भारत में मॉनेटरी पॉलिसी विश्लेषकों के कुछ बने-बनाए नियम कायदे हैं. इनमें सबसे पहला नियम है कि अच्छे वित्तीय मैनेजमेंट को बतौर इनाम रेट कटौती मिलनी ही चाहिए. इस लिहाज से 1 फरवरी को पेश बजट में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बेहतर फिस्कल मैनेजमेंट के वादे पर अमल करने का भरोसा दिया है. उन्होंने भरोसा दिया है कि 2017-18 में फिस्कल डेफिसिट 3.2 परसेंट से ऊपर नहीं जाएगा और तमाम वित्तीय संकेत यही दर्शा रहे हैं कि सरकार के वादे पर यकीन किया जा सकता है.
इसी वजह से अनुमान है कि रिजर्व बैंक और मॉनेटरी कमेटी 8 फरवरी की क्रेडिट पॉलिसी में चौथाई परसेंट रेट कटौती करेगी.
आर्थिक पैमानों में रेट कटौती के संकेत
दरअसल, तमाम संकेत भी यही इशारा कर रहे हैं कि रेट कटौती के लिए अभी रिजर्व बैंक के लिए शानदार मौका है.
नोटबंदी
इसने इकोनॉमी को बड़ा नुकसान भले नहीं पहुंचाया, पर इसे झकझोर जरूर दिया है. इसमें संदेह नहीं कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ी है. हालांकि कैश की सप्लाई बढ़ने से कुछ हद तक नुकसान की भरपाई मुमकिन है. पर अगर ब्याज दरों में कमी कर दी जाए, तो हालात तेजी से सुधारने में मदद मिलेगी.
रिटेल महंगाई दर
CPI काफी निचले स्तर पर है और अगर आने वाले महीनों में इस मोर्चे पर अगर हालात बिगड़े, तो भी यह 5 परसेंट के दायरे में ही रहेगी.
इकोनॉमी में दिक्कतें
प्राइवेट सेक्टर में पैसा कमाना मुश्किल हो रहा है. ऐसे में बैंकों में खराब लोन बढ़ते जा रहे हैं. इस मौके पर अगर पॉलिसी रेट में कटौती की जाती है, तो बैकों को बड़ी राहत मिलेगी. वो ब्याज दरें कम कर पाएंगे, जिससे उन्हें खराब लोन की समस्या से मामूली ही सही कुछ राहत तो मिलेगी.
ये तमाम बातें इस माह में रेपो रेट में कटौती की पर्याप्त वजह है. अगर रिजर्व बैंक इस बार कटौती नहीं करते, तो आगे के लिए ग्लोबल इकोनॉमी के सामने कई जोखिम हैं, जो भारतीय इकोनॉमी पर भी बहुत असर डाल सकते हैं.
इसके बाद आगे रेट कटौती की गुंजाइश बहुत कम
अगले कुछ महीनों के लिए रेट कटौती का शायद ये आखिरी मौका है. इसके बाद ग्लोबल इकोनॉमी के रास्ते में कई बड़ी चुनौतियां हैं, जो शायद रिजर्व बैंक को रेट कटौती नहीं करने देंगी.
1. ग्लोबल कमोडिटी के दामों में बढ़ोतरी :
क्रूड उत्पादक करने वाले OPEC और गैर ओपेक देशों ने क्रूड के प्रोडक्शन में कटौती करने का जो समझौता किया है, उससे क्रूड के दामों में तेजी तय है. क्रूड के दाम पहले की तरह भले आसमान में न पहुंचें, पर इतना तो तय है कि दो सालों से चला आ रहा सस्ते क्रूड का जमाना फिलहाल लौटने वाला नहीं.
2. ट्रंप फैक्टर
ग्लोबल इकोनॉमी में इस वक्त ट्रंप फैक्टर छाया हुआ है. क्रूड की तरह मेटल के दामों में भी धीरे-धीरे तेजी आ रही है. ऐसे में इंडस्ट्री की लागत बढ़नी तय है. अगर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने चुनावी वादे के मुताबिक इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए बड़ा पैकेज देते हैं तो मेटल के दामों में और बढ़ोतरी तय है.
3. WPI और CPI के बीच घटता फासला
इंडस्ट्री की लागत और महंगाई दर बढ़ने का एक और संकेत है रिटेल महंगाई दर यानी सीपीआई और होलसेल महंगाई दर यानी डब्ल्यूपीआई के बीच घटता अंतर. रिटेल महंगाई दर और होलसेल महंगाई दर दोनों ही करीब करीब एक ही स्तर पर हैं. मतलब साफ है लागत दर में लगातार बढ़ोतरी हो रही है.
