मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Fit Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Independence Day 2022: आजादी के 75 साल बाद हेल्थ सेक्टर में महिलाओं की भागीदारी

Independence Day 2022: आजादी के 75 साल बाद हेल्थ सेक्टर में महिलाओं की भागीदारी

देश की आधी आबादी अर्थव्यवस्था में पूरी तरह से योगदान नहीं कर रही है, देश की आधी आबादी महिलाओं से है.

अश्लेषा ठाकुर
फिट
Updated:
<div class="paragraphs"><p> 15 August Independence Day: देश की आधी आबादी महिलाओं से है.</p></div>
i

15 August Independence Day: देश की आधी आबादी महिलाओं से है.

(फोटो: अरूप मिश्रा/फिट हिंदी)

advertisement

आज हम भारत की आजादी की 75वीं सालगिरह माना रहे हैं. जबकि अभी भी हमारा देश वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट (Global Gender Gap Report) के 'स्वास्थ्य और सर्वाइवल' सब इंडेक्स में महिलाओं की भागीदारी के मामले में146 रैंक यानी आखिरी स्थान पर है.

आजादी के इतने सालों बाद भी हम लैंगिक समानता के मामले में इतने पीछे क्यों हैं? सवाल यह भी है कि क्या देश की महिलाओं की स्थिति में सुधार आ रहा है?

बीते महीने आए ग्लोबल जेंडर गैप की रिपोर्ट में लैंगिक समानता में भारत 146 देशों में 135वीं रैंकिंग पर है.

भारत की रैंकिंग सुधरने के बावजूद लैंगिक समानता के मुद्दे पर सिर्फ 11 देश ही उससे नीचे हैं.

क्या है ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट? आजादी के 75 साल बाद हेल्थ सेक्टर में महिलाओं की भागीदारी कितनी है? समस्या क्या है और उसे कैसे दूर किया जा सकता है? इन सारे सवालों के जवाब हमने एक्स्पर्ट्स से जानने की कोशिश की है.

क्या है ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट?

वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम (World Economic Forum) की यह रिपोर्ट लिंग समानता को लेकर डेटा पेश करती है, जिसमें बताया जाता है कि किसी भी देश में आर्थिक भागीदारी और अवसर मिलने के आधार पर कितनी लैंगिक समानता है, शिक्षा के मौर्चे पर कितनी है, स्वास्थ्य और सर्वाइवल, और पॉलिटिकल इंपावरमेंट (राजनीतिक सशक्तिकरण) के आधार पर कितनी लैंगिक समानता है.

इन चार आयामों पर देशों को रैंक किया जाता है और उन्हें स्कोर भी दिया जाता है, जो 0 से लेकर 1 के बीच होता है. इसमें ज्यादा स्कोर का मतलब उस देश में लैंगिक समानता ज्यादा है जबकि कम होने पर इसका उल्टा माना जाता है.

"बहुत सारे इन्वेस्टमेंट और तथ्य के बावजूद रैंक में गिरावट हो रही है. जेंडर इक्वालिटी पर कई बातें हो रही हैं, पर तब भी हम पीछे हैं. साउथ एशिया में हम तीसरे सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में से हैं. हमारे बाद पाकिस्तान और अफगनिस्तान आते हैं. हमारे लिए अब हाई टाइम हो चुका है स्थिति को सुधार ने के लिए".
डॉ शगुन सबरवाल, डायरेक्टर- साउथ एशिया रीजन एंड ग्लोबल मॉनिटरिंग, इवैल्यूएशन एंड लर्निंग, वीमेनलिफ्ट हेल्थ

हेल्थ सेक्टर में महिलाओं की भागीदारी क्यों कम है?

फिट हिंदी ने अपने विशेषज्ञों से इस सवाल के जवाब को जानने की कोशिश की.

