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हसीन दिलरुबा वही गलती कर रही है जो कबीर सिंह ने की थी- बिन पागलपन कैसा प्यार?'

Taapsee Pannu की वजह से इस फिल्म से काफी उम्मीदें थीं, लेकिन हाथ लगी निराशा

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(डिस्क्लेमर : इस रिव्यू में स्पॉइलर हैं।)

कल्पना कीजिए- दो दोस्त, जो कभी इस बात पर राज़ी नहीं होते कि उन्हें कौन सी फिल्म एक साथ देखनी है, अपनी बहसबाजियों को भूल गए. नेटफ्लिक्स (Netflix) पर हसीन दिलरुबा (Haseen Dillruba) का मिनी ट्रेलर बहुत अच्छा लग रहा था. उम्मीद जगा रहा था कि फिल्म मनोरंजन से भरपूर होगी.

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यह पिछले शनिवार की बात है. जिन दोस्तों की मैं बात कर रही हूं- उनमें से एक मैं थी और दूसरी मेरी सहेली. हमारी उम्र बीस से कुछ ज्यादा और तीस से कुछ कम है. दोनों पिछले कई सालों में कई टॉक्सिक रिलेशनशिप्स से जूझ चुकी हैं और अब प्यार के समझदारी भरे रिश्ते की चाह रखती हैं. हम जानती हैं कि संबंधों में ‘चिंगारी’ भड़कती रहे, इसके लिए पहले जबरदस्त झगड़े और फिर बावला होकर प्रेम करने की जरूरत नहीं होती.

सावधान: फिल्म सोच-समझकर देखें

फिल्म कनिका ढिल्लो की लिखी और विनिल मैथ्यू की डायरेक्ट की हुई है. हमें उम्मीद थी कि इस थ्रिलर फिल्म में हमें एक ऐसी आकर्षक नायिका के दर्शन होंगे जो अपने हुस्न से लोगों को दीवाना बना देती है. तापसी पन्नू की मौजूदगी इस उम्मीद को चाह में बदल रही थी. लेकिन हमें बुरी तरह निराशा हुई.

हसीन दिलरुबा में सबसे पहले दिखाई देता है, सीधा-सादा ऋषभ सक्सेना (विक्रांत मैसी), यकीनन फिल्म का नायक- जोकि शादी के लिए लड़की देखने जा रहा है. हमें पता चलता है कि ऋषभ अब भी उस लड़की को पसंद करता है, जिसे वह दो साल पहले सिर्फ एक बार मिला था.

‘रेड फ्लैग अलर्ट’, यानी यह बर्ताव शक पैदा करता है. मेरी दोस्त ने कहा, पर मैं उससे इत्तेफाक नहीं रखती थी. हमें, फिर भी, फिल्म की नायिका से उम्मीदें थीं.

इन दोनों की पहली मुलाकात होती है. ऋषु लड़की पर लट्टू हो गया है. लड़की यानी रानी उसे बार बार यह यकीन दिला रही है कि वह सुंदर और सुशील है. पता चलता है कि इस मुलाकात से पहले रानी कई नाकाम इश्क कर चुकी है, और करीब-करीब तीस साल की होने वाली है. उसकी मौसी कहती है, ‘सिंपल लड़का पकड़ और रंगीन किताबी रोमांस को ढूंढना छोड़ दे.’ क्योंकि रानी मांगलिक है और पिछले दो सालों में उसे शादी के सिर्फ दो ऑफर आए हैं. वह जवाब देती है, ‘देखेंगे, ज्वालापुर कौन जाएगा?’

यानी रानी कश्यप ऐसी लड़की है जिसने किस्मत के आगे हार मान ली है. फिल्म यह नहीं बताती कि ऐसा क्यों है?

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वो दोनों शादी क्यों करते हैं? एक साथ क्यों रहते हैं?

इस तरह ऋषु और रानी की शादीशुदा जिंदगी शुरू हो जाती है. छोटे शहर की जिंदगी रानी को रास नहीं आती. तिस पर वह जब भी अपने पति के करीब जाने की कोशिश करती है, वह नर्वस हो जाता है. उसकी दलील यह है कि ‘आप इतने खूबसूरत हो’. जैसे दोनों के बीच कोई तालमेल ही नहीं. शादी के एक हफ्ते बाद ऋषु रानी से बात करना भी बंद कर देता है. क्योंकि वह रानी को फोन पर अपनी मां-मौसी को यह कहते सुन लेता है कि वह यानी ऋषु सेक्स के मामले में कमजोर है. इसके बाद कई हफ्तों तक दोनों के बीच अटपटी चुप्पी बनी रहती है.

