बात 1961 की है. हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘अनुराधा ‘ को 1960 के बेस्ट फीचर फिल्म नेशनल एवॉर्ड्स से सम्मानित किया गया. संयोग से फिल्म को बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में भाग लेने के लिए भी भारत की ओर से चुना गया था. जून महीने में फिल्म के प्रतिनिधित्व के लिए मुखर्जी को बर्लिन जाना था. अनुराधा के लेखक सचिन भौमिक भी अपनी पहली बर्लिन यात्रा का मन बना रहे थे. इसके लिए राहुल देव बर्मन के अलावा शम्मी कपूर, रोटेरियन, फिल्म निर्माता और दिलीप कुमार के स्टाइल गुरु हेमंत गांगुली ने उन्हें वित्तीय मदद दी. इस दौरान एक और फिल्म के लिए भौमिक ने मुखर्जी को स्टोरी आइडिया दिया.
ये कहानी हॉलीवुड की फिल्म To each his own (1946) पर आधारित थी, जिसमें ओलिविया दे हैवीलैंड (अभी उनकी उम्र 103 साल है और संभवत: वो सबसे ज्यादा उम्र की जीवित अभिनेत्री हैं) ने अभिनय किया था और ऑस्कर पुरस्कार जीता था. महिला प्रधान अनुराधा बनाने वाले मुखर्जी को इस फिल्म का भी आइडिया पसंद आया.
जल्द लीड हिरोइन की तलाश शुरू हुई. मुखर्जी ने सुचित्रा सेन के नाम की सलाह दी. उन्हें लगा कि सुचित्रा मजबूत किरदार निभाने में सक्षम हैं. लेकिन उस समय तक हिन्दी फिल्मी दुनिया में सुचित्रा सेन का नाम धूमिल पड़ने लगा था.
बम्बई का बाबू (1960) का प्रदर्शन ठीक-ठाक था. बीमारी के कारण मधुबाला ने फिल्म छोड़ दी, जिसके बाद उन्हें ये फिल्म मिली थी. देव आनंद और सुचित्रा की सरहद फिल्म उसी साल रिलीज हुई थी, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर फेल रही. सुचित्रा सेन अगले पांच साल तक हिन्दी फिल्म करने के मूड में नहीं थी. हिन्दी फिल्मों में उनकी वापसी ममता (1966) से हुई, जो कलकत्ता प्रोडक्शन थी.
मुखर्जी की अगली पसंद नूतन थीं, लेकिन नूतन मां बनने वाली थीं, लिहाजा ये विकल्प भी खारिज हो गया. इसके बाद बारी आई नर्गिस की. नर्गिस ने फिल्मी दुनिया छोड़ दिया था और वापस लौटने को तैयार नहीं हुईं. माला सिन्हा के नाम पर भी चर्चा हुई, लेकिन बात नहीं बनी और कहानी भौमिक के पास धरी की धरी रह गई.
कट टू 1967
1950 के दशक के अंत और 1960 के दशक के शुरू में स्ट्रगल कर रहे सचिन भौमिक एक दशक बाद नामी लेखक बन चुके थे. बंगाली और उर्दू साहित्य के प्रति उनका रुझान बढ़ा था और वो नए प्रयोग और स्टोरी में बदलाव करने के बॉम्बे फिल्म उद्योग का मर्म जान चुके थे. फिर भी उनके दिल में कभी-कभी सरोकार की फिल्में करने की हूक उठती थी.
शक्ति सामंत की फिल्म ‘एन इवनिंग इन पेरिस’ के निर्माण के दौरान एक बार उन्हें 1961 की कहानी का ख्याल आया. उन्होंने कहानी का जिक्र सामंत से किया और सामंत फौरन फिल्म बनाने को तैयार हो गए. कहानी ने उन्हें अपनी मां की याद दिला दी थी.
कहानी का नाम सुबह प्यार की दिया गया. ये नाम एन इवनिंग इन पेरिस के गाने रात के हमसफर से लिया गया. जल्द ही इसका प्रचार थियेटर के बाहर बिकने वाले एन इवनिंग इन पेरिस बुकलेट के बैककवर पर होने लगा. सामंत एक और फिल्म द ग्रेट गैंबलर बनाने की योजना बना रहे थे. इस फिल्म का प्रचार भी बैक कवर पर आ गया था.
