नवाजुद्दीन सिद्दीकी की फिल्म बाबूमोशाय बंदूकबाज आपको गैंग्स ऑफ वासेपुर की फिर याद दिला सकती है. इसका खास कारण है- गैंग्स ऑफ वासेपुर के धूल भरे शहर, खून खराबे वाले शॉट्स. हालांकि इस फिल्म में वासेपुर जैसी कोई खास बात नजर नहीं आती. अनुराग कश्यप की फिल्मों को लेकर जितनी एक्ससाइटमेंट रहती है, वो इस फिल्म के लिए आप ना ही रखें तो बेहतर है.
नवाज पहले तो एक मजबूर आदमी जैसे नजर आते हैं, लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, नवाज और खूंखार होते चले जाते हैं. पैसों के लिए किसी भी नेता का खून करने से झिझकते नहीं हैं. हमेशा की तरह अपनी एक्टिंग से सबको दीवाना बनाने वाले नवाज इस फिल्म में एक बड़बोले किरदार को भी बखूबी निभा रहे हैं. कई वन लाइनर्स के साथ इस फिल्म में बाबू बिहारी ने कॉमेडी का तड़का भी लगाया है.
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फिल्म को रोमांचक बनाने की बहुत कोशिश की गई, लेकिन ऑडियंस को लगातार जोड़े रखने में सफल नहीं हुई. फिल्म में दूसरा अच्छा करेक्टर बांके बिहारी है, जो बाबूमोशाय के साथ मिलकर कई अपराध करता है. ये रोल जतिन गोवस्वामी ने निभाया है. हालांकि यह जोड़ी भी फिल्म को एक अच्छे स्तर पर नहीं ले जा पाती. फिल्म के सभी करेक्टर और उनके मोटिवेशंस एक भूलभुलैया की तरह लगतें है और निर्देशक कुशन नंदी की लाख कोशिशों के बाद भी यह फिल्म निराश करती है.
बिदिता बैग ने फुलवा की सेंशुवालिटी को बखूबी निभाया है, वहीं दिव्या दत्ता ने भी पॉलिटिशियन का किरदार बहुत ही सरल तरीके से निभाया है. फिल्म में आखिर तक ऑडियंस को जोड़े रखने वाली कोई बात नहीं है और दुख तो तब होता है जब फिल्म नवाज की हो.
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