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टोक्यो ओलंपिक (Tokyo Olympic) में भारत की छोरियां कमाल कर रही हैं. आज वूमेंस हॉकी (Woman's Hockey) में भी बेटियों ने कमाल का प्रदर्शन करते हुए इतिहास रच दिया है. इस बार भारतीय महिला हॉकी प्लेयर्स ने जिस अंदाज से खेला है उसे देखकर फिल्म चक दे की यादें ताजा हो जाती हैं. यहां भी आपको देश की अलग-अलग हिस्सों से आने वाली खिलाड़ियों की संघर्ष गाथाएं देखने को मिलेगी. आइए जानते हमारी चक दे गर्ल्स के बारे में...
सोनीपत जिले के गामड़ी गांव की मोनिका मलिक को बचपन से ही पिता तकदीर सिंह ने खेलों के लिए प्रोत्साहित किया था. इसीलिए मोनिका ने 8वीं कक्षा के दौरान ही हॉकी की ओर कदम बढ़ा दिए थे. मोनिका ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उनके पिता उन्हें कुश्ती में आगे बढ़ाना चाहते थे, लेकिन मेरी हॉकी के प्रति इच्छा को देखते हुए उन्होंने मुझे हॉकी में ही आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया.
मिजोरम के छोटे से गांव से निकली लालरेम्सियामी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि मेरे गांव में हॉकी काफी मशहूर नहीं है. बहुत कम लोग खेलते हैं, लेकिन मेरी हमेशा से हॉकी में रुचि थी. यही वजह है कि मैने थेंजाल जाने का फैसला किया जो मेरे गांव से काफी दूर था. मुझे शुरुआती साल हॉस्टल में बिताने पड़े थे.
युवा स्ट्राइकर लालरेम्सियामी का ये पहला ओलंपिक है. मिजोरम के कोलासिब की रहने वाली 21 वर्षीय इस स्ट्राइकर ने उस समय इतिहास रच दिया था जब वह ओलंपिक में जगह बनाने वाली राज्य की पहली महिला खिलाड़ी बनीं थीं.
लालरेम्सियामी एक इंटरव्यू में कहा था कि "2016 में दिल्ली आने से पहले मैंने थेनजोल में अपने जीवन के पांच साल प्रशिक्षण में बिताए. जब मैं अपना घर छोड़ रही थी, तो मैंने अपने पिता से कहा कि मैं एक दिन भारत का प्रतिनिधित्व करूंगी और मैं आज यहां हूं. मेरे शुरूआती दिनों में चुनौतियां थीं. मेरे परिवार के लिए आय का एकमात्र स्रोत खेती था. जब मैं एफआईएच महिला श्रृंखला में खेल रही थी, उसी दौरान पिता की मृत्यु हो गई थी, वह बहुत कठिन समय था, बावजूद इसके मैंने टीम के लिए खेलना जारी रखा. मेरे पिता ही थे जिन्होंने मुझे समर्थन दिया और मुझे अपने सपनों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया."
25 साल की गुरजीत कौर किसान परिवार से हैं. अमृतसर की मियादी कला गांव की रहने वाली गुरजीत के परिवार का हॉकी से कोई संबंध नहीं था. गुरजीत के पिता सतनाम सिंह बेटी की पढ़ाई को लेकर काफी गंभीर थे. गुरजीत और उनकी बहन प्रदीप ने शुरुआती शिक्षा गांव के निजी स्कूल से ली और फिर बाद में उनका दाखिला तरनतारन के कैरों गांव में स्थित बोर्डिंग स्कूल में करा दिया गया. गुरजीत का हॉकी का सपना वहीं से शुरू हुआ. बोर्डिंग स्कूल में लड़कियों को हॉकी खेलता देख गुरजीत बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने इसे अपनी जिंदगी बनाने का फैसला कर लिया. गुरजीत और उनकी बहन ने खेल में जल्द ही महारत हासिल कर ली थी जिसके बदौलत उन्हें मुफ्त शिक्षा भी प्राप्त हुई.
