advertisement
पिछले हफ्ते बेंगलुरु की घटना ने एक बार फिर मांओं के मानसिक स्वास्थ्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, महिला ने अपनी 4 साल की बच्ची को अपार्टमेंट की चौथी मंजिल से नीचे फेंक दिया, जिससे बच्ची की मौत हो गई.
इसके बाद महिला ने भी वहां से कूदने की कोशिश की पर, उन्हें बचा लिया गया. पूरी घटना अपार्टमेंट में लगे CCTV कैमरे में रिकॉर्ड हुई है.
पुलिस ने 5 अगस्त को अपने अपार्टमेंट की बालकनी से बच्चे को नीचे फेंकने वाली मां की सीसीटीवी फुटेज हासिल की. कथित वीडियो में मां इस हरकत के बाद बालकनी से नीचे देखती नजर आ रही है. वह बालकनी की रेलिंग पर चढ़ती भी दिख रही है, जिसे अब आत्महत्या का प्रयास माना जा रहा है. पड़ोसियों ने उसे बचा लिया.
बेंगलुरु में हुई इस घटना में जिस महिला का जिक्र किया जा रहा है, वो पेशे से डेंटिस्ट हैं. ऐसा क्या हुआ जो एक पढ़ी-लिखी महिला ने इतना बड़ा कदम उठाया? मांओं के मानसिक स्वास्थ्य स्थिति को क्या हम सभी गंभीरता से लेते हैं? शारीरिक या मानसिक रूप से अस्वस्थ बच्चे के माता-पिता की मानसिक स्थिति क्या होती है? क्या जरूरी कदम उठाने चाहिए, जिससे किसी अप्रिय घटना को रोका जा सके? क्या परिवार और समाज अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से उठा रहा है?
ऐसे कई सवाल हम नें हमारे एक्स्पर्ट्स से पूछे. आइए जानते हैं जवाब.
सर गंगाराम हॉस्पिटल, दिल्ली के चाइल्ड साइकेट्रिस्ट, डॉ दीपक गुप्ता ने फिट हिंदी को बताया, "ऐसे बच्चों के केस में सही है कि मां और बाकी परिवार वालों के मेंटल हेल्थ पर भी असर पड़ता है और ऐसे में मां को डिप्रेशन होना कॉमन है. इसलिए जरूरी है कि सही समय पर सही मदद ली जाए (थेरपी). अक्सर ऐसे में मां सिर्फ बच्चे को देखती रह जाती है और अपने फिजिकल और मेंटल हेल्थ का ध्यान नहीं रखती है. लेकिन ऐसे में जरूरी है कि मां (या अन्य परिवार वाले) अगर मायूसी या डिप्रेशन से जूझ रही है, तो उसे साइकाइट्रिस्ट से मदद दिलाएं".
ऐसे बच्चों के माता-पिता का स्ट्रेस बहुत अधिक होता है. उनके लिए हर दिन चुनौती भरा होता है.
हर दिन लगातार अपनी, परिवार और बच्चे की असामान्य समस्याओं से जूझते हुए मां मानसिक रोग का शिकार हो सकती है.
डॉ दीपक गुप्ता के अनुसार, अक्षमता (disability) के रूप और डिग्री पर निर्भर करता है माता-पिता को क्या करना चाहिए और क्या नहीं. वो आगे कहते हैं, "हमारे पास कुछ बच्चे आते हैं, जिनमें बहुत कम दिक्कत होती है और कुछ ऐसे आते हैं, जिनमें ज्यादा दिक्कत होती है. ऐसे केस में हमें थेरपिस्ट को इन्वॉल्व करना पड़ता है. ये थेरपिस्ट मां-पिता के साथ मिल कर काम करते हैं ,जैसे कि ऑक्युपेशनल या बिहेव्यरल थेरपिस्ट".
ये थेरपिस्ट बच्चों के साथ काम करते हैं और माता-पिता को गाइड करते हैं. लेकिन साथ ही जरूरी है कि माता-पिता संयम और सबर रखें और थेरपिस्ट की बताई बातों पर अमल करें.
बच्चों को अप्रीशिएट करना और बढ़ावा देना क्योंकि डिसबिलिटी वाले बच्चों मे धीरे-धीरे फर्क आता है. ऐसे बच्चों को सारे स्कूल पहले तो लेते नहीं हैं, लेकिन जो स्कूल इन्हें अड्मिशन देते हैं उनके साथ मिल-जुल कर काम करना होता है. स्कूल में ये बताना होता है कि बच्चे को क्या परेशानी है. कुछ स्कूल ज्यादा सहयोग देते हैं, तो कुछ बिल्कुल ही नहीं.
