ऐसा सिनेमाघर आपने नहीं देखा होगा. ये जो पत्थर आपको ऊपर की तस्वीर में दिख रहा है वो इसलिए रखा है कि इस मेकशिफ्ट थियेटर का दरवाजा खुल न जाए. पत्थर हटने पर दरवाजा खुल जाता और अंदर थियेटर में फिल्म देख रहे दर्शकों को दरवाजे से रिस कर आने वाली रोशनी से दिक्कत होती.
दरअसल ये पत्थर गवाह है कि किन हालात में और कितने कम संसाधनों के साथ कौतिक इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन आयोजकों ने किया.

इस तरह के मेकशिफ्ट थियेटर में फिल्में दिखाई गईं
(फोटो:क्विंट हिंदी)
फिल्मों से प्यार, झुक गया पहाड़
फेस्टिवल डायरेक्टर का जज्बा और उनकी लगन देखकर दंग रह गया. फेस्टिवल डायरेक्टर राजेश शाह कभी कुर्सियां उठाते दिखते थे. ठिठुरती ठंड में सुबह 4.30 बजे जब मैं महासीर फिशिंग कैंप पहुंचा, तो यही राजेश मेरा स्वागत करने के लिए खड़े नजर आए थे. महासीर फिशिंग कैंप के मालिक करन कभी जूठे बर्तन उठाते दिखते थे तो कभी भाग-भाग कर खाने के इंतजाम देखते नजर आते थे. आर्टिस्टिक डायरेक्टर शालिनी शाह को जब देखा वो किसी को कुछ हिदायत देती दिखीं, कभी फेस्टिवल में आए स्टूडेंट्स को समझातीं-डांटतीं, कभी फिल्मकारों को ताकीद करतीं कि स्क्रीनिंग शुरू हो गई है, जल्दी जाएं. लेकिन उनकी हर बात में एक ही फिक्र की फेस्टिवल कामयाब हो. एडवाइजरी बोर्ड मेंबर क्रिस्टोफर डाल्टन को मेज उठाते कोई कह नहीं सकता था कि वो फिल्म समीक्षक और लेखक हैं, कई फिल्मोत्सवों के आयोजन में अहम भूमिका निभाते हैं. थियेटर के बाहर दर्शकों को इंतजार करता देख डाल्टन का नाराज होना खलता नहीं, अच्छा लगता था. राइटर मिलन, देवांश जैसों का जोश देखते बनता था.
कुल मिलाकर इन लोगों ने वो करने की ठानी है, जो लगभग नामुमकिन है. ये कौतिक इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का छठा साल था. उत्तराखंड के अंदरूनी इलाके, अल्मोड़ा स्थित महासीर फिशिंग कैंप तक दुनिया भर से अच्छी फिल्में मंगाना, दुनिया भर के फिल्म निर्मातों को जुटानाा, उनके लिए ठहरने और खाने का इंतजाम करना दुरूह काम है और खर्चीला भी. और अगर ये सब करने के लिए पर्याप्त संसाधन भी न हों तो ये नामुमकिन ही लगता है. लेकिन फिल्मों के प्रति पैशन ही है, जिसने इस आयोजन को सफल बनाया.
जिम कार्बेट के पास, दुर्गम जगह के बजाय अगर ये फिल्म फेस्टिवल देहरादून या किसी और सुगम शहर में होता तो शायद परेशानियां इतनी नहीं होतीं. लेकिन पहाड़ों के आगोश में, इस दुरुह जगह पर फेस्टिवल करना ही इसे खास बना रहा था. वाई-फाई और शहरी शोर शराबे से दूर तीन दिन फिल्मों के नाम, फिल्में देखने-सीखने के नाम.
