नॉर्वे के पेंटर एडवर्ड मंच की एक पेंटिंग सभी ने देखी होगीं. दुनिया में सबसे महंगी बिकने वाली पेंटिंग में इसे शुमार किया जाता है. इसमें एक स्त्री किसी पुल पर खड़ी है और चीख रही है. उसका खुला हुआ मुंह उसकी चीख की तीव्रता, वेग और गहराई को दर्शा रहा है. मंच की इस पेंटिंग का शीर्षक था स्क्रीम या चीख. मनोज बाजपेयी की फिल्म ‘गली गुलियाँ’ भी एडवर्ड मंच की चीख के मानिंद (समान) ही है. इस चीख में कोई आवाज़ नहीं कोई शोर नहीं. यह एक मूक चीख है, पर उसकी आवाज़ बहुत तीखी है. फिल्म ख़त्म होने के बाद भी चीख सुनाई देती है. यह चीख सिर्फ सुनाई नहीं देती, वह दिखती भी है, उसका स्वाद भी मुंह में बना रहता है, फिल्म के ख़त्म होने के घंटों बाद भी.
कैसे और कौन जाए, दिल्ली की गलियों को छोड़कर
मशहूर शायर जौक ने लिखा था: कौन जाए जौक, दिल्ली की गलियां छोड़ के. ‘गली गुलियाँ’ में दिल्ली की गलियों की घुटन को तो छुआ जा सकता है. किरदार मानों चीख कर कहते हैं: कब और कैसे निकलें दिल्ली की गलियाँ छोड़ के. मनोज बाजपेयी फिल्म में 'खुद्दूस' लीड रोल में हैं. अस्तित्ववादी नायक की तरह दुनिया में ‘फेंके गए’ और इस बात से बिलकुल अनजान कि उन्हें आखिर क्यों यहाँ, दिल्ली की दमघोंटू गलियों में ‘फेंक दिया गया’ है. पूरी फिल्म में मनोज अचंभित (आश्चर्यचकित) और सदमें का शिकार दिखते हैं. जैसे पात्र अभी अभी किसी सदमें से गुजरे हों, हैरान हो. दुनिया के तौर तरीकों से अनजान और परेशान.
फिल्म के पात्र खुद्दूस (मनोज बाजपेयी) पुरानी दिल्ली की पतली गलियों को क्लोज सर्किट कैमरा से देखता रहता है. ये गलियां उसे आकर्षित भी करती हैं, और परेशान भी. उसका मन भी इन्हीं गलियों की तरह किसी भूलभुलैया जैसा है. उसके लिए ये एक पलायन भी हैं, और बीमारी भी. ये गलियां और उनमें फंसा हुआ उसका मन. लगता है जैसे बहुत पहले ही उसने वास्तविक दुनिया से अपना मुंह मोड़ लिया है. उसकी तरफ अपनी पीठ कर ली है और अब सिर्फ यह क्लोज सर्किट कैमरा ही एक सेतु बने हुए हैं. उसके और जीवन की वास्तविकता के बीच.
कैमरा की बदौलत वह जीवन के साथ, उसके बीच भी रह सकता है और उससे दूर भी. उसमें जिए बगैर वह उसे देख सकता है. आकर्षण और विकर्षण के बीच फंसे हुए एक असहाय इंसान की थेर गाथा है ‘गली गुलियाँ’. समाज के प्रति उसका एक रुग्ण लगाव है. उसका दोस्त गणेशी उसे किसी तरह पागलपन में खो जाने से रोकता है, एक मां की तरह. पर वह भी उससे हार मान लेता है.
दमघोंटू माहौल की चीखें
खुद्दूस उस पुराने शहर की बेतरतीब (Random) गलियों को जीता है. उसकी देह और मन उन गलियों की तरह ही भ्रमित और उदास हैं. गलियां बाहर हैं, उसके मन में भी हैं. उसका मन ही पुरानी दिल्ली की गलियों-सा है. बरसों का अकेलापन और टेक्नोलॉजी उसके जीवन को और मुश्किल बनाते हैं. इसी दमघोंटू माहौल में वह इद्दु की चीखें, उसके गालीबाज पिता की आवाजें सुनता है. इद्दु अपने परिवार से, इस दमघोंटू (दम घोंटनेवाली) माहौल से दूर हटना चाहता है और इस बात को ज़ाहिर भी करता है, शब्दों में. पर खुद्दूस इसी माहौल को महसूस करते हुए भी इसकी वेदना को व्यक्त नहीं कर पाता. जमाने ने उसकी जुबान को जैसे जंग लगा दिया है. वह लगातार एक सदमें में है. देखता है, महसूस करता है, पर बोल नहीं पाता.