साथ ही जरूरी है एक डायरी मेन्टेन करना, जिसमें सारी दिक्कतें और सुधार नोट करना है और इसे थेरपिस्ट के साथ शेयर करना.
ऐसे हालात में अपने मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना माता-पिता की जिम्मेदारी बन जाती है
रोज व्यायाम करें
मेडिटेशन करें
पैनिक नहीं करें और अपना संयम बनाए रखें
परिवार और दोस्तों का सपोर्ट लें
सोशल सपोर्ट लेना भी जरुरी है
एक जैसी समस्या से लड़ते हुए लोगों के सोशल सपोर्ट ग्रूप का हिस्सा बनना भी काम आता है
स्कूल/टीचर से सपोर्ट लेना भी जरुरी है
इस तरह के हालात से जूझते दूसरे माता-पिता से संपर्क में रहना और एक दूसरे को सपोर्ट देना भी एक सही कदम है
माता-पिता को काउंसलिंग/थेरपी लेना बहुत जरुरी है. उन्हें अपने मेंटल स्ट्रेस और हेल्थ का ध्यान रखना आना चाहिए तभी वो बच्चे को संभाल पाएंगे
पति-पत्नी में तालमेल होना चाहिए और एक दूसरे का सपोर्ट बनाना चाहिए
दूसरे बच्चों के स्ट्रगल से ऐसे बच्चों का स्ट्रगल कहीं अधिक होता है. जिसमें उन्हें हर समय किसी न किसी की मदद की जरुरत पड़ती है.
साधारण सी दिनचर्या को पूरा करने के लिए बच्चे को मदद के साथ भी घंटों लग सकते हैं. ये मदद उन्हें माता-पिता से मिलती है.
बच्चे की उम्र के साथ-साथ हर दिन स्ट्रगल और स्ट्रेस बढ़ता जा सकता है.
किशोरावस्था की उम्र में ये समस्या बढ़ जाती है क्योंकि कई बार ऐसे बच्चे वो बातें नहीं समझ पाते, जो उस उम्र के दूसरे बच्चे समझ कर सीख लेते हैं. खास कर लड़कियों में मेंस्ट्रुएशन से जुड़ी बातें.
ऐसे बच्चों को सेक्शुअली ओरिएंट करना मुश्किल हो जाता है. प्यूबर्टी के बदलावों को समझना और लड़कियों में मेन्स्ट्रूएशन से जुड़ी बातों को समझना. साथ ही पीयर प्रेशर को सम्भालना भी मुश्किल हो जाता है.
"ऐसे समय अक्सर परिवार में लोग एक दूसरे पर उंगली उठाते हैं और इल्जाम लगाते हैं, जरूरी है कि हम ऐसा न करें और मिल जुल कर पूरा परिवार बच्चे और उसका ध्यान रखने वाली मां की मदद करें. ऐसे में जरूरी है की सारा बोझ अकेली मां पर न आ जाए, वो प्राइमेरी केयरगिवर होती है लेकिन बाकी परिवार के सदस्यों के लिए जरुरी है उसकी मदद करना और उसे सपोर्ट करना. जरूरी है कि परिवार वाले मां को ब्लेम न करें और हर तरह से उसे सपोर्ट करें" ये कहना है डॉ दीपक गुप्ता का.
मां के लिए अपना ध्यान रखना बेहद जरुरी है. अगर मां मानसिक रूप से स्वस्थ होगी तभी वो बच्चे का ध्यान रख सकेगी.
अगर मां/केयरगिवर में ऐसा बदलाव आता है, जो नुकसानदायक है तो परिवार के लोगों को समझने की कोशिश करनी चाहिए कि कहीं कोई दिक्कत तो नहीं है. हो सकता है कि यह डिप्रेशन की तरफ बढ़ता कदम हो.
गुमसुम हो जाए
नेगेटिव बातें करे
उसमें घबराहट या बेचैनी आ जाए
उदास और निराश महसूस करे
अत्यधिक चिंता करे
ऐंजाइयटी हो
अधिक या कम सोए
आसपास की चीजों में कोई रुचि न ले
खाने-पीने पर ध्यान न दे
परिवार और दोस्तों से दूर रहने लगे
अत्यधिक गुस्सा करे
बच्चे के साथ कोई बॉन्डिंग महसूस न करे
अपने आप को हर समय जज करे
खुद को बुरी मां माने
हर समय बच्चे की दूसरे बच्चे से तुलना करे
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined