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चीनी माल का बहिष्कारः भारतीय बाजार के लिए बड़ा नुकसान

चीन से इंपोर्ट दो सालों में करीब 20% बढा है और पांच सालों में यह 5% बढ़कर 61 अरब डाॅलर हो गया है.

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भारतीय नेताओं ने मौजूदा समय में चीनी माल का बहिष्कार करने के लिए एक अभियान चलाया है. लेकिन इंडियास्पेंड की एनालिसिस के मुताबिक, इसका उलटा असर भारत पर ही हो सकता है. क्योंकि चीन भारत का सबसे बड़ा बिजनेस पार्टनर है. साल 2011-12 के डाटा के अनुसार, भारत में इंपोर्ट किए गए हर दस में से छठा इंपोर्ट चीन से होता है.

चीन से इंपोर्ट दो सालों में करीब 20% बढ़ा है और पांच सालों में यह 5% बढ़कर 61 अरब डाॅलर हो गया है. इस इंपोर्ट में पावर प्लांट, सेट टाॅप बाॅक्स से लेकर गणेश प्रतिमा तक शामिल है.

यह डाटा तब है जब ग्लोबली तेल की कीमतों में गिरावट की वजह से इन पांच सालों में इंडिया का इंपोर्ट 32 लाख करोड़ से घटकर 25 लाख करोड़ हो गया है.



चीन से इंपोर्ट दो सालों में करीब 20% बढा है और पांच सालों में यह  5% बढ़कर 61 अरब डाॅलर हो गया है.

वहीं चीन को भारत की ओर से किया जाने वाला एक्सपोर्ट साल 2011-12 में 18 अरब डाॅलर से घटकर साल 2015-2016 में 9 अरब डाॅलर हो गया है. काॅटन, काॅपर, पेट्रोलियम और इंडस्ट्रियल मशीनरी के अलावा इंडिया चीन को कुछ और एक्सपोर्ट नहीं करता.

इसका मतलब यह हुआ कि इंडिया जितना माल चीन को बेचता है उसका छह गुना ज्यादा माल खरीदता है.

एक्सपोर्ट-इंपोर्ट का असंतुलन

मिनिस्ट्री आॅफ काॅमर्स के आंकड़ों के अनुसार, सेलफोन, लैपटॉप, सोलर सेल, फर्टिलाइजर्स, कीबोर्ड, कम्यूनिकेशन इक्विपमेंट- इयरफोन, ये सारी चीजें भारत मुख्य रुप से चीन से इंपोर्ट करता है.

चीन से और भी प्रमुख इंपोर्ट होने वाली चीजों में टीबी और कुष्ठ रोग की दवाएं, एंटीबायोटिक दवाएं, बच्चों के खिलौने, औद्योगिक स्प्रिंग्स, बॉल बेयरिंग, एलसीडी-एलईडी, राउटर, टीवी रिमोट और सेट टॉप बॉक्स शामिल हैं.

चीनी माल को लेकर मचा राजनीतिक तूफान

इन आंकड़ों के बावजूद, राजनीतिक नेताओं जिनमें बिहार के जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष शरद यादव, असम के नव निर्वाचित वित्त मंत्री हिमंत बिस्वा सरमा और हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज चाइनीज मालों का बहिष्कार करने के लिए लोगों से अपील कर रहे हैं.

लोगों को चीनी माल नहीं खरीदना चाहिए. इसके बजाय, भारतीय माल का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. चीन के साथ व्यापार हमारे देश को प्रभावित कर रहा है. चीन हमारा मित्र राष्ट्र नहीं है. चीन जो भी पैसा कमाता है उससे हथियार खरीद सकता है. संभावना है कि हथियारों को वह दुश्मन देशों को बेचेंगे.... हमें मेक इन इंडिया पर फोकस करना चाहिए.
4 अक्टूबर 2016 को इंडियन एक्सप्रेस में अनिल विज का छपा बयान.

चीनी बाजार लोकप्रिय क्यों है?

इंडियास्पेंड ने मुंबई में इंपोर्ट की गई चीनी मालों का हब माने जाने वाले मनीष मार्केट का दौरा किया. यहां बड़े करीने से पैक किए गए चीनी प्रोडक्ट्स सस्ते और थोक में आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं.

"एलईडी के 50 अलग-अलग प्रकार के लैंप अगर सस्ती दर पर मेरे दरवाजे पर मिलें तो मैं चीनी लैंप लेने क्यों जाउंगा?" चीन से खरीददारी करने वाला एक लैंप डिस्ट्रीब्यूटर और खुदरा विक्रेता.

"अगर मैं भारत में इन्हें खरीदूं तो इस कलेक्शन का दोगुना खर्च आएगा."



चीन से इंपोर्ट दो सालों में करीब 20% बढा है और पांच सालों में यह  5% बढ़कर 61 अरब डाॅलर हो गया है.
(फोटो: इंडियास्पेंड)

चीन की मार्केट में आसानी से पहुंच भी उसके एक्सपोर्ट कारोबार को फायदा पहुंचाती है.

मार्केट में चीन की आसान पहुंच

सुमंत कासलीवाल, जो मुंबई में कपड़ों का ई-काॅमर्स स्टार्टअप रन करते हैं. व्यापार के लिए भारत में खरीददारी करने के दो साल बाद वह चीन से खरीददारी करने लगे. उसके बाद उनकी बिक्री तीन गुना बढ़ गई.

ग्राहकों को शायद ही कभी चीन में मार्केट और प्रोडक्ट को ढूंढने के पीछे समय बर्बाद करना होता होगा. कासलीवाल ने बताया कि ज्वेलरी से लेकर कपड़े तक की तीन महीने की खेप की खरीददारी में उन्हें एक सप्ताह से भी कम समय लगता है.

"यहां तक कि वहां के छोटे-कस्बाई इलाके यीवू जो जनसंख्या में वाराणसी के बराबर है, के मार्केट में भी फैशन से लेकर घरेलू सामान सब कुछ एक जगह पर मिल सकता है, जबकि भारत में इस खरीददारी के लिए हफ्तों का समय लग सकता है.”

मैन्यूफैक्चरिंग के स्थिर आंकड़े

फरवरी 2006 के एक रिसर्च पेपर में भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने 'चीन को दुनिया का मैन्यूफैक्चरिंग पाॅवरहाउस' बताया था.

“भारत इस मामले में अपने पड़ोसी देश की बराबरी करने में विफल रहा है” अमेरिका स्थित नेशनल ब्यूरो आॅफ इकोनाॅमिक रिसर्च की ओर से पब्लिश एक रिपोर्ट में ये कहा गया था.

मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर के स्थिर सूचकांक से पता चलता है कि भारत अभी भी चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए संघर्ष कर रहा है.

2015-16 में 55 अरब डाॅलर के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के बावजूद भारत के मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में निजी निवेश अभी भी सुस्त है.

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