सुबह प्यार की फिल्म के लिए सीमित बजट के अनुरूप लीड रोल तय करने में ज्यादा समय नहीं लगा. सामंत युनाइटेड प्रोड्यूसर्स ग्रुप के सदस्य थे. जतिन उर्फ राजेश खन्ना को 1965 की फिल्मफेयर प्रतियोगिता के आठ विजेताओं में एक चुनने में उनका बड़ी भूमिका थी. खन्ना की दूसरी फिल्म (पहली फिल्म राज थी) और रिलीज होने वाली चौथी फिल्म बहारों के सपने (1967) में राजेश का काम सामंत को पसंद आया था. उनकी पहली फिल्म राज थी, न कि आखिरी खत, जैसा कई लोगों का मानना है.
युनाइटेड प्रोड्यूसर्स के साथ करार के मुताबिक वो सिर्फ 35,000 रुपये में काम करने को तैयार हो गए. राजेश थियेटर बैकग्राउंड के थे और ओवरएक्ट करना उनकी आदत थी. लेकिन हिन्दी सिनेमा में ओवरएक्टिंग जरूरी थी. इस भूमिका के लिए सिर्फ एक निर्देश था. देव आनंद की फिल्मों के कुछ तौर-तरीके सीखना.
काफी सोच-विचार के बाद लीड महिला रोल के लिए पहले अपर्णा सेन को चुना गया. वो केवल कश्यप की फिल्म विश्वास (1969) के लिए बॉम्बे आई थीं और ताज होटल में ठहरी थीं. बाद में सामंत का ध्यान उस लड़की पर गया, जिसे वो अच्छी तरह जानते थे. और वो लड़की थी रिंकू (शर्मिला). फिल्म साइन हो गई. ये फिल्म भौमिक की महत्त्वाकांक्षी फिल्म थी, जबकि सावंत के लिए एक प्रयोग था जिसके आधार पर वो पैसे कमाने वाली फिल्म द ग्रेट गैंबलर बनाने वाले थे. लेकिन प्रयोग को इंतजार करना पड़ा.
1968 के शुरू में फिल्म निर्माण की लागत बढ़ने के कारण छोटे फिल्म निर्माताओं ने “एक्शन कमेटी” नाम का ग्रुप बनाया गया. ग्रुप ने फिल्म निर्माताओं, डिस्ट्रीब्यूटर्स, थियेटर मालिकों और फिल्म से जुड़े दूसरे अंगों के लिए कुछ नियम बनाए.
इनमें CMDA (सिने म्यूजिक डायरेक्टर्स एसोसियेशन) भी शामिल था. फिल्म निर्माता और थियेटर मालिक नियमों का पालन शुरू करते, इससे पहले ही छोटे फिल्म निर्माताओं का एक और संगठन बन गया, जिन्होंने उद्योग से जुड़े टेक्नीशियन, अभिनेताओं और कई अन्य विभागों के लिए नियम बनाए. इस संगठन का नाम था, “फिल्म सेना.”
फिल्म सेना और एक्शन कमेटी ने IMPPA पर दबाव डालकर फिल्म निर्माण और बॉम्बे के सिनेमा हॉल्स में प्रिंट का डिस्ट्रीब्यूशन बंद करा दिया. ये नियम 31 मार्च को लागू होने थे, जिन्हें 5 अप्रैल को लागू किया गया. फिल्म सेना और एक्शन कमेटी के साथ FFI, CMDA, IMPPA कई दूसरे संगठनों की लगातार बैठकों के बाद 24 अप्रैल को आंदोलन वापस हुआ.
बॉक्स ऑफिस पर एन इवनिंग इन पेरिस अच्छा कर रही थी, लेकिन इस दौरान उसे भारी घाटा हुआ. आंदोलन के कारण फिल्म सुबह प्यार की के मुहूर्त में भी देरी हुई. आखिरकार 1 जून, 1968 को फेमस स्टूडियो में फिल्म का मुहूर्त हुआ.
