दिल्ली की राजनीति को लेकर एक मान्यता अक्सर रही है कि यहां जाति अहमियत नहीं रखती क्योंकि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी होने के साथ-साथ मूल रूप से शहर है.
यह पूरी तरह सही नहीं है. कम से कम दिल्ली विधानसभा चुनावों में बीजेपी और आप, और इससे पहले बीजेपी और कांग्रेस के साथ अलग-अलग सामाजिक गठजोड़ हुआ करते थे. लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के अनुसार, यह व्यापक रूप से मतदाताओं के बीच जाति और समुदाय पर आधारित गठजोड़ है.
हिंदी बेल्ट के दूसरे प्रांतों से अलग दिल्ली में आबादी का बड़ा हिस्सा प्रभावशाली जातियों का है. सर्वे के अनुसार यह 41 प्रतिशत है.
बीजेपी समर्थक वर्ग का यही मूल आधार है. दूसरी तरफ आप और इससे पहले कांग्रेस दलित (17 प्रतिशत) और मुसलमानों (14 प्रतिशत) पर पूरी तरह निर्भर रहे हैं. 2015 का विधानसभा चुनाव खास तौर से इसकी गवाही देता है.
2015 विधानसभा चुनाव के दौरान सीएसडीएस सर्वे के आंकड़ों के आधार पर एक आकलन है जिससे कई दिलचस्प ट्रेंड दिखलायी पड़ते हैं.
बीजेपी पर प्रभावशाली जातियों का प्रभुत्व
बीजेपी का कुल वोट शेयर 32.3 प्रतिशत था. बीजेपी के वोटों का करीब 60 फीसदी प्रभावशाली हिन्दू जातियों से थे: 20.3 प्रतिशत ब्राह्मण, 13.3 प्रतिशत वैश्य और जैन, 11.1 प्रतिशत राजपूत, 5 प्रतिशत हिन्दू पंजाबी खत्री और 9.8 प्रतिशत दूसरी प्रभावशाली जातियां.
इसके अलावा बीजेपी को बहुसंख्यक जाटों का समर्थन भी मिला.
AAP का दलित और अल्पसंख्यक फॉर्मूला
दूसरी तरफ, दलित (21.4 प्रतिशत), मुस्लिम (19.9 प्रतिशत) और सिख (3.1 प्रतिशत) मिलाकर कुल 45 प्रतिशत ‘आप’ के वोट होते हैं. आप को कुल मिलाकर 54 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. इसके अलावा आप को गैर जाट ओबीसी समुदाय के लोगों का भी समर्थन मिला था जैसे यादव/अहीर, गुज्जर, सैनी, कुर्मी, विश्वकर्मा आदि. दूसरी तरफ, ज्यादातर जाट बीजेपी के साथ इकट्ठा हुए थे.
एक साथ देखने पर गैर जाट ओबीसी आप के वोटरों का 20 प्रतिशत हो जाते हैं. यह करीब-करीब उतना ही है जितना कि दलित और मुसलमान मिलकर होते हैं.
मगर, यह अजीबोगरीब बात है कि आप के नेतृत्व में यह दिखलायी नहीं पड़ता. अरविंद केजरीवाल कैबिनेट में इन समुदायों से जिन्होंने बीजेपी के बजाए आप का साथ दिया, केवल दो मंत्री हैं- इमरान हुसैन (मुसलमान) और राजेंद्र पाल गौतम (दलित). एक अन्य दलित चेहरा हैं डिप्टी स्पीकर राखी बिरला.
बाकी मंत्री उन समुदायों से हैं जो बीजेपी की ओर झुकाव रखते हैं: केजरीवाल (वैश्य), मनीष सिसौदिया (राजपूत), सत्येंद्र जैन (वैश्य), गोपाल राय (भूमिहार) और कैलाश गहलौत (जाट). स्पीकर राम निवास गोयल भी वैश्य समुदाय से आते है और इसी समुदाय से राज्यसभा में ‘आप’ के दो सांसद एनडी गुप्ता और सुशील गुप्ता भी आते हैं.
2008 से 2015 के बीच वोटिंग पैटर्न कैसे बदला
जब जाति और समुदाय के आधार पर वोटिंग पैटर्न की बात आती है, दिल्ली में बीते दशक में दो महत्वपूर्ण बातें विधानसभा चुनावों में देखने को मिली हैं :
- बीजेपी के आधार का अपेक्षाकृत स्थिर रहना- अपने मूल प्रभावशाली जातिगत आधार से बाहर निकल कर यह न कमजोर हुई है न इसका विस्तार हुआ है.
- तत्कालीन कांग्रेस का जो जनाधार दलितों, मुसलमानों और गैर जाट ओबीसी के बीच रहा, उस पर आप ने कब्जा बढ़ाया है.
सबसे पहले नज़र डालते हैं कि 2008 और 2015 के बीच प्रभावशाली जातियों का वोट किस तरह खिसका है.
प्रभावशाली जातियां
जो बात उभर कर आती है वह यह कि राजनीति में आप के प्रवेश के बावजूद बीजेपी का ब्राह्मण और वैश्य आधार स्थिर बना हुआ है. वास्तव में आप की लहर और अरविन्द केजरीवाल के खुद बनिया होने के बावजूद वैश्य के बीच बीजेपी का आधार 2015 में सबसे ज्यादा- 60 प्रतिशत- था. अभियान के दौरान केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘उपद्रवी गोत्र’ का करार दिया था जो ‘अग्रवाल समुदाय का अपमान’ माना गया और उनके खिलाफ गया था.