गुरजीत को देश के लिए खेलने का पहला मौका 2014 में सीनियर नेशलन कैंप में मिला था. हालांकि वह टीम में अपनी जगह पक्की नहीं कर पाई थी. लेकिन गुरजीत एक मात्र महिला खिलाड़ी हैं, जिन्होंने 2017 में भारतीय महिला हॉकी टीम की स्थायी सदस्य बनी. उन्होंने मार्च 2017 में कनाडा में टेस्ट सीरीज भी खेली थी. उन्होंने अप्रैल 2017 में हॉकी वर्ल्ड लीग राउंट 2 और जुलाई 2017 में हॉकी वर्ल्ड लीग सेमीफाइनल में प्रतिनिधित्व किया था.
निक्की प्रधान भारत के लिए हॉकी खेलने वाली झारखंड की छठी खिलाड़ी हैं. अपने करियर की शुरुआत के बाद से ही वो चोट की वजह से खासा परेशान थी. हालांकि अपने सपने और जिद्द के आगे उन्होंने हर मुश्किल का सामना किया. उन्होंने अपना इंटरनेशनल करियर 2015 में ही शुरू किया था, लेकिन 2016 में दक्षिण अफ्रीका के दौरे में चुने जाने के बाद उन्होंने टीम में अपनी जगह पक्की कर ली. इसके बाद वो भारत के लिए ओलंपिक में खेलने वाली झारखंड की पहली महिला हॉकी खिलाड़ी बनी. उन्होंने रियो ओलंपिक में हिस्सा लिया था. इसके अलावा एशिया कप 2017 व 2018, हॉकी विश्व लीग, महिला विश्व कप जैसे बड़े टूर्नामेंटों में भारत की प्रतिनिधित्व किया है.
सलीमा टेटे झारखंड के सिमडेगा जिला के बड़की छापर गांव की रहने वाली हैं. इनके पिता का सुलक्षण टेटे भी अच्छे हॉकी खिलाड़ी रहे हैं. सुलक्षण गांव की टीम से सलीमा को सिमडेगा जिला के लठ्ठाखम्हन हॉकी प्रतियोगिता में साल 2011 से लगातार खिलवाने ले जाते थे. यहीं पर उन्हें बेस्ट खिलाड़ी का भी पुरस्कार मिला. उसी प्रतियोगिता में सिमडेगा के मनोज कोनबेगी की नजर सलीमा पर गई और उनके पिता को सेंटर के लिए ट्रायल देने के लिए कहा.
नवंबर, 2013 में सलीमा का चयन आवासीय हॉकी सेंटर, सिमडेगा के लिए हो गया और उसी साल दिसंबर में रांची में आयोजित एसजीएफआई नेशनल हॉकी प्रतियोगिता के लिए झारखंड टीम के लिए उन्हें चुना गया. साल 2014 में हॉकी इंडिया द्वारा पुणे में आयोजित राष्ट्रीय सब जूनियर महिला प्रतियोगिता में पहली बार सलीमा झारखंड टीम से चुनी गईं और तब टीम ने रजत पदक प्राप्त किया था.
शर्मिला देवी भारतीय टीम में फॉरवर्ड प्लेयर है, वे हिसार के कैमरी गांव की रहने वाली हैं. शर्मिला ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उनके दादा ने नेशनल लेवल पर हॉकी खेली थी. मैं बचपन में काफी शरारत करती थी. लेकिन दादा मुझसे काफी प्यार करते थे, उन्होंने ही मुझे हॉकी से जाेड़ा था. मैं 2012 में चंडीगढ़ अकादमी में सलेक्ट हुई इसके बाद नेशनल लेवल पर खेलने लगी थी.
शर्मिला ने 2019 टोक्यो टेस्ट इवेंट के दौरान सीनियर श्रेणी में डेब्यू किया है. 19 वर्ष की आयु में 9 इंटरनेशल कैप हासिल करने वाली शर्मिला टोक्यो ओलंपिक से पहले काफी उत्साहित थीं, उन्हें पूरा विश्वास था कि उनका चयन टीम में हो जाएगा.
हरियाणा के कुरुक्षेत्र की रहने वाली नवजोत कौर अपनी सफलत का श्रेय अपने पिता को देती हैं. नवजोत कहती है कि अगर मुझे अपने माता-पिता खासतौर पर पिता का सहयोग नहीं मिलता तो आज मैं जहां हूं, वहां नहीं पहुंच पाती. मेरे पिता ने मुझे स्कूल में हॉकी खेलने के लिए प्रोत्साहित किया. उनका शुरू से सपना था कि उनका एक बच्चा खिलाड़ी बने और मुझे बहुत खुशी है कि मैं उनका सपना पूरा करने में सफल रही.