डॉ शगुन सबरवाल कहती हैं, "ये रिपोर्ट भारत के लिए वेक अप कॉल है. ग्लोबल जेंडर गैप में अलग-अलग इंडेक्स पर रेट किया है. शिक्षा के मामले में हम ठीक चल रहे हैं, पर बात जब हेल्थ की आती है, तो हमारी सबसे बड़ी समस्या है जन्म के समय का सेक्स रेशियो. जन्म के समय लड़कियों की संख्या अभी भी लड़कों की तुलना में बहुत कम है. भारत जैसे बड़े और बड़ी आबादी वाले देश के लिए यह एक बड़ी समस्या है. दूसरी बात है, इकॉनमी (economy) में महिलाओं की भागीदारी. वो भी हमें दिखा रहा है कि हम बहुत बुरा कर रहे हैं. हम सिर्फ 23.5% पर हैं. हमारे देश की इकॉनमी के हिसाब से महिलाओं का योगदान इससे कहीं ज्यादा होना चाहिए था".

"शुरू से अगर लड़की को पढ़ाया नहीं जाएगा, तो बड़ी हो कर वो अपने पैरों पर खड़ी कैसे होगी? कामकाजी महिला कैसे बनेगी? डॉक्टर कैसे बनेगी? ऐसे में देश की आर्थिक व्यवस्था और रैंकिंग में गिरावट आएगी ही. देश में 99% नर्स, महिलाएं हैं, क्योंकि इस पेशे को डॉक्टर से कम या नीचे समझा जाता है, पुरुष नर्स बनना नहीं चाहते. जबकि पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं है. देश में पुरुष और महिला डॉक्टर के बीच का अनुपात पुरुष और महिला नर्स का उलटा है."
डॉ. अश्विनी सेतिया, मेडिकल लीगल एक्स्पर्ट एंड गैस्ट्रोएंटरोलॉजिस्ट

डॉ. अश्विनी सेतिया आगे कहते हैं, "केरला में शिक्षा का ज्यादा प्रसार है, लड़कियों को सामाजिक और कानूनी तौर पर उनको अधिकार बराबर ही नहीं बल्कि ज्यादा है. वहां देखिए लड़कियों की भागीदारी भी ज्यादा है".

महिलाएं उंचे स्थान पर क्यों नहीं होती हैं?

"हेल्थ सेक्टर में कौन है, जो काम कर रहा है या कौन सर्विसेस प्रोवाईड कर रहा है, तो उसमें हम ये देखते है कि नर्सेस, कम्यूनिटी हेल्थ वर्करस ज्यादातर महिलाएं होती हैं. भारत में जब हम हेल्थ सेक्टर की बात करते हैं, तो हम जानते हैं कि यहां 50% महिलाएं हैं. पर जब हम हेल्थ सेक्टर में उंचे पद या लीडर्स कौन हैं, फैसले कौन ले रहे हैं, कौन तय कर रहा है कि किस तरह की पॉलिसी होनी चाहिए, कौन समस्याओं के सामाधन खोज रहा है, तब हम देखते हैं कि वहां मजॉरिटी यानी की अधिक संख्या में पुरुष हैं."
डॉ शगुन सबरवाल

महिलाओं की भागीदारी से हमारे एक्स्पर्ट्स ने इनकार नहीं किया पर भागीदारी कहां और किस लेवल तक है, इस पर चर्चा की.

"महिलाएं हैं हेल्थ सेक्टर (health sector) में, ऐसा नहीं है कि महिलाएं काम नहीं कर रही हैं, नर्सेस, कम्यूनिटी हेल्थ वर्करस, डॉक्टर्स, साइंटिस्ट की तरह हैं, पर उनमें से बहुत कम वहां हैं, जहां जरुरी फैसले लिए जाते हैं. इसे बदलने की जरुरत है. क्योंकि जहां जरुरी फैसले लिए जाते हैं, जब वहां महिलाएं होती हैं, तो एक नया अनुभवी दृष्टिकोण देखने को मिलता है. जिसकी अभी कमी है, हमारे हेल्थ सेक्टर में" ये कहा डॉ शगुन सबरवाल ने.

वो आगे बताती हैं कि ज्यादातर स्वास्थ्य सम्बंधी मामले महिलाओं और बच्चों से जुड़े होते हैं. जैसे कि कुपोषण.

