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माया,केजरीवाल और लेफ्ट: 2019 के तीन सबसे बड़े लूजर

2019 के विनर यानी नरेंद्र मोदी पर तो बहुत बात हो रही है लेकिन इस चुनाव के सबसे बड़े लूजर कौन हैं?

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2019 के विनर यानी नरेंद्र मोदी पर तो बहुत बात हो रही है लेकिन इस चुनाव के सबसे बड़े लूजर कौन हैं. हम किसी उम्मीदवार की बात नहीं कर रहे. हम बात कर रहे हैं किसी ऐसी सियासी पार्टी की जो किसी खास विचारधारा या एजेंडे की राजनीति कर रही हो, जो कभी ना कभी किसी ना किसी रूप में एक मुकम्मल ताकत रही हो और जिसमें उम्मीदवार के नाम पर नहीं बल्कि पार्टी के चुनाव चिन्ह पर वोट डाले जाते रहे हों. तो इस नजरिये से इस चुनाव के तीन सबसे बड़े लूजर हैं- लेफ्ट, आम आदमी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी.

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1. लेफ्ट क्या खत्म ही हो जाएगा?

पश्चिम बंगाल में 1977 से लेकर 2011 तक कुल 34 साल लेफ्ट ने राज किया. साल 2011 में सत्ता खोने के बाद लेफ्ट का आधार खिसकता गया. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में सीपीएम को महज 2 सीट पर जीत मिली और अब जो रुझान सामने आ रहे हैं उसके मुताबिक राज्य में उसे एक भी सीट नहीं मिलेगी. लोकसभा चुनाव के वक्त ऐसी भी खबरें थी कि कार्यकर्ताओं में भारी निराशा है और सीपीएम कार्यकर्ता टीएमसी को हराने के लिए बीजेपी की मदद कर रहे हैं.

  • लेफ्ट का केरल में भी यही हाल है. 2014 लोकसभा चुनाव में एलडीएफ को कुल 8 सीटें मिली थीं. जिसमें सीपीएम की 5 सीटें थीं, अब इन रुझानों के मुताबिक, सीपीएम के खाते में सिर्फ एक सीट जा सकती है.
  • त्रिपुरा की कहानी भी इसी से मिलती जुलती हैं. इस राज्य की दो सीटों पर सीपीएम जीतती आई है, लेकिन ताजा रुझान में दोनों ही सीट पर पार्टी, बीजेपी से पीछे चल रही है.

मतलब साफ है कि पार्टी को अपनी रणनीति को फिर से, संभलकर, रुककर जांचने-परखने की जरूरत है. वरना, वो दिन दूर नहीं जब सीपीएम के बारे में सिर्फ पॉलिटिकल साइंस के सिलेबस में ही पढ़ाया जाएगा.

2. आम आदमी पार्टी, क्या ‘आंदोलन’ खत्म हो गया?

एक अलग तरह की राजनीति का वादा लेकर आए थे आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल. लोकपाल के नाम पर जंतर मंतर के एक धरने से शुरू होकर रामलीला ग्राउंड पर पहुंचे और अन्ना हजारे के कंधों पर बनी आम आदमी पार्टी देशभर में उम्मीदें लेकर आई थी. सिर्फ दिल्ली ही नहीं पूरे देश के युवाओं को प्रभावित हुआ था. एक आंदोलन से सियासी पार्टी में तब्दील हुई आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में 70 में से 67 सीट जीती थी. अब ताजा नतीजों में हालत ये है कि पार्टी को एक भी लोकसभा सीट मिलती नहीं दिख रही है. सिर्फ दिल्ली में ही नहीं पंजाब में भी पार्टी का यही हाल है, महज एक सीट पर पार्टी है. 2014 लोकसभा चुनाव में पार्टी को 4 सीटें हासिल हुई थीं.

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3.मायावती का अब क्या होगा?

तिलक, तराजू और तलवार....इनको मारो जूते चार. ऐसे भड़काऊ नारे के साथ आई बीएसपी ने दलित वोटों के दमपर यूपी पर कई बार राज किया और केंद्र में भी प्रासंगिकता में बनी रही. 2014 लोकसभा चुनाव में मायावती को एक भी सीट नहीं मिली. लेकिन बीएसपी का वोट शेयर 20 फीसदी था. ऐसे में बिना लोकसभा सीटों वाली इस पार्टी की पूछ बनी रही.

इन चुनाव में मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को दरकिनार करते हुए बहुजन की राह पकड़ी है, अपनी सबसे बड़ी दुश्मन यानी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में आई, दलित-मुस्लिम फॉर्मूले पर काम शुरू किया. लेकिन इन सब चीजों का कोई खास फायदा होता नहीं दिख रहा. फिलहाल, एसपी-बीएसपी गठबंधन 19 सीटों पर आगे है.

वैसे, ऐसा अनुमान जताया जा रहा था कि गठबंधन के कारण बीजेपी को भारी नुकसान हो सकता है. रुझान में तो ऐसा नहीं दिख रहा है.

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