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पोस्टर वार में तीनों खान पर भारी हैं दिलीप कुमार, राज और देवानंद

90 के दशक की शुरुआत का समय था,विनायल पर कंप्यूटर से बनाई तस्वीरें हाथ से तैयार होने वाले पोस्टरों की जगह लेने लगीं.

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1950 के दशक की करिश्माई तिकड़ी- दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद अब भी शहंशाह हैं. फिल्मी पोस्टरों की सतरंगी दुनिया पर एक नजर डालें तो खानों की मौजूदा तिमूर्ति सलमान, शाहरुख और आमिर को लेकर बनी यह धारणा खारिज हो जाती है कि सिर्फ आज के दौर का हीरो ही प्रशंसकों को फटाफट अपनी जेबें खाली करने पर मजबूर कर सकता है.

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 90 के दशक की शुरुआत का समय था,विनायल पर कंप्यूटर से बनाई तस्वीरें हाथ से तैयार होने वाले पोस्टरों की जगह लेने लगीं.
मदर इंडिया का यह सिक्स शीटर पोस्टर 3 लाख रुपये में बिका. (फोटो: एसएमएम असुजा)

पुराने पोस्टरों की लगातार बढ़ती मार्केट (संग्रहकर्ताओं के मुताबिक बीते दशक में इसमें 50 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है) के शीर्ष पर हैं- मुग़ल-ए-आज़म, आवारा और गाइड. क्लासिक्स की रिलीज के वक्त निर्माता फिल्म कंपनी के बनवाए ‘ओरिजनल’ पोस्टर की कीमत लाखों में होती है. जो लोग समझौता करके ‘कॉपी’ खरीदते हैं, उन्हें भी एक-एक पोस्टर हजारों का पड़ता है.

पोस्टरों के संसार में दिलफरेब मधुबाला की प्रसिद्धि दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा और आलिया भट्ट से कई गुना है. समय की गर्द से बेअसर हिंदी फिल्मों- महल, हावड़ा ब्रिज और चलती का नाम गाड़ी के पोस्टर हाथों हाथ बिक जाते हैं. नर्गिस, मीना कुमारी और गुरु दत्त की फिल्मों में वहीदा रहमान के पोस्टर आलीशान कोठियों की दीवारों पर सजते हैं. दिल्ली के एक कारोबारी ने मदर इंडिया का सिक्स शीटर पोस्टर 3 लाख रुपये में झटपट खरीद लिया.

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1970 के दशक में अमिताभ बच्चन की सबसे हिट फिल्मों- खासकर दीवार- के पोस्टर दुकानों से गायब हो चुके हैं. फिल्म दो और दो पांच (जो बाद में ना जाने क्यों दो इक्के के नाम से री-रिलीज की गई) का ओरिजिनल पोस्टर निशानियां जमा करने वालों का फेवरेट है. समय बीतने के साथ बच्चन के पोस्टरों की कीमत आसमान पर पहुंचने की उम्मीद है.
 90 के दशक की शुरुआत का समय था,विनायल पर कंप्यूटर से बनाई तस्वीरें हाथ से तैयार होने वाले पोस्टरों की जगह लेने लगीं.
(Poster courtesy: SMM Ausuja)

वैसे तीनों खान के पोस्टर भी मार्केट में अपना मुकाम रखते हैं. सलमान की मैंने प्यार किया और हम आपके हैं कौन..!, शाह रुख खान की दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे और आमिर खान की लगान के खरीदार तो हैं, लेकिन पुराने ज़माने के शहंशाहों के मुकाबले ये कहीं नहीं टिकते.

अभिलेखागार विशेषज्ञ और बेस्ट सेलिंग कॉफी टेबल बुक ‘बॉलीवुड इन पोस्टर्स’ के लेखक एस.एम.एम. अंसुजा के अनुसार 50 के दशक को हिंदी सिनेमा के स्वर्णयुग की संज्ञा ठीक ही दी जाती है. इस दौर की फिल्में अपने समय से लेकर मौजूदा पीढ़ी तक असर रखती हैं. पुराने पोस्टरों को ज्यादातर फिल्मों के रसिया खरीदते हैं और संग्राहक ‘ओरिजनल वर्ज़न’ को फायदेमंद निवेश मानकर जमा करते हैं. इसके अलावा यूएस और यूरोप में बस गए एनआरआई भी हैं, जिनके लिए बॉलीवुड अपनी मातृभूमि के गुज़रे जमाने से जुड़ने का एक ज़रिया है.

बॉलीवुड में शाह रुख खान और रितेश देशमुख उत्साही पोस्टर संग्राहक हैं. बिमल रॉय के परिवार ने उनके ढेरों मास्टरपीस को सहेज कर रखा है.

 90 के दशक की शुरुआत का समय था,विनायल पर कंप्यूटर से बनाई तस्वीरें हाथ से तैयार होने वाले पोस्टरों की जगह लेने लगीं.
ओम शांति ओम और सांवरिया के पोस्टर सामने से गुज़रता एक शख्स (फोटो: Reuters)

अंसुजा का कहना है कि

आज के समय के सैक्स सिंबल और स्टार्स के पिनअप पोस्टर के लिए कोई मार्केट नहीं है, क्योंकि इन्हें इंटरनेट से मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है.

मुंबई में अंसुजा और ज़फ़र आबिद के पास काबिले-रश्क ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों का खजाना है. शरद जोशी फिल्म बुकलेट्स के माहिर हैं. बुकलेट्स खत्म हो गई फिल्मों की संक्षिप्त कहानी और सितारों व बाकी टीम की जानकारी पाने का महत्वपूर्ण ज़रिया हैं.