सितंबर 2015 में एक ऐसा भी मौका था जब महंगाई दर मापने के दोनों आंकड़ों में 9 परसेंट अंतर था. लेकिन इसके बाद दोनों के बीच फासला कम होने लगा और नवंबर 2016 में होलसेल महंगाई दर 3.15 परसेंट थी, जबकि रिटेल महंगाई दर 3.63 परसेंट. यानी दोनों के बीच फासला घटकर सिर्फ 0.48 परसेंट ही रह गया जो कि एक वक्त 9 परसेंट था. इसका मतलब है आगे महंगाई दर में उछाल आने का बड़ा खतरा है.
4. करेंसी खासतौर पर रुपये को लेकर अनिश्चितता
अमेरिकी सेंट्रल बैंक फेडरल रिजर्व ने आने वाले दिनों में ब्याज दरों में बढ़ोतरी करने के साफ संकेत दिए हैं. ऐसे हालात में रिजर्व बैंक के हाथ बंध जाएंगे और आगे रेट कटौती की गुंजाइश नहीं रहेगी.
दरअसल दुनिया के बड़े सेंट्रल बैंक के फैसलों का असर एक्सचेंज रेट और फंड के फ्लो पर पड़ता है. जाहिर है इन बातों का असर भारत की क्रेडिट पॉलिसी पर भी पड़ना तय है.
5. ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट पॉलिसी
बहुत से इकोनॉमिस्ट का मानना है कि विदेश में निवेश के बजाए घरेलू निवेश को तरजीह देने की अमेरिका फर्स्ट की नीति से अमेरिकी कंपनियों अपने देश में भी निवेश करना पसंद करेंगी. इससे दुनियाभर से पैसा निकलकर अमेरिका आ सकता है.
अगर अमेरिका की तरफ फंड फ्लो बढ़ा तो रुपये में बड़ी गिरावट का खतरा है. ज्यादातर अर्थशास्त्री इस बारे में एकमत हैं कि पॉलिसी रेट को थामकर रुपए को ज्यादा गिरने से रोका जा सकता है.
6. चीन फैक्टर
एक खतरा चीन की तरफ से है. अगर अमेरिका से दबाव बढ़ा तो चीन बड़े पैमाने पर नकदी झोंक सकता है. इससे चीन की करेंसी युआन में भारी गिरावट होगी. इसलिए बुद्धिमानी यही कहती है कि ब्याज दरें थाम कर रखी जाएं.
अंतरराष्ट्रीय वजह के अलावा रेट कटौती के लिए सबसे अहम बात है कि बैंकों के पास भरपूर नकदी है और वो इसका इस्तेमाल सस्ते कर्ज में कर सकते हैं.
बाजार में पहले ही कर्ज सस्ता हुआ क्रेडिट और बॉन्ड मार्केट में असर के लिहाज से इस बार की मॉनेटरी पॉलिसी वैसे भी उतनी अहम नहीं रह गई है.
बैंकों के पास भारी नकदी
- नोटबंदी की वजह से बैंकों के पास भारी डिपॉजिट आए हैं. इससे सिस्टम में तीन लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त नकदी आ गई है. पिछले सालों के मुकाबले ये बात अनोखी है, क्योंकि पहले इन दिनों में अक्सर नकदी की कमी होती थी. लेकिन इस साल बैंक नकदी से लबालब हैं.
- बैंकों का क्रेडिट-डिपॉजिट रेशियो 70 परसेंट तक गिर गया है. दो साल में यह 5 परसेंट की गिरावट है. छोटी अवधि का कर्ज भी काफी सस्ता है. तमाम संकेत यही बता रहे हैं कि ब्याज दरों में गिरावट होगी.
- सरकार इस साल मार्केट से सिर्फ 3.48 लाख करोड़ रुपए कर्ज लेगी. ये आंकड़ा मार्केट के अनुमान से काफी कम है और इसकी वजह से छोटी बचत योजनाओं में भारी डिपॉजिट.
- रिटेल क्रेडिट मार्केट में कर्ज के लिए ब्याज दरों में कमी साफ नजर आ रही है. कॉरपोरेट कर्ज में ब्याज दर की ये कमी और साफ दिखेगी.
इन तमाम बातों को देखते हुए अगर रिजर्व बैंक आगामी पॉलिसी में रेट कटौती करता है तो वह पहले से ही गिर रही ब्याज दरों की दिशा में उठाया गया कदम होगा.
(ब्लूमबर्गक्विंट में छपे लेख के आधार पर. अभीक बरुआ HDFC बैंक के चीफ इकोनॉमिस्ट और सीनियर वाइस प्रेसिडेंट हैं.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)