2012 में न्यूजीलैंड के खिलाफ खेली गई सीरीज में नवजोत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने कॅरियर की शुरुआत की थी. इससे पहले, उन्होंने जूनियर एशिया कप और नीदरलैंड्स के खिलाफ अंडर-21 टूर्नामेंट में अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया था.
दीप ग्रेस एक्का का हॉकी में चयन उनकी कद-काठी और शारीरिक क्षमताओं के आधार पर किया था. 2006 में सुंदरगढ़ स्पोर्ट्स हॉस्टल उन्होंने ज्वाॅइन किया था, यहीं पर उनके कोच तेज कुमार ने उन्हें हॉकी के गुर सिखाए थे. एक्का का जन्म उड़ीसा में एक साधारण से आदिवासी परिवार में हुआ था. उनके पिता, चाचा और बड़े भाई हॉकी के स्थानीय खिलाड़ी हैं.
शुरूआती दौर में एक्का गोलकीपर बनना चाहती थीं. गोलकीपिंग करते समय कई बार उन्हें बॉल लग जाती थी, लेकिन वह अपना दर्द छुपा लेती थीं. ताकि किसी को पता न चले, लेकिन उनके भाई और मामा जो गोलकीपर रह चुके थे तो उन्होंने दीप को गोलकीपिंग करने की बजाय डिफेंडर के तौर पर खेलने के लए प्रेरित किया.
2011 में बैंकाॅक में अंडर -18 एशिया कप में भारत के लिए उन्होंने डेब्यू किया था. उन्होंने जर्मनी में खेले गए ऐतिहासिक एफआईएच जूनियर महिला हॉकी विश्व कप 2013 में देश को पहला कांस्य पदक जिताने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
वंदना कटारिया मूलत: हरिद्वार के रोशनाबाद की रहने वाली हैं. बचपन में वंदना को उनके आस-पड़ोस के लोगों ने कहा था कि एक लड़की के लिए खेल ठीक नहीं है. रोशनाबाद के बुजुर्गों की नजर में लड़की का खेलना अनुचित था. ऐसे में वंदना चुपके से सबसे बचते-बचाते पेड़ों की शाखाओं की मदद से खेलती थीं और अपने हॉकी मूव्स की प्रैक्टिस करती थी.
वंदना हॉकी से पहले खो-खो खेलती थीं. 2002 में खो-खो की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में वंदना ने शानदार खेल दिखाया था. 11 वर्ष की वंदना की एनर्जी देखकर कोच कृष्ण कुमार ने उन्हें हॉकी में उतारा था. वंदना ने हॉकी की शुरुआती ट्रेनिंग मेरठ के एनएएस कॉलेज स्थित हॉकी मैदान पर कोच प्रदीप चिन्योटी के मार्गदर्शन में ली थी. वंदना ने मेरठ में 2004 से 2006 तक प्रशिक्षण लिया और जिले से लेकर प्रदेश स्तर की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया. 2007 की शुरुआत में वंदना का चयन लखनऊ स्थित हॉकी हॉस्टल में हो गया था.
वंदना को 2007 में भारतीय जूनियर टीम में चुना गया था. वहीं 2010 में इनको सीनियर राष्ट्रीय टीम में चुना गया. वंदना ने 2013 में जापान में हुई तीसरी एशियन चैंपियनशिप में रजत पदक जीता था. 2014 में कोरिया में हुए 17वें एशियन गेम्स में वे कांस्य पदक विजेता रहीं. 2016 में सिंगापुर में हुई चौथी एशियन चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक विजेता बनीं. 2018 में जकार्ता में हुए एशियाई खेल में रजत पदक विजेता थीं जबकि 2018 में गोल्ड कोस्ट में हुए 11वें राष्ट्रमंडल खेल में चौथे स्थान पर रहीं.