मेरी दोस्त और मैं सोचने लगे, अगर हम रानी की जगह होते, तो क्या करते. क्या हममें इस बात को मानने की हिम्मत होती कि शायद हमने एक गलत इनसान को चुन लिया है? अगर हमारे समाज में तलाक एक सामान्य बात होती तो क्या रानी इस बारे में कम से कम एक बार तो सोचती? सच कहूं तो हसीन दिलरुबा में इतनी गहराई थी ही नहीं कि इस बारे में एकबारगी भी सोचा जाता. इसलिए हम आगे बढ़ गए.

ऋषु और रानी की शादी की नैय्या हिचकोले खा रही थी कि नील त्रिपाठी नाम का एक और तूफान आ गया. हमारे सीधे-सादे हीरो का एकदम टेढ़ा कजिन नील. किताबी रोमांस की प्यासी रानी, जो अपने पति के अपनेपन के लिए तड़प रही है, हसीन दिलरुबा बन जाती है.

हम मायूस हो गए जब देखा कि नील की नजरें इनायत होने पर रानी ठीक वैसी बहू बनने में जुट जाती है, जैसी ऋषु की मां चाहती थी. जब वह अपने प्रेमी के साथ सुखी जीवन के सपने देखती है तो उसका भोलापन झलकता है. पर नील तो उसी दिन पल्ला झाड़कर खिसक जाता है जिस दिन शुद्ध शाकाहारी रानी बड़ी मेहनत से उसके लिए घंटों गोश्त पकाती है.

फिल्म में इस बिंदु पर हमें एहसास हो गया था कि यह कोई फेमिनिस्ट फिल्म नहीं है, जैसा कि हमने सोचा था (यहां कौन भोला भाला है?). लेकिन खैर, फिल्म अब भी मनोरंजक थी.

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तब तक, जब तक रानी, जैसा कि वह कहती है, ऋषु के तीसरे रूप (इंजीनियर और पति के बाद) से नहीं मिली, जोकि उसका ‘प्रेमी’ का रूप था. जब नील से बदला लेने के लिए ऋषु दिल्ली पहुंचता है, और फिर दो बार रानी की हत्या करने की नाकाम कोशिश करता है, तो उसके बाद रानी उसे प्यार करने लगती है! ‘जिद, प्यार और अपराध बोध’ के चलते वह उसे छोड़कर नहीं जाती, इसके बावजूद कि ऋषु बार बार उसे कहता है कि अगर वह घर छोड़कर नहीं गई तो वह उसे मार डालेगा.

हमने सांस ली और पॉज का बटन दबाया. क्या यह प्यार है? क्या वह ऐसे इनसान की तरफ आकर्षित हो सकती है जिसके साथ उसने शादी के बाद प्यार का एक पल भी नहीं बिताया.

‘प्यार में पागलपन’ की तरफदारी मत करें, यह नुकसानदेह है

आलोचकों ने फिल्म में घरेलू हिंसा के ग्लोरिफिकेशन पर खूब छींटाकशी की. तापसी पन्नू और फिल्म की लेखिका ने इस पर तमाम दलीलें दीं. बीच-बचाव किया. फिल्म के रिव्यू आने के बाद दोनों ने सोशल मीडिया पर तरह-तरह के कुतर्क देने शुरू किए. यहां तक कह दिया कि यह उनका अधिकार है कि किसी किरदार को कैसे दिखाया जाए. अगर कोई कैरेक्टर खोटा है तो क्या उसे कहानी का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता. तापसी ने तो यह सवाल किया कि अगर कोई इस किस्म के प्रेम को दिखाने पर हमें आड़े हाथों लेता है तो क्या वह उन लोगों जैसा बर्ताव नहीं कर रहा, जो ‘सिनेमा की आवाज को दबाने की कोशिश करते हैं’.