पुरुषों की तुलना में स्वास्थ्य सम्बंधी मामले महिलाओं और बच्चों को अधिक प्रभावित करती हैं. तो फिर महिलाएं क्यों कम हैं, देश के स्वास्थ्य सेक्टर से जुड़े महत्वपूर्ण फैसले लेने के स्थान पर?

जिम्मेदारियों के नाम पर करियर पर ब्रेक

वीमेनस वेब की एक्स एडिटर प्रगति अधिकारी फिट हिंदी से कहती हैं, "क्योंकि पुरुषों पर घर-परिवार, बच्चों की जिम्मेदारी नहीं डाली जाती इसलिए वो काम पर ज्यादा संख्या में नजर आते हैं. महिलाओं को आगे बढ़ने से रोका जाता है, जिम्मेदारियों के नाम पर करियर (career) पर ब्रेक लगवाया जाता है या ऐसा माहौल बनाया जाता है, जिस कारण वो खुद ही अपने करियर की क़ुर्बानी देने को तैयार हो जाती हैं".

महिलाओं को उनके करियर में परिवार/समाज ध्यान लगाने नहीं देता. उनके ऊपर एक साथ इतनी जिम्मेदारियां रहती हैं कि उन्हें जिम्मेदारियों और करियर के बीच चुनाव करना पड़ता है.
"जिन लड़कियों को शिक्षा का अवसर मिलता है, वो स्कूलों में अच्छा करती हैं पर धीरे-धीरे आगे आते-आते इनकी संख्या कम होती चली जाती है. फोकस को इतने भागों में बांट दिया जाता है कि उसका असर इन ग्लोबल जेंडर गैप जैसे सर्वे की रिपोर्ट में देखा जाता है."
प्रगति अधिकारी, एक्स एडिटर वीमेनस वेब एंड काउंसलर

"समस्या माइंडसेट की है"  

"ग्लोबल जेंडर गैप में हेल्थ सेक्टर में हमारी रैंकिंग सबसे नीचे है. यह एक दुर्दशा है. इसका कारण है लड़कियां को बोझ समझना."
डॉ. अश्विनी सेतिया

अपनी बात को आगे बढ़ते हुए डॉ. अश्विनी सेतिया फिट हिंदी से कहते हैं, "कुछ कम्यूनिटीज को छोड़ कर जहां मातृतंत्र (Matriarchy) है जैसे कि केरला, मेघालय और भी कुछ जगहें है. बाकी देश की अधिकतर जगहों पर हमारे यहां लड़कियों को भार यानी बोझ माना जाता है. इसलिए लड़कियों को बेसिक (basic) पर रखा जाता है. न तो उनके पोषण का ध्यान रखा जाता है और न तो बीमारियों का. लेकिन जो बात इतने सालों के बाद मुझे समझ नहीं आयी कि क्या बच्ची की मां को नहीं लगता कि वो भी एक कन्या थी. तो कम से कम जो स्थिति उसने झेली और दुर्व्यवहार उसके साथ हुआ वो अपनी बेटी के साथ न होने दे. मैं यहां अपवादों की बात नहीं कर रहा हूं. मैं मेजॉरिटी (majority) परिवारों की बात कर रहा हूं, जो कि भारत की जनसंख्या का हिस्सा हैं. जिनके कारण इस तरह की रैंकिंग है"

"जिन-जिन जगहों पर सुधार हो रहा है, वो अच्छी बात है. पर जहां पर सही में फर्क पड़ना चाहिए, जहां पर सुधार की जरुरत है, वहां पर कुछ खास बदलाव या सुधार नहीं आया है. कोविड के बाद कामकाजी महिलाओं की संख्या वर्क फोर्स में और कम हुई है."
प्रगति अधिकारी, एक्स एडिटर वूमेनस वेब एंड काउंसलर

"ऐसा नहीं है कि पुरुषों के कामकाज पर कोविड का असर नहीं हुआ है पर महिलाओं की भागीदारी बहुत कम हुई है. कई महिलाओं को नौकरी छोड़नी पड़ी क्योंकि उन पर प्रेशर ज्यादा था. अगर हम अपने आसपास ही देखें तो महामारी के दौरान घर-परिवार और काम का बोझ महिलाओं पर ज्यादा रहा. ये समस्या हमारे माइंडसेट (mindset) की वजह से आ रही है. समाज का महिलाओं के प्रति व्यवहार सही नहीं है. वो पुरुष और महिला को बराबरी का दर्जा नहीं देता है. महिलाओं को अवसर नहीं दिया जाता आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी होने का", ये कहना है प्रगति अधिकारी का.

