शीर्षक के साथ एडिटोरियल आर्टिकल में गोयनका ने कड़े शब्दों में लिखा कि ‘प्रेस को बांधने की’ ब्रिटिश सरकार की नीति के सामने झुकने के बजाय वो अखबार बंद कर देना पसंद करेंगे. उन्होंने लिखा:
हम अपने नेताओं के बारे में खबर छाप नहीं सकते, न कांग्रेस आंदोलन के बारे में या उससे जुड़े किसी विषय के बारे में... समाज के प्रभावित करने वाली सच्चाइयों के बारे में भी तब तक नहीं छाप सकते, जब तक उसे सरकार की मंजूरी न मिले या हमारे किसी कॉरेस्पॉन्डेंट पर किसी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की कृपा न हो जाए. ऐसी खबरें छापना जनता से झूठ बोलने के सिवाय कुछ भी नहीं... कड़वी सच्चाई ये है कि अगर हमने ये छापना जारी रखा, तो ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को एक पेपर तो कहा जाएगा, लेकिन न्यूजपेपर नहीं.
माना जाता है कि उनके नाम पर पत्रकारों को दिया जाने वाला रामनाथ गोयनका पुरस्कार, पत्रकारिता के लिए भारत में दिया जाने वाला सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है.
पांच दशक से भी ज्यादा समय तक शानदार करियर के बाद 5 अक्टूबर 1991 को गोयनका ने आखिरी सांस ली. लेकिन प्रेस की आजादी की उनकी मुहिम की सांस अब भी बाकी है.
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