सोनीपत के सोहराव अहमद की बेटी निशा वारसी ने अपने संघर्ष और जज्बे से कामयाबी की इबारत लिखी है. एक दौर में निशा के पिता टेलरिंग का काम करते थे, लेकिन लकवे की मार ने उनके हाथों से यह काम भी छीन लिया. 2016 में सोहराव को पैरालिसिस हुआ था जिसकी वजह से वे बिस्तर पर आ गए. उसके बाद आर्थिक तंगी की वजह से निशा की मां मेहरून फाॅम बनाने वाली फैक्ट्री में मजदूरी करने लगीं.
निशा को हॉकी के मैदान में लाने वाली उनकी की टीम साथी नेहा गोयल थीं. निशा ने 2019 में हिरोशिमा में FIH फाइनल सीरीज में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पदार्पण किया और तब से भारत के लिए नौ कैप अर्जित कर चुकी हैं. नेहा गोयल टीम में मिड फील्डर के रूप में पहली बार ओलंपिक में खेल रही हैं.
सविता पूनिया हरियाणा के सिरसा जिले के जोधका गांव की रहने वाली हैं. छठवीं कक्षा में हॉकी स्टिक को सविता ने पकड़ा था, उस समय हॉकी स्टिक उनके कंधे तक आती थी. 2004 में उन्होंने सिरसा के महाराजा अग्रसेन स्कूल में कोचिंग शुरू की थी, स्कूल में खेल गतिविधियों में सविता की फुर्ती देखकर टीचर दीपचंद ने उनके पिता महेंद्र पूनिया से हॉकी नर्सरी में नाम दर्ज करवाने की बात कही थी. उस समय अभिभावकों का बेटियों को खेलकूद के क्षेत्र में भेजने का रुझान नहीं था, लेकिन पिता ने हॉकी की कोचिंग दिलवाने पर सहमति जताई. सविता के पिता ने कहते हैं कि टाइम मिलने पर सविता लड़कों के साथ हॉकी खेलने का अभ्यास करती थी.
पूनिया को उनके दादा महिन्दर सिंह ने हॉकी के लिए प्रेरित किया था. शुरुआत में पूनिया हॉकी छोड़ना चाहती थीं लेकिन वे इसमें जुटी रहीं. 2007 में उन्होंने सीनियर कैंप में जगह बनाई थी. लेकिन अपना पहला इंटरनेशनल मैच 2011 में खेला. वर्ष 2018 में सविता पूनिया अर्जुन अवार्ड से भी सम्मानित हो चुकी हैं
सुशीला चानू मणिपुर के इंफाल से आती हैं. 1999 में मणिपुर में आयोजित राष्ट्रीय खेलों के दौरान चानू एक फुटबॉल मैच देखने के लिए अपने पिता के साथ गईं जहां से उनकी खेलों के प्रति रूचि बढ़ गई और उन्होंने महज 11 साल की छोटी सी उम्र से ही हॉकी खेलनी शुरू कर दी. कुछ साल बाद वे मध्य प्रदेश में ग्वालियर हॉकी अकादमी में चली गईं. सुशीला चानू पूर्व भारतीय हॉकी टीम की कप्तान भी रह चुकी हैं और उनके नाम कुल 150 अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हिस्सा लेने का खिताब है.
टोक्यो ओलंपिक के बारे में उनका कहना है कि " यह हम सभी के लिए एक बहुत बड़ा टूर्नामेंट है. इसके लिए हमने और हमारी टीम ने खूब मेहनत की है. ताकि हम उस लक्ष्य को पा सके जिसे टीम ने निर्धारित किया है."
हरियाणा की नेहा गोयल पहली बार हॉकी ओलंपिक टीम का हिस्सा बनी हैं. वो एक ऐसे माहौल में बड़ी हुई जहाँ ग़रीबी थी, पिता को शराब की लत थी पर आज वो ओलंपिक का अपना सपना पूरा कर रही हैं. कक्षा 6वीं से हॉकी खेलने वाली नेहा की पारिवारिक स्थिति ठीक नहीं थी, नेहा ने उस वक्त अच्छे कपड़े-जूतों के लिए हॉकी खेलना शुरू किया था.