फिल्म निदेशक दीपेश जैन की पहली फीचर फिल्म है. इसे एक मनोवैज्ञानिक थ्रिलर के रूप में प्रचारित किया गया है. किसी पात्र के मनोवैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण के रूप में ऐसी फिल्म शायद लम्बे समय से नहीं आई. कहीं- कहीं यह फिल्म पंकज त्रिपाठी की ‘लाली’ की याद दिलाती है. कम शब्द, ऊब और एक अजीब किस्म की मूक बेचैनी. एक रुग्णता, जिसके लिए कोई शब्द नहीं. बस बोझ में पिसते इंसान की शब्दविहीन चीख है. आस पास के समाज को देखता उसका अचंभित मौन है. गहरी उदासी है और उसकी अभिव्यक्ति की व्यर्थता का अहसास है.
यह पिछले कुछ बरसों में आने वाली सबसे अच्छी फिल्मों में है, इसमें कोई संदेह नहीं. मनोज बाजपेयी बोलते कम हैं, पर उनकी देह भाषा खूब बोलती है, और लोग सुन भी पाते हैं. उनका मुखर मौन शब्दों की कमी को बखूबी पूरा करता है. जिस तरह से मनोज बाजपेयी घुटा घुटा महसूस करते हैं, ठीक वैसे ही फिल्म के दर्शक भी क्लॉस्ट्रोफोबिक महसूस करते हैं. फिल्म की खूबी यही है कि उसके पात्रों की तरह दर्शक को भी यही बेचैनी महसूस होती है कि कब यह घुटन ख़त्म हो. कब वे अपनी मानसिक गलियों से बाहर निकलें, कब वे दिल्ली और अपने मन की बंद और सांस रोक देने वाली गलियों से मुक्ति पाएं. फिल्म की गलियां भौतिक और मानसिक दोनों तरह से ही दम घोंटू हैं.
बीमारी का मर्ज, बीमारी से ज्यादा तकलीफदेह लगता है
दिल्ली की गलियों का एक रोमांस है. जो वहां रहे हैं, वे उनकी अपने तरीकों से तारीफ करते हैं. अपने पहले प्यार की, अपनी पढाई लिखाई की, अपने बचपन की. एक तरह से गली गुलियाँ इस रोमांस के गुब्बारे में पिन चुभोने का काम भी करती है. फिल्म की गलियों में हर इंसान अकेला है. अपने दम घोंटू माहौल में धुएं के बीच, नशे के बीच किसी तरह से जीता है. लोगों में उसकी दिलचस्पी तो है, पर दूर से. एक कैमरे से वह बस उनको देखता है. उनके बीच जाकर जीने में उसे सोशल एंग्जायटी (एक मानसिक रोग) होती है. सडक पर चलते चलते वह अचानक भागने लगता है. उसे लगता है, समाज का हर व्यक्ति उसे ताक रहा है. उसकी कमजोरियों को समझ रहा है. अपने भ्रमों को वह भ्रम नहीं समझता, सचाई समझता है.
खुद्दूस इस माहौल में भी परेशान है एक बच्चे के लिए, जो उसकी समझ से पारिवारिक हिंसा का शिकार हो रहा है. वह खुद मानसिक रूप से असंतुलित है, पर इस बच्चे की फ़िक्र उसे लगातार लगी रहती है. हालाँकि वह उसके बारे में कुछ कर नहीं पाता पर फिर भी यह फ़िक्र एक तरह से उसके जीने का मकसद बनी हुई है. फिल्म की एक ख़ास बात और है कि इसका हर पात्र या तो उदासी का शिकार है, अपने अपने ढंग से उस उदासी को दूर करने की कोशिश में लगा है, या फिर उसके अंदर एक अजीब किस्म की नकारात्मकता और विषाक्तता है. इस विष का उसके पास कोई समाधान नहीं. वह बस उसे जिए जा रहा है.
पुरानी दिल्ली की उलझी हुई गलियों में खुद्दूस की बेचैनी, मानसिक रुग्णता और उलझनों को व्यक्त कर पाने में निर्देशक दीपेश जैन काफी हद तक कामयाब हुए हैं. इस फिल्म में के दृश्य और गलियाँ भी इसके पात्र की तरह हैं. इस फिल्म को किसी बड़े शहर की चकाचौंध के बीच फिल्माया ही नहीं जा सकता था. गलियों की घुटन इसके पात्रों की अंदरूनी घुटन और बेचैनी को दिखाती है. दर्शकों तक भी यह घुटन खूब पहुँचती है. कई लोगों को यह बोर करे, तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए. फिल्म एक ऐसी दुनिया की झलक दिखाती है, जहाँ सभी प्रताड़ित हैं, सभी की रूह पर गहरे ज़ख्म हैं. सभी खो गए हैं, अपने दर्द के साथ. उनके पास अपनी ज़िंदगी से बचने के ही रास्ते नहीं बचे हैं. बीमारी का मर्ज, बीमारी से ज्यादा तकलीफदेह लगता है. ‘गली गुलियाँ’ में अस्तित्ववाद का दर्शन अपनी समूची निर्ममता के साथ खिल कर सामने आया है.
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