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World Tuberculosis Day 2023: हर साल 24 मार्च को वर्ल्ड टीबी डे के रूप में मनाया जाता है. टीबी सदियों से चला आ रहा रोग है, जो खांसी से हवा में फैलने वाले बैक्टीरिया के जरिए स्वस्थ लोगों को संक्रमित कर उनके फेफड़ों को प्रभावित करता है. यह नजदीकी संपर्क से आसानी से फैलता है. साल 2021 में दुनिया भर के मामलों में, भारत में टीबी के 28% मामले दर्ज किए गए हैं.
दुनिया में सबसे ज्यादा टीबी के मामले किस देश में हैं? दुनिया भर में टीबी के मरीजों की संख्या फिर क्यों बढ़ी? दुनिया के कुछ देशों में टीबी के मामले अधिक होने की वजह क्या है? भारत में युवा आबादी में टीबी के मामले क्यों और कैसे बढ़ रहे हैं? टीबी ठीक करने का सबसे तेज और कारगर तरीका क्या है? क्या भारत 2025 तक टीबी को खत्म कर सकेगा? एक्सपर्ट्स से जानते हैं इन सवालों के जवाब.
2021 में, 28% मामलों के साथ भारत उन आठ देशों में शामिल था, जहां कुल TB रोगियों की संख्या के दो-तिहाई (68.3%) से अधिक थे.
भारत - 28%
इंडोनेशिया- 9.2%
चीन- 7.4%
फिलीपींस- 7.0%
पाकिस्तान- 5.8%)
नाइजीरिया- 4.4 %
बांग्लादेश- 3.6%
कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य- 2.9%
दुनिया का हर देश टीबी को पूरी तरह से खत्म करने की दिशा में लगातार प्रयास कर रहा है. यह निश्चित तौर पर दुर्भाग्यपूर्ण है कि फिर भी टीबी के अनेकों मामले सामने आ रहे हैं.
कोविड के समय पर लॉकडाऊन की वजह से मामले कम रजिस्टर होते थे और हेल्थ फैसिलिटीज तक लोगों की पहुंच भी कम थी, जिसकी वजह से टी बी की नोटिफिकेशन में कमी देखी गयी.
ट्यूबरक्लॉसिस एक बैक्टीरिया की वजह से होती है, जो मुख्य रूप से फेफड़ों को प्रभावित करता है, यह बैक्टीरिया खांसने पर निकलने वाले ड्रॉपलैट्स से फैलता है. यही कारण है कि टीबी वहां ज्यादा फैलती है, जहां लोग कम हवादार और भीड़भाड़ वाली जगहों पर रहते और काम करते हैं. ये स्थितियां उन देशों में काफी आम हैं, जिनमें भयंकर गरीबी है और लोगों का सामाजिक-आर्थिक स्तर काफी कम होता है.
डॉ. बंदना मिश्रा इन बिंदुओं को मामले का बहुत हद तक जिम्मेदार मानती हैं:
ड्रग रेसिस्टेंस- यह बिंदु टीबी ठीक करने की दवाओं से सम्बंधित है. इसे इस प्रकार समझें, जैसे किसी रोगी को पहले चरण में जांच व डायग्नोसिस के बाद फर्स्ट लाइन ड्रग दवाएं दी जातीं हैं, लेकिन किसी कारण वे असर नहीं करतीं तो उन्हें टीबी की सेकंड लाइन ड्रग दी जातीं हैं. इसलिए भी अक्सर डॉक्टर सलाह देते हैं कि टीबी का इलाज बीच में छोड़ने की लापरवाही बिलकुल नहीं करनी चाहिए.
एचआईवी मरीजों में टीबी- क्योंकि एचआईवी मरीजों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है ऐसे में उन्हें टीबी का संक्रमण होने व रोग की गंभीरता होने की अधिक संभावनाएं हैं.
एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी- हमारी जीवनशैली में बदलाव आया है और ऐसे में सिर्फ फेफड़ों की टीबी नहीं बल्कि रीढ़, पेट व शरीर की अन्य हड्डियों में टीबी के मामले देखे जा रहे हैं. साथ ही जागरूकता की कमी के कारण ऐसे में संक्रमण फैलने के भी जोखिम देखे जा रहे हैं.
क्रोनिक बीमारियां- बढ़ता हुआ मेन्टल स्ट्रेस और क्रोनिक बीमारियां जैसे कि क्रोनिक लिवर डिजीज, क्रोनिक लंग डिजीज, क्रोनिक किडनी डिजीज या क्रोनिक हार्ट डिजीज, भी एक कारण देखा गया है जिससे टी बी के केसेस बढ़ रहे हैं, क्योंकि ये सभी बॉडी की इम्युनिटी को कोम्प्रोमाईज करती हैं.