बीजेपी के राजपूत वोट का एक हिस्सा अपने साथ कर पाने में ‘आप’ खासतौर से 2013 में कामयाब रही. लेकिन बीजेपी ने 2015 में दोबारा अपने आधार को हासिल कर लिया.
पंजाबी खत्री और ‘अन्य सवर्ण जातियां’ ने मिलकर बीजेपी के आधार को अच्छी खासी चोट पहुंचायी. इन श्रेणियों में आप ने बीजेपी के मुकाबले 2015 में बेहतर प्रदर्शन किया.
दलित और अल्पसंख्यक
मुसलमानों में तस्वीर अधिक स्पष्ट है- आप ने ज्यादातर तत्कालीन कांग्रेस के जनाधार पर कब्जा जमाया. 2015 में मुसलमानों के बीच करीब 77 फीसदी समर्थन ‘आप’ का रहा था जो कांग्रेस के पास 2008 में रहे समर्थन से भी ज्यादा था.
दलित मतदाताओं में ‘आप’ ने न केवल कांग्रेस समर्थकों को अपनी ओर कर लिया, बल्कि बीएसपी के जनाधार में भी सेंधमारी की जिनकी दिल्ली में अच्छी खासी तादाद थी. नतीजा यह हुआ कि आप ने 2015 में 68 फीसदी दलितों का समर्थन हासिल किया. लम्बे समय बाद दिल्ली में किसी पार्टी के साथ इस वर्ग का इतना बड़ा समर्थन दिखा.
ऐसी ही तस्वीर सिखों के साथ भी देखी जा सकती है. 1998 से सिख वोट कमोबेस बीजेपी और कांग्रेस में बंटते रहे थे. लेकिन 2015 में आप ने 57 फीसदी सिख वोट हासिल किए और बीजेपी एवं कांग्रेस के वोट शेयर को कम किया.
ओबीसी
- ओबीसी जातियों के बीच तस्वीर थोड़ी जटिल है. आप ने स्पष्ट रूप से गैर जाट ओबीसी वोटों को 2015 में मजबूत किया. यह अतीत में कांग्रेस और बीजेपी के मुकाबले अधिक प्रभावशाली था.
- लेकिन जाटों के बीच बीजेपी की लोकप्रियता लगातार बढ़ती रही. यहां तक कि ‘आप’ की लहर के बीच भी 2015 में 59 प्रतिशत जाट मतदाताओं ने बीजेपी के लिए वोट किए. यह 2008 के मुकाबले भी अधिक था जब पार्टी ने कांग्रेस के साथ आमने-सामने के मुकाबले में 51 फीसदी वोट हासिल किए थे.
एक बात और भी जोड़ने की जरूरत है कि जाति समूहों के भीतर भी व्यापक अंतर है. उदाहरण के लिए, 1990 में और सन् 2000 में प्रभावशाली जातियों के गरीब और ओबीसी मतदाताओं ने कांग्रेस को कहीं अधिक वोट दिए. यही बात ‘आप’ के लिए भी कही जा सकती है.
दलित, मुसलमान और गैर जाट ओबीसी के बीच ‘आप’ के जनाधार की सच्चाई यह है कि इन समुदायों का बड़ा हिस्सा दिल्ली के गरीब वर्ग से आता है. इस तरह ‘आप’ और उससे पहले कांग्रेस का समर्थक वर्ग गरीब हितकारी नीतियों के कारण उनसे जुड़ा था. इसके साथ ही यह समझ भी सामने थी कि दिल्ली में बीजेपी ब्राह्मण, बनिया और अमीरों की पार्टी है.
अब जबकि दिल्ली मतदान के लिए तैयार है, बहुत कुछ इस पर निर्भर करने वाला है कि बीजेपी अपने मूल आधार ब्राह्मण और बनिया वोटरों से बाहर अपना विस्तार कितना कर पाती है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने लोकसभा चुनाव के दौरान मुसलमानों को छोड़कर लगभग सभी समुदायों का समर्थन हासिल करने में सफल रही है, लेकिन विधानसभा चुनावों में वह ऐसा कर पाने में नाकाम रही है.
दिल्ली में हो रहे चुनाव के दौरान बीजेपी ने लगातार सांप्रदायिक अभियान चलाया है. शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को निशाना बनाया है और यहां तक कि केजरीवाल को ‘आतंकवादी’ कहा है. साफ तौर पर कोशिश यह हुई है कि मोदी बनाम शाहीन बाग का संघर्ष बनाया जाए और हिन्दू मतदाताओं को एकजुट किया जाए.
सी वोटर ट्रैकर बताता है कि इससे बीजेपी को अपने आधार को मजबूत करने में कुछ मदद मिली है लेकिन वह ‘आप’ से आगे बढ़ पाएगी, ऐसा नहीं लगता.
बीजेपी की रणनीति से इस बात की भी परीक्षा होगी कि दलितों और गैर जाट ओबीसी पर आप की पकड़ कितनी रह गयी है और वह फ्लोटिंग वोट को केजरीवाल के प्रदर्शन के आधार पर कितना अपनी ओर कर पाती है.
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