डॉ. अश्विनी सेतिया ने कहा कि लड़कियां को ऐसी शिक्षा ही नहीं दी जाती, जिससे वो स्वावलंबी बन सकें.

"लड़कियों की पढ़ाई पर ध्यान ही नहीं दिया जाता है. यहां पढ़ाई से मेरा मतलब लिटरेसी (literacy) नहीं है बल्कि एजुकेट (educate) करने से है. ऐसी शिक्षा ही नहीं दी जाती, जिससे लड़कियां स्वावलंबी बन सकें. लड़कियां जब स्वावलंबी बनती हैं, तो अपने अधिकारों को पहचानती हैं और मांग करती हैं. शिक्षित नहीं होती तो उन्हें उनके अधिकारों से दूर रखना आसान हो जाता है. शादी से पहले माता-पिता, शादी के बाद पति और उसके बाद बच्चों पर हर बात के लिए निर्भर रहती हैं."
डॉ. अश्विनी सेतिया
बड़े शहरों के पढ़े-लिखे लोगों का भी यही माइंडसेट है. लड़की को बोझ माना जाता है इसलिए उसकी सेहत का ख्याल नहीं रखा जाता. महिला हेल्थ प्राथमिकता में नहीं आता है.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

"आधी आबादी अर्थव्यवस्था में योगदान नहीं कर रही है"

महिलाओं/लड़कियों को हर सेक्टर में समस्यों का सामना करना पड़ता है. चाहे हेल्थ हो या शिक्षा, नूट्रिशन (nutrition) हो या सोशल इशूज (social issues). हर एक लेवल पर महिलाओं को बहुत अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

"इस देश में महिलाओं/लड़कियों के स्टैटस को अगर हम नहीं बदलेंगे, तो देश को आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचेगा ही. ऐसी बातें कही जाती हैं कि महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने से देश प्रगति के रास्ते पर चलेगा और आर्थिक रूप से अभी से कहीं ज्यादा मजबूत होगा क्योंकि अभी देश की लगभग आधी आबादी अर्थव्यवस्था में योगदान नहीं कर रही है, देश की आधी आबादी महिलाओं से है".
डॉ शगुन सबरवाल
महिलाओं के स्तर/स्टैटस (status) को उठाने की जरुरत है.

महिलाओं को अगर मौका मिले तो क्या कुछ बदल सकता है?

डॉ शगुन सबरवाल इस सवाल के जवाब में तथ्य और स्टडी की बातें करती हैं. वो कहती हैं,

"हमारे पास कई तथ्य हैं, जिससे ये पता चलता है कि जब महिलाएं लीडर होती हैं, तो समस्‍या को जानने और निर्णय लेने का एक नया और सही दृष्टिकोण सामने आता है. वो पॉलिसियों पर बेहतर तरीकों से अमल कर पाती हैं, खास कर हेल्थ, सामाजिक मुद्दे, शिक्षा पर".

"एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्टडी है, विमन कोटा के बारे में. उसमें यह पता चला है कि पुरुष पंचायत मुखिया की तुलना जब महिला पंचायत मुखिया होती हैं तो, गांव का विकास बेहतर तरीके से होता है. कोविड के समय में भी हमने देखा, जहां महिला लीडर थीं परिस्थितियों को बेहतर तरीके से संभाला गया. इसका ये मतलब नहीं है कि पुरुष ऐसा नहीं कर सकते हैं. महिलाओं की भागीदारी से इनोवेटिव (innovative) तरीके के हल निकलते हैं. अभी आपके सारे हल एक तरीके के आ रहे हैं क्योंकि ग्रुप एक सा है. जब हम सभी एक जैसा सोचते हैं तो उपाय/ हल भी एक जैसा ही आएगा" डॉ सबरवाल ने कहा.