स्वर्गीय पत्रकार फिरोज रंगूनवाला ने फिल्मी निशानियों का छोटा, लेकिन अनोखा ख़ज़ाना जमा किया था, जिनमें 1930 के दशक के उत्तरार्ध और 1940 के दशक की फिल्मों के पोस्टर भी थे. इनमें सोहराब मोदी की पुकार और सिकंदर के अलावा वाडिया मूविटोन की राज नर्तकी शामिल है. रंगूनवाला के बेटे ने बाद में धीरे-धीरे करके सारा कलेक्शन संग्राहकों को बेच डाला.

पोस्टरों की तलाश आपको केंद्र सरकार के स्वाभाविक संग्राहक नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया, पुणे तक ले जाती है, लेकिन जाहिर है कि इसका खजाना बिक्री के लिए नहीं है. फिल्म इंस्टीट्यूट के ग्रेजुएट शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर का सेंट्रल मुंबई के तारदेव में बिजनेस सेक्शन में दफ्तर है. इसी में फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन भी काम कर रहा है, जिसके लिए डूंगरपुर फिल्मों की निशानियां जमा करने में पूरे जोर शोर से जुटे हैं.

 90 के दशक की शुरुआत का समय था,विनायल पर कंप्यूटर से बनाई तस्वीरें हाथ से तैयार होने वाले पोस्टरों की जगह लेने लगीं.
मुंबई के चोर बाजार में एक दुकान पर बिकते बॉलीवुड के पोस्टर. (फोटोः खालिद मोहम्मद)
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फिल्मों से जुड़े स्मृति चिह्न पहले ग्रांट रोड और लैमिंगटन रोड की छोटी-छोटी दुकानों में मिल जाते थे, लेकिन चतुर-सुजान ऑक्शन हाउसेज़ के आने से इनका अस्तित्व ही खत्म हो गया। अब चोर बाजार के सिर्फ दो दुकानदार बॉलीवुड की निशानियों को बेचने की पुश्तैनी परंपरा को जिंदा रखते हुए पोस्टर और तस्वीरें बेचते हैं.

इस मामले में खास बात यह है कि उस जमाने के बड़े पोस्टर चित्रकारों का नाम शायद ही कोई जानता है. पूछे जाने पर संग्रहकर्ता मानते हैं कि ये अभागे चित्रकार बेनाम ही रहे. एस. एम. पंडित (उनकी रचनाओं में बरसात और आवारा शामिल हैं), पंडित राम कुमार शर्मा (चंपाकली, नागिन, रज़िया सुल्तान), डी. आर. भोसले (लोफर, परवाना), दिवाकर कोचरे (दीवार, त्रिशूल, कभी-कभी, सिलसिला) और श्रीकांत धोंगड़े (सौदागर, जांबाज़, हम आपके हैं कौन..!) के नाम कोई नहीं जानता.

वह 90 के दशक की शुरुआत का समय था, जब विनायल पर कंप्यूटर से बनाई तस्वीरें हाथ से तैयार होने वाले पोस्टरों की जगह लेने लगीं. ऐसा माना जाता है कि यश चोपड़ा की डर और नाना पाटेकर की प्रहार हाथ से तैयार पोस्टर परंपरा की अंतिम फिल्में थीं. आप पूछ सकते हैं कि- क्लासिक्स के पुराने ओरिजनल पोस्टर की कीमत क्या होती है? इसका जवाब है- 5 लाख से लेकर 25 लाख रुपये प्रति पीस. समय बीतने के साथ मुद्रास्फीति के हिसाब से इनकी कीमतें ऊपर ही जाएंगी.

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बॉलीवुड के 10 सबसे ज्यादा बिकने वाले पोस्टर

  • के. आसिफ की मुग़ल-ए-आज़म
  • राजकपूर की आवारा
  • नवकेतन की गाइड
  • रमेश सिप्पी की शोले
  • कमाल अमरोही की महल
  • महबूब खान की मदर इंडिया
  • बॉम्बे टाकीज़ की किस्मत (अशोक कुमार अभिनीत)
  • गुरु दत्त की कागज़ के फूल
  • यश चोपड़ा की दीवार
  • शक्ति सामंत की एन इवनिंग इन पेरिस

कुछ नायाब फिल्में

  • सत्यजीत रे की पाथेर पंचाली, जल सागर, महानगर, चारुलता
  • रितविक घटक की मेघे ढाका तारा, सुबर्न रेखा
  • बॉम्बे टॉकीज़ की मिलन (दिलीप कुमार अभिनीत)
  • केदार शर्मा की जोगन (दिलीप कुमार-नर्गिस अभिनीत)
  • देव आनंद की बाज़ी (गुरु दत्त निर्देशित)
  • मनमोहन देसाई की अमर अकबर एंथोनी,
  • नसीबकुंदन शाह की जाने भी दे यारो, कभी हां कभी ना

कहानी की सीखः फिल्मकारों को पता होना चाहिए कि ओरिजनल पोस्टरों के ढेर, जिनमें से ज्यादातर गोदामों में रखे बर्बाद हो रहे हैं, समय बीतने के साथ बेशकीमती खजाना साबित होने वाले हैं।

(लेखक फिल्म समीक्षक, फिल्म निर्माता थियेटर निर्देशक और शौकिया चित्रकार हैं)

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