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सांड की आंख Review: जबरदस्ती के नाच-गाने ने हकीकत से कर दिया दूर 

सांड की आंख का मतलब है ‘बैल की आंख’ और ये शब्द शायद चंद्रो और प्रकाशी तोमर के लिए ही बनाया गया है. 

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‘सांड की आंख’: जबरदस्ती के नाच-गानों ने हकीकत से कर दिया दूर

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सांड की आंख का मतलब है 'बैल की आंख' और ये शब्द शायद चंद्रो और प्रकाशी तोमर के लिए ही बनाया गया है. क्योंकि लंबे घूंघट में छुपी इन दादियों ने अपने निशानेबाजी के गुर और पक्के इरादे से अपनी एक नई पहचान बनाई और पूरी दुनिया में 'शूटर दादी' के नाम से जानी गईं.

डायरेक्टर तुषार हीरानंदानी की फिल्म 'सांड की आंख' चंद्रो और प्रकाशी तोमर की जिंदगी से प्रेरणा लेने वाली फिल्म है. फिल्म की शुरुआत साल 1999 से होती है. और मुलाकात होती है उत्तर प्रदेश के बागपत के जोहड़ी गांव की रहने वाली इन जबाज महिलाओं से, जहां वो पुरानी और रूढ़िवादी सोच के बीच अपनी खुशियां ढूंढ़ती नजर आती हैं.

ये महिलाएं, जिनके लंबे घूंघट के बीच उनकी पहचान उनके दुप्पटों के रंग से की जाती है. ये वो महिलाएं हैं, जो आदमियों के बिना घर से बाहर नहीं जा सकतीं. इनका सिर्फ एक ही काम है शादी करना और पति की सेवा करना. इसलिए ये किसी चमत्कार से कम नहीं है कि इन बंदिशों को तोड़कर और घूंघट से बाहर निकलकर चंद्रो और प्रकाशी 'शूटिंग' की महारत हासिल करती हैं.

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‘सांड की आंख’ में हमारे दिल की धड़कन तब रूक जाती है, जब आप तापसी पन्नू और भूमि पेडनेकर पर्दे पर इस जद्दोजहद से जूझते हुए दिखाई देती हैं.   

एक बात तो तय है कि अगर महिलाओं ने अपना एक सटीक लक्ष्य बना लिया तो शायद ही उसे कोई हिला पाए. लेकिन बलविंदर सिंह जंजुआ स्टोरी को बताने में नाकामयाब रहे.

फिल्म में कई मैच दिखाए गए, जहां शार्प शूटर दादी निशाने लगाती हैं, लेकिन बार-बार वही सींस रिपीट होते हैं और कहानी बोरिंग लगने लगती है. फिल्म में जबरदस्ती नाच-गानों का इस्तेमाल करना स्टोरी को कमजोर बनाता है. और रियल लाइफ बेस्ड ये स्टोरी अचानक फिक्शनल लगने लगती है. फिल्म की स्क्रिप्ट में कई कमियां नजर आती हैं और अगर एडिटिंग की बात करें तो फिल्म खींचतान कर लंबा किया है.

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तापसी और भूमि अपने प्रोस्थेटिक मेकअप में 80 साल की बुजुर्ग महिलाएं बनने की कोशिश कर रहीं हैं, जो कि उनके बाल से लेकर स्किन तक कुछ मैच नहीं कर रहा. लेकिन अगर एक्टिंग की बात करें तो दोनों ने अपने किरदारों को निभाने की भरपूर कोशिश की है. प्रकाश झा ने रतन सिंह का किरदार बेहतरीन तरीके से निभाया है. और इन दादियों के कोच के किरदार में यशपाल ( विनीत कुमार) भी कमाल हैं.

रूढ़िवादी सोच और लिंग भेद अचानक गायब नहीं होते हैं. ये धीरे-धीरे की खत्म होते हैं. दादियों ने पहले खुद के लिए संघर्ष किया फिर अपनी बेटियों के लिए. अगर पूरी फिल्म की बात करें तो सांड की आंख और बेहतरीन हो सकती थी, अगर इसकी कहानी को क्रिस्प रखा जाता.

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