स्टडीज में पाया गया है कि युवा वयस्कों में टीबी के इलाज के लिए तय किए गए मानक या गुणवत्ता की कमी और बच्चों-वृद्धों की तुलना में इलाज के दौरान बीच में ही दवा अनियमित करने युवाओं में अधिक देखा जाता है. साथ ही युवा वयस्कों द्वारा सामना किए जाने वाले लांछन और भेदभाव के कारण नशीली दवाओं का भी सेवन में भी बढ़ोतरी देखी जाती है.
डॉ. गुनीशा पसरीच के अनुसार, युवा वयस्कों के लिए सीमित टीबी सेवाएं उपलब्ध हैं. WHO ने युवा वयस्क केंद्रित सेवाओं का आह्वान किया है, जिसमें आयु-उपयुक्त टीबी शिक्षा, परामर्श, पुराने वयस्क रोगियों के लिए क्षेत्रों से अलग किए गए अनुकूल क्लिनिक स्थान शामिल हैं.
युवा की खराब जीवनशैली जैसे शारीरिक निष्क्रियता, अधिक खाना, जंक फूड, अपर्याप्त नींद और स्क्रीन समय (अत्यधिक मोबाइल, कंप्यूटर एवं टीवी देखना) में वृद्धि जो सीधे तौर पर कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली से संबंधित है और टीबी के मामलों में भी वृद्धि के लिए जिम्मेवार कारक हैं.
सही समय पर जांच, डायग्नोसिस व इलाज न केवल रोग की गंभीरता को खत्म करने में मदद करते हैं, बल्कि उनके पूरी तरह से ठीक होने में इनकी अक्सर अहम् भूमिका होती है. इसलिए लक्षणों की पहचान होते ही तुरंत डॉक्टर से संपर्क रोग के बचाव में पहला कदम है.
टीबी के रिपोर्ट होने वाले सभी मामले की मॉनिटरिंग की जाए और हरेक स्तर पर उनकी मदद की जाए.
टीबी से जुड़ी रूढ़िवादी सोच को खत्म करने की जरूरत है. टीबी के रोगियों के साथ भेदभाव वाली सोच के कारण अक्सर बहुत से रोगी डर व सामाजिक दबाव के कारण सामने नहीं आ पाते जिसके कारण उनकी समस्या गंभीर होती चली जाती है. साथ ही ऐसी सोच के कारण बहुत बड़े तबके में उनको सही जांच व इलाज के लिए भी प्रोत्साहित नहीं किया जाता.
टीबी के लक्षणों को पता लगाने में देरी से लक्षण गंभीर और जटिल रूप ले सकता है. जैसे कि दवा प्रतिरोधी टीबी, जिसका इलाज करना अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है.
समय पर इसका इलाज टीबी से जुड़ी जटिलताओं के विकास को रोकने में भी मदद कर सकता है, जैसे फेफड़ों की क्षति, स्थायी अक्षमता और यहां तक कि मृत्यु भी. टीबी का जल्दी पता लगाने से इलाज तुरंत शुरू किया जा सकता है, जिससे रिजल्ट में सुधार हो सकता है और आगे इसके फैलाव या संचरण के जोखिम को कम किया जा सकता है.
टीबी सदियों से चला आ रहा रोग है, जो खांसी से हवा में फैलने वाले बैक्टीरिया के जरिए स्वस्थ लोगों को संक्रमित कर उनके फेफड़ों को प्रभावित करता है. यह नजदीकी संपर्क से आसानी से फैलता है. बैक्टीरिया धीरे-धीरे फैलता है और इसके इलाज के लिए अनेक दवाओं की जरूरत होती है. यह बैक्टीरिया कई बार प्रतिरोधी (रेजिस्टैंस) क्षमता हासिल कर लेता है, ऐसा खासतौर से उन लोगों में होता है, जो समय पर और निर्धारित मात्रा के मुताबिक दवाएं लेने से चूकते हैं. इसकी वजह से रोग काफी गंभीर हो जाता है और यहां तक कि रोगी की मृत्यु का भी कारण बनता है.
डॉ. विकास मौर्या ने फिट हिंदी से कहा, "भारत ने टीबी उन्मूलन के लिए एक राष्ट्रीय रणनीतिक योजना (National strategic plan) तैयार की है. धीरे-धीरे स्थितियां सामान्य हो रही हैं. बहुत संभव है कि हम 2025 तक टीबी उन्मूलन के लक्ष्य के काफी नजदीक पहुंच जाएं, लेकिन यह तभी मुमकिन है जब इस रोग को उखाड़ फेंकने की रणनीति पर कारगर तरीके से अमल किया जाए".
डॉ. बंदना मिश्रा के अनुसार, साल 2025 तक टीबी खत्म करने का सही मतलब है टीबी के मरीजों की बढ़ती संख्या को 1 मरीज प्रति 10,00,000 तक लाने में सफलता मिले. इसी दिशा में यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश है कि एक भी नया टीबी का केस न आए. जरुरी बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो निश्चित तौर पर इस बीमारी से पूरी तरह निजात मिलने में एक समय बाद मदद मिलेगी.
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