नेहा के घर के पास ही हॉकी कोच प्रीतम सिवाच की अकादमी थी. सिवाच ने कई बार नेहा को ग्राउंड के आसपास घूमते देखा था. एक बार उन्होंने नेहा को रस्सी कूदने देखा और उसका स्टेमिना देकर वह हैरान थी. उन्होंने नेहा से कहा कि वह दो समय का खाना उन्हें देंगी अगर वह हॉकी खेलने को तैयार हो जाएं. नेहा उस समय अपनी बहनों और मां के साथ साइकिल टायर बनाने की कंपनी में मजदूरी का काम करती थी. इसी कमाई से घर चलता था. नेहा की मां मान गई और भारत को एक युवा स्टार मिल गया.
नवनीत शाहाबाद मारकंडा नाम के एक छोटे से शहर से हैं जो हरियाणा में है. उन्होंने पांच साल की उम्र से ही हॉकी स्टिक थाम ली थी. नवनीत को इसलिए हॉकी खेलने का मन किया, क्योंकि उनका स्कूल शाहाबाद हॉकी अकादमी के बगल में था. बचपन से हॉकी देखकर ही वो इंस्पायर होती थीं और फिर 2005 में उन्होंने हॉकी अकादमी ज्वाइन कर ली. उनकी टीम की साथी. रानी रामपाल और नवजोत कौर भी यहीं शाहाबाद हॉकी अकादमी में ट्रेनिंग लेती थीं.
2014 में सीनियर इंडिया टीम के लिए नवजोत ने पदार्पण किया था. 2018 महिला विश्व कप, एशिया कप, एशियाई खेलों में जबरदस्त प्रदर्शन के बाद प्रशंसकों ने इनके प्रयासों की खूब सराहना की है. वे कहती हैं कि मुझे ऐसी टीम का हिस्सा बनने पर गर्व महसूस होता है. यह टीम एक परिवार की तरह है. रानी और सविता हमारे साथ अपने विचारों का आदान-प्रदान करती रहती हैं कि हम एक टीम के रूप में एक साथ कैसे सुधार कर सकते हैं.
उदिता दुहन हॉकी टीम में मिड फील्डर प्लेयर हैं. भिवानी की रहने वाली उदिता पहले हैंडबॉल खेलती थीं, लेकिन एक बार उनके कोच तीन दिनों तक नहीं आए ऐसे में उन्होंने हैंडबॉल को छोड़ने का फैसला लिया और वैकल्पिक खेल के रूप में हॉकी को चुना.
उदिता के पिता एएसआई जसबीर सिंह खेल से जुड़े हुए थे. वे खेल मैदान में जाते तो अपनी बेटी को साथ लेकर जाते थे वहीं से खेल के प्रति उदिता आकर्षित हुईं.
हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में स्थित शाहाबाद मारकंडा से ताल्लुक रखने वाली रानी रामपाल ने छह साल की उम्र में हॉकी खेलना शुरू किया था. आज वे भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान हैं और उनकी कप्तानी में टीम अपनी एक वैश्विक पहचान बना रही है. हरियाणा के एक मजदूर की यह दृढ संकल्पी बेटी, हर साल अपने बेहतरीन खेल से देश के लोगों का दिल जीत रही है. रानी बहुत ही साधारण परिवार से आती हैं. घर चलाने के लिए उनके पिता तांगा चलाते थे और ईंटें बेचते थे.
रानी ने शाहबाद हॉकी एकेडमी में दाखिला लिया. उस वक्त उनके कोच थे द्रोणाचार्य अवॉर्ड पाने वाले बलदेव सिंह. उन्होंने पहले तो एडमिशन देने से मना कर दिया, लेकिन जब रानी का खेल देखा तो खुश हो गए और दाखिला दे दिया. इसके बाद रानी ने जी तोड़ मेहनत की. जब वो 15 साल की थीं, तभी भारतीय टीम में खेलने का मौका मिल गया. जून, 2009 में उन्होंने रूस में आयोजित चैम्पियन्स चैलेंज टूर्नामेंट खेला. फाइनल मुकाबले में चार गोल किए और इंडिया को जीत दिलाई. उन्हें ‘द टॉप गोल स्कोरर’ और ‘द यंगेस्ट प्लेयर’ घोषित किया गया.
रानी के खाते में कई उपलब्धियां, पुरस्कार, सम्मान और जीत है. उनके नेतृत्व में टीम ने इतिहास भी रच दिया है. अब उनसे टोक्यो में हॉकी के पदक की उम्मीद है.
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