‘रास्ता आगे भी ले जाता नहीं, लौट कर जाना भी मुश्किल हो गया!’
जलील ‘आली’ का यह शेर बिहार की चुनावी राजनीति में, जनता की निगाह से मौजूदा हालात में फिट बैठता नजर आ रहा है. क्योंकि बिहार के मतदाताओं के सामने इस बार के विधानसभा चुनाव में अजीब सी दुविधा है. क्विंट के my रिपोर्ट में रोहित कुमार ओझा कहते हैं- मतदाता बदलाव की राह पर चलना चाहते हैं, लेकिन उस रास्ते पर उनका हाथ थामकर आगे चलने वाला कोई भी मौजूद नहीं है.
बिहार के वोटरों ने पिछले पंद्रह वर्षों से नीतीश कुमार के हाथों में अपने राज्य की कमान थमाई है, लेकिन उनके लिए अभी भी मूलभूत सुविधाओं का आकाल पड़ा है.
जिसकी भयावह तस्वीरें हम कोरोना महामारी के दौरान देख ही रहे हैं. सबसे अधिक आश्चर्य और शर्म की बात यह है कि लगातार डेढ़ दशक तक राज्य की गद्दी संभालने वाली सरकार, बाढ़ के संकट से निपटने के लिए कोई ठोस योजना बनाने में असफल रही. राहत के नाम पर अब भी वो चूड़ा और खिचड़ी बांटने में सिमटी है.
नीतीश कुमार के कार्यकाल के दौरान गांवों तक सड़कों का जाल जरूर बिछा, लेकिन उन पक्की सड़कों से बिहारियों का पलायन भी बड़ी संख्या में हुआ. जबकि उम्मीद थी कि उस काली सड़क से बदलाव की बयार गांवों तक पहुंचेगी.
लालू यादव के राज में बड़े स्तर पर शुरू हुए पलायन को नीतीश भी अपने लंबे कर्यकाल के दौरान रोकने में सफल नहीं हुए. बिहार के मतदाता इसबार के चुनाव में नए राजनीतक विकल्प के लिए तैयार हैं, लेकिन अफसोस कि उसके पास इसके लिए कोई भी प्रभावी दल या नेता मौजूद नहीं हैं. ऐसी बात नहीं है कि बिहार में नेताओं की कमी है, बल्कि उनके साथ समस्या यह है कि वो किसी ना किसी जाति का पोस्टर टांग रखे हैं. ऐसे में बिहार में बदलाव की राह देख रहा मतदाता फ़िर से जाति की दलदल में नहीं उतरना चाहता. बिहार राजद और जदयू के नारों से निकलकर नए नेतृत्व की तालाश में है, लेकिन उसके पास विकल्प के नाम पर शून्य है.
बिहार नए नेता और नए नारे की तलाश में है. लोकजनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान के तेवर ने इसके लिए हवा जरूर बनाई, लेकिन वो भी अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकलने की तैयारी में नहीं हैं शायद. चिराग बिहार परिवर्तन के पोस्टर बॉय साबित हो सकते हैं और उनकी पार्टी में विकल्प की शून्यता को भरने का भी दम है, लेकिन उसके लिए उन्हें जोखिम उठाने होंगे. लुटियंस दिल्ली में बैठकर बिहार के सियासी मिजाज को भांप पाना संभव नहीं है.
बिहार में सोलह प्रतिशत के आसपास दलित मतदाता हैं, जिनपर चिराग की पार्टी की अच्छी पकड़ है. इसके बूते उनके पास एक विकल्प के तौर पर बिहार की राजनीति में उभरने का मौका है. मगर चिराग इस रास्ते को इसबार के चुनाव में चुनेंगे, इसके आसार नहीं दिखते. बिहार के मतदाता राजनीतिक विकल्प की शून्यता में, एक बार फिर से अपने पुराने रास्ते पर ही चल पड़ेंगे और उनके बदलाव की उम्मीदें फिर से खोखले नारों और नेताओं की सड़ी राजनीति में धंसकर दम तोड़ देंगी. स्कूलों के भवन शिक्षकों की कमी से खंडहर में तब्दील होने की प्रक्रिया में एक कदम और आगे बढ़ जाएंगे.
बीमार पड़े अस्पताल अपनी मौत के करीब पहुंच जाएंगे. फ़िर यही नेता अगले चुनावों में अस्पताल और स्कूल बनवाने का नारा लगाएंगे. बदलाव की रेस में दौड़ने की कोशिश में जुटा बिहार, हर बार खुद को ट्रैक से बाहर ही पाएगा.
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