पैनल चर्चा में देश और दुनिया के फिल्मकार
(फोटो:क्विंट हिंदी)
फेस्टिवल में 44 देशों की फिल्में, डॉक्यूमेंट्री, एनिमेशन फिल्में, शॉर्ट फिल्में दिखाई गईं. ईरान फोकस देश था, लेकिन कनाडा, इटली, ब्राजिल, अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, पोलैंड, जापान, नेपाल, बांग्लादेश, ग्रीस और मोरक्को जैसे देशों से भी फिल्में आईं. वीजा की तमाम दिक्कतों के बावजूद ईरान से फिल्म निर्माता अकबर आए,कनाडा से जूडी आईं, बांग्लादेश और नेपाल से भी फिल्म मेकर आए.
'बटरफ्लाई ऑन द विंडोपेन' बेस्ट फिल्म
2023 ऑस्कर के लिए बेस्ट लाइव एक्शन शॉर्ट फिल्म कैटेगरी में नामित महर्षि तुहिन कश्यप की फिल्म 'दि हॉर्स फ्रॉम हेवेन' यहां दिखाई गई. चिनमय देशपांडे की 'पाउंड ऑफ फ्लेश' ने तारीफ बटोरी.
बेस्ट फिल्म का पुरस्कार नेपाल की 'बटरफ्लाई ऑन द विंडोपेन' को दिया गया. इसी फिल्म के लिए बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड दिनेश खत्री ने जीता. बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड संयुक्त रूप से 'क्रीम ऑफ क्रॉप' के लिए मंसूर ने भी जीता.
स्पेशल मेंशन फॉर बेस्ट फिल्म के लिए स्पेन की 'मगाडो' को चुना गया.
भारत की फीचर फिल्म 'अनंता' को बेस्ट सिनेमाटोग्राफी का पुरस्कार दिया गया.
सर्वोत्तम अभिनेत्री का पुरस्कार कंचन चिमरिया ने 'बटरफ्लाई ऑन द विंडोपेन' और 'क्रीम ऑफ द क्रॉप' के लिए बाटा ने जीता.
बेस्ट शॉर्ट फिक्शन का पुरस्कार 'चिल्ड्रेन ऑफ वाइल्ड ऑर्किड' को मिला.
बेस्ट डॉक्यूमेंट्री नेपाल की 'दि आयरन डिगर' ने जीता.
बेस्ट एनिमेशन का अवॉर्ड 'दाऊ शैल डान्स' ने को मिला.
महोत्सव के समापन समारोह में उत्तराखंड के पर्यटन और संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज पहुंचे और फिल्मकारों को उत्तराखंड में फिल्में बनाने के लिए आमंत्रित किया. उन्होंने राज्य में फिल्म निर्माण के लिए सरकार की तरफ से दी जाने वाली सुविधाओं का जिक्र किया और ऐसी कुछ कहानियों के बारे में भी बताया जिनपर फिल्में बनाई जा सकती हैं.

समापन समारोह में उत्तराखंड के पर्यटन और संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज और फिल्म आयोजक राजेश शाह, शालिनी शाह
(फोटो:क्विंट हिंदी)
क्या ये बेहतर हो सकता था?
क्या यहां बेहतर फिल्में आ सकती थीं, क्या फिल्में देखने के लिए बेहतर इंतजाम हो सकते थे? जरूर हो सकते थे. लेकिन ये मंजिल नहीं, पहाड़ का सफर. मुश्किलों को पार कर चलते जाना ज्यादा जरूरी है. मंजिल तो मिल ही जाएगी. फिल्म बनाने और फिल्म देखने की समझ पैदा करना वहां जरूरी है, जहां आज की सुपरहिट कहानियां पनपती हैं. छोटे शहरों में, गांवों में, कस्बों में. बड़े शहरों का सोता सूख चुका है. बॉलीवुड के बड़े स्टारों की दुर्गति यही इशारा कर रही है. भारत की फिल्म को दुनिया में वटवृक्ष बनाना है तो ऐसे ही सुदूर जगहों पर पौधे लगाने होंगे. कौतिक फिल्म फेस्टिविल यही कर रहा है.
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