मेरे ख्याल से, इन दोनों ने यह नहीं समझा कि अगर आप प्रेम के हिंसक रूप को फिल्मी परदे पर उतारते हैं तो क्या जरूरी है कि आप उसकी हिमायत भी करें. फिल्म में कैसा भी किरदार दिखाया जा सकता है. आप खूब दिखाइए कि कोई कैरेक्टर खामियों से भरपूर है. तापसी, हमने पिंक और थप्पड़, दोनों में पितृ समाज में गहरी पैठी सच्चाइयों को बारीकी से देखा है. जिस समाज में हम रहते हैं, उसकी साफ तस्वीर इन फिल्मों में मौजूद थी. लेकिन हसीन दिलरुबा वही गलती करती है, जो कबीर सिंह ने की थी.

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प्यार में खुद को डुबो देने का जुनून! जब हिंसा और, जिसे हम मोहब्बत कह भी नहीं सकते, एक हो जाते हैं. हमारे यहां यह कोई अनोखी बात नहीं है. इसे अक्सर हम अपने इर्द-गिर्द देखते हैं- पढ़े लिखे और शहरी समाज में भी.

लेकिन अगर हम इसे रूमानी बना देंगे- यह बताएंगे कि सिर्फ इसी किस्म के इश्क की आरजू की जानी चाहिए तो इससे महिला अधिकारों को गहरी चोट लगेगी. खासकर उस समाज में जहां घरेलू हिंसा से औरतें मारी जाती हैं, और यह बहुत सामान्य बात है. जहां औरत को इस बात का एहसास होने में सालों लग जाते हैं कि अपने शरीर पर उसका खुद का हक है. वह सिर्फ किसी मर्द को खुश करने, उसके गुस्से का शांत करने का जरिया नहीं है.

ऐसी दुनिया में हसीन दिलरुबा न सिर्फ दिनेश पंडित के डायलॉग्स का इस्तेमाल करती है, बल्कि उसकी तरफदारी भी करती है:

  • अमर प्रेम वही है जिस पर खून के हल्के हल्के से छींटे हों ताकि उसे बुरी नजर न लगे.

  • पागलपन की हद से न गुजरे, तो वह प्यार कैसा? होश में तो रिश्ते निभाए जाते हैं.

क्या हम टॉक्सिक प्यार से आगे बढ़ेंगे?

पूरी फिल्म के दौरान मेरी सहेली मुझसे कहती रही, जरा रुक, देखना कोई ट्विस्ट आएगा. रानी दबी कुचली लड़की नहीं होगी जो अपने प्रेमी से प्यार करने लगी. क्योंकि उसने उसकी हत्या की नाकाम कोशिश करके अपने प्यार की परीक्षा दी थी. ट्विस्ट तो था, लेकिन उससे कोई मसला हल नहीं हुआ. इसकी बजाय नील की दुष्टता के जरिए नायक का नायकत्व उभारा गया और दर्शकों के मन में जुगल जोड़ी के लिए सहानुभूति जागी.

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और आखिर में किस बात पर जोर दिया गया? रानी को सजा दिलवाने में खास दिलचस्पी लेने वाला पुलिस इंस्पेक्टर भी उस सनकी जोड़े की जीत पर खुशी जाहिर करता है कि कैसे उन्होंने दुनिया को बेवकूफ बनाया. दर्शकों से भी यही उम्मीद की जाती है, जब आखिर में ऋषु और रानी एक दूसरे का हाथ थामे चले जा रहे हैं. भले ही दोनों ने एक दूसरे का सिर्फ एक हाथ थामा हुआ हो.

फिल्म खत्म हुई. क्रेडिट्स रोल हो रहे थे और हम मायूस से एक दूसरे को देख रहे थे. मैंने अपनी सहेली के सामने प्यार की वह परिभाषा दोहराई जो मैंने लेखिका और एक्टिविस्ट बेल हुक्स की किताब ऑल अबाउट लव: न्यू विजन्स में हाल ही में पढ़ी है.

“अपने खुद के या दूसरे के आध्यात्मिक विकास में मदद करने के लिए खुद का विस्तार करने की इच्छा.”

हमने प्यार की जो रोमांचक परिभाषाएं सुनी हैं, शायद यह उससे मेल न खाए. रानी की ही तरह हम तीस साल के करीब हैं और उम्मीद करते हैं कि दुनिया सभी जेंडर्स के लिए एक बराबर रहने लायक बने. उम्मीद की जा सकती है कि हमारे फिल्मकार समझ पाएंगे कि हिंसा को दिखाने और उसे ग्लोरिफाई करके दिखाने के बीच क्या फर्क है.

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