सामंत, शंकर और जयकिशन से संगीत तैयार करवाना चाहते थे. लेकिन सीमित बजट के कारण उन्होंने सचिन देव बर्मन से संगीत तैयार करने का अनुरोध किया. बर्मन 1950 के दशक के अंत में इंसान जाग उठा और 1960 के दशक के शुरू में नॉटी बॉय फिल्मों के लिए सामंत के साथ काम कर चुके थे. इंसान जाग उठा के लिए उन्होंने 75,000 रुपये लिये थे. इस फिल्म के लिए उन्होंने सिर्फ 5,000 रुपये अधिक की मांग रखी. सामंत ने उन्हें एक लाख रुपये देने का वादा किया. बदले में उत्साहित बर्मन ने उन्हें यादगार संगीत देने का वादा किया और अपना वादा पूरा भी किया. 17 जून को पहला गाना रिकॉर्ड किया गया – रूप तेरा मस्ताना.
फिल्म में संगीत देने के अलावा भी बर्मन का योगदान था. फिल्म के नाम सुबह प्यार की पर उन्हें ऐतराज था. इस कारण सामंत को फिर से फिल्म के नाम पर विचार करना पड़ा. ऐसे वक्त में उनकी मदद के लिए आगे आए उनके पब्लिसिटी डिजाइनर.
ये पब्लिसिटी डिजाइनर थे चन्द्रमोहन गुप्ता, जिन्हें प्यार से सी मोहन कहा जाता था. उन्होंने 1950 और 1960 के दशक में कई मशहूर फिल्म निर्माताओं के लिए काम किया था. लेकिन उनके अंदर का कलाकार उफान मार रहा था और उन्होंने छोटे समय के अभिनेताओं शिव कुमार और जेब रहमान को लेकर एक फिल्म बनाने का ऐलान कर डाला था. फिल्म के संगीत का जिम्मा सोनिक-ओमी पर था.
फिल्म निर्माताओं में शक्ति सामंत के लिए उनके दिल में काफी सम्मान था. एन इवनिंग इन पेरिस की पब्लिसिटी के लिए बैकग्राउंड में एफिल टावर के साथ मोहन के पोस्टर काफी चर्चित हुए थे. हालांकि गलती से क्रेडिट में उनका नाम नहीं जा पाया था. पब्लिसिटी के लिए सामंत ने नटराज स्टूडियो में मोहन से मुलाकात की. मोहन ने भी एक साधारण और गैर-उर्दू नाम का सुझाव दिया.
सामंत जानते थे कि मोहन ने फिल्म बनाने का ऐलान किया है. वो ये भी जानते थे कि फिल्म निर्माण का काम शायद ही आगे बढ़ा है. सामंत को उनकी फिल्म का नाम पसंद आया. उन्होंने मोहन से ये नाम छोड़ देने का अनुरोध किया. थोड़े ना-नुकुर के बाद मोहन तैयार हो गए और नाम बेच दिया.
आराधना का नया अवतार
ये आराधना का नया अवतार था. नया निदेशक, नए अभिनेता और स्टार संगीतकार. मोहन ने फिल्म के टाइटल में अपनी कलाकारी दिखाई. नाम के d और h अक्षरों को मिलाकर कमल का आकार दे दिया.
कुछ रील शूट होने के बाद कहानी में तब्दीली की गई और डबल रोल एंगल डाला गया. इसके लिए टीम में गुलशन नंदा को शामिल किया गया. भौमिक और नंदा अच्छे दोस्त बने रहे, हालांकि उन्होंने फिर कभी साथ काम नहीं किया.
आराधना का ऑल इंडिया रिलीज 24 अक्टूबर, 1969 को होना था, लेकिन बजट के अभाव और प्रिंट की कमी के कारण फिल्म रिलीज में देरी हुई. आखिरकार 7 नवंबर, 1969 को फिल्म रिलीज हुई. फिल्म ने किस प्रकार पूरी इंडस्ट्री में तहलका मचा दिया, ये कहानी किसी और दिन...
फिल्म देखने में डूबे दर्शकों ने एक बात गौर नहीं की होगी. जिस वक्त वो मेरे सपनों की रानी गाना सुनने में व्यस्त रहे होंगे, उस वक्त शर्मिला टैगोर एक उपन्यास पढ़ रही थीं. (एलिस्टर मैकलीन की When Eight Bells Toll). फिल्म में कहानी का वो हिस्सा आजादी से पहले का है, जबकि उपन्यास 1966 में प्रकाशित हुई थी. ये कैसे हो सकता है???
अनिरुद्ध भट्टाचार्जी बेंगलुरु में SAP सलाहकार हैं. वो राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त “R D Burman the man the music” MAMI विजेता “गाता रहे मेरा दिल” और मशहूर किताब “S D Burman: the prince-musician” के लेखक हैं.
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