क्या उपाय हैं स्थिति को बेहतर बनाने के?

"महिला लीडर्शिप को बढ़ावा देने की आवश्यकता है. हमें महिलाओं को अवसर देने की जरुरत है, खास कर वैसी महिलाएं, जो अपने करियर के मिड में हैं. जिनके पास 10-20 साल का अनुभव है. वो एक लेवल पर आ कर रुक जाती हैं, उससे ऊपर नहीं जा पाती हैं. ऐसा नहीं कि प्रतिभाशाली महिलाओं की कोई कमी है हमारे देश में".
डॉ शगुन सबरवाल

वो आगे कहती हैं,

  • वर्क प्लेस पर पॉलिसी बनाने वालों को ये देखना चाहिए कि ऐसी पॉलिसीज बने जो जेंडर इक्वालिटी की ओर काम करें.

  • जिन महिलाओं के ऊपर घर-परिवार की जिम्मेदारी ज्यादा होती है, ऑफिस में उन्हें किस तरह की फ्लेक्सिबिलिटी दी जा सकती है, इस पर ध्यान देना चाहिए.

  • मेजॉरिटी लीडर पुरुष हैं, ऐसे में कोशिश होनी चाहिए कि महिला पुरुष की भागीदारी बराबर हो. इसका अर्थ ये नहीं हैं कि पुरुषों को हटाओ और महिलाओं को लाओ. पुरुषों को खुद ही टैलंटेड महिलाओं के लिए जगह बनानी या खाली करनी चाहिए, महिलाओं को बोलने का मौका देना चाहिए.

  • मिड करियर विमन इन इंडिया के साथ एक सर्वे में आया कि अधिकतर महिलाओं को सही मेंटोरशिप नहीं मिलती है. सही मेंटोरशिप से भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई जा सकती है. ऑफिस पॉलिटिक्स की वजह से भी समस्या आती है.

  • महिलाओं की भागीदारी और तरक्की के लिए ऑर्गनायजेशन क्या-क्या कर सकती है, ऐसी सोच की जरुरत है.

"महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के उपायों पर बात होनी चाहिए. इसकी चर्चा रिपोर्ट में भी की गयी थी कि महिला और पुरुष के काम में लिंग वेतन अंतर है. परिवार, सहकर्मी, दोस्त, समाज, हम सभी को मिल कर इस समस्या का हल निकालना होगा. देखना होगा कि महिलाएं अपनी प्रतिभा, अपने अनुभव से सही स्थान तक पहुंचें."
डॉ शगुन सबरवाल

वहीं डॉ. अश्विनी सेतिया कहते हैं,

  • सामाजिक माइंडसेट को बदलने की आवश्यकता है. यह एक लंबी प्रक्रिया है.

  • एक छोटी प्रक्रिया भी है, जो आसान है और जल्दी की जा सकती है. वह यह है कि लड़कियों को कानूनी तौर पर संपत्ति में बराबर का अधिकार देना. माता-पिता की वसीयत में लड़कियों को बराबर का हक देना चाहिए. ऐसा करने से बहुत कुछ अच्छे के लिए बदल जाएगा. दहेज प्रथा खत्म हो जाएगी. कानून में बदलाव आने से देश में बहुत बड़ा और बेहतर बदलाव देखने को मिलेगा.

आजादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में देश में हर घर तिरंगा अभियान जोर शोर से चल रहा है. बीते वर्षों में देखा भी गया है कि ऐसे कार्यक्रमों में देशवासी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. जब देश का नेतृत्व राष्ट्रीय भावनाओं के तहत कोई आह्वान करता है, तब उसका असर दूर दराज के आम लोगों पर भी पड़ता है. तो क्या इस मौके का फायदा देश में महिलाओं की स्थिति सुधारने के सिलसिले में नहीं किया जाना चाहिए?

उसमें भी, जब हमारे देश की राष्ट्रपति एक महिला हैं, ऐसे में उनके संदेश का भी खासा असर हो सकता है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 15 Aug 2022,09:33 AM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT