Bollywood Patriotic Movies: "POK का मतलब है पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर. तुमने कब्जा किया है, मालिक हम हैं" - सिद्धार्थ आनंद की 'फाइटर', जिसमें ऋतिक रोशन और दीपिका पादुकोण मुख्य भूमिका में हैं, 25 जनवरी को सिनेमाघरों में रिलीज होने जा रही. आर्टिकल के पहले लाइन में जो डायलॉग लिखा है, उसकी वजह से फाइटर के ट्रेलर को भारी आलोचना का सामना करना पड़ा है.
दशकों से हिंदी सिनेमा अपने देश के प्रति आक्रामक समर्पण का गवाह रहा है. तिरंगे को लहराते या राष्ट्रगान बजाते, हमारे हीरो हाथों में बंदूक थामे गोलियां बरसाते नजर आते हैं.
मनोज कुमार की 'उपकार' (1965) ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के युद्धकालीन नारे 'जय जवान जय किसान' को लोकप्रिय बनाया, 50 और 60 के दशक में 'नया दौर', शहीद जैसी फिल्में भी आईं, जिसने स्वतंत्रता संग्राम और किसानों की चिंताओं के बारे में बात की. हमारे पास चेतन आनंद की 'हकीकत' जैसी फिल्म भी थी, जिसमें युद्ध के भयानक परिणामों को दिखाया गया.
90 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में देशभक्ति के तीखे प्रदर्शन से गदर, लक्ष्य और बॉर्डर जैसी फिल्मों के साथ मूड बदल गया.
हाल का समय अधिक अस्थिर रहा है. अब यह सिर्फ "माटी के लाल" का जश्न नहीं मना रहा है, बल्कि यह उन बेटों को चिल्लाने पर मजबूर कर रहा है कि कौन "मालिक" और "बाप" हैं.
हालांकि, हिंसक देशभक्ति के दुष्चक्र से बच पाना मुश्किल है, ऐसे में आइए कुछ ऐसी फिल्मों पर नजर डालें जो एक अलग नजरिया दिखाती हैं-
चक दे इंडिया और स्वदेश - हमारे देश को गौरवान्वित करने वाली फिल्में
शाहरुख खान की इन दो फिल्मों ने हमें दिखाया है कि जब किसी को अपने देश से प्यार का इजहार करना हो तो उसे हर दूसरे वाक्य में चिल्लाकर बताने की जरूरत नहीं है.
चक दे! इंडिया एक कमजोर महिला हॉकी टीम की कहानी बताता है, जिसका नेतृत्व एक कोच कबीर खान (शाहरुख) करते हैं और एक अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में उनकी शानदार जीत होती है. कबीर और महिलाओं (अलग-अलग राज्यों से आने वाली) ने एक साथ आकर अपने पूर्वाग्रहों को त्याग दिया.
फिल्म दिखाती है कि सिर्फ बाहरी दुनिया ही नस्लवादी और पक्षपाती नहीं है, राष्ट्रीय हॉकी टीम की महिलाएं भी इसका हिस्सा हैं. लड़कियों को हम आपस में लड़ते और झगड़ते देखते हैं, और उन्हें सिखाने के लिए कबीर की जरूरत होती है
फिल्म के एक सीन में, कबीर टीम को सही से गेम खेलने के तरीके के बारे में गाइड कर रहे होते हैं. जब वह खिलाड़ियों से अपना परिचय देने के लिए कहते हैं, तो वे अपने-अपने राज्यों और क्षेत्रों का नाम बताकर अपना परिचय देती हैं. जिस पर कोच जवाब देता है...
"मुझे राज्यों के नाम न सुनाई देते हैं न दिखायी देते हैं, सिर्फ एक मुल्क का नाम सुनायी देता है... इंडिया"
उन्हें याद दिलाते हैं कि जब उन्होंने एक राष्ट्रीय टीम के लिए खेलने का फैसला किया है तो वे अपने व्यक्तिगत गौरव और अहंकार को छोड़ दें. देशभक्ति का मतलब सिर्फ युद्ध करना नहीं है, इसका मतलब गहरी जड़ों वाली धारणाओं को छोड़ना और एक-दूसरे के प्रति दयालु होना भी है.
फिल्म के कोर में एक ऐसे शख्स की जीत की कहानी भी है, जिसे सालों पहले सिर्फ उसके धर्म के आधार पर देशद्रोही करार दिया गया था और बहिष्कृत कर दिया गया था.
कबीर खान के लिए सिर्फ वर्ल्ड कप की एक बेहतरीन टीम बनाना ही काफी नहीं है, उनसे जीत की उम्मीद भी की जाती है. यह विडम्बना है कि "बहुसंख्यक समाज" से आने वाले कोच से समान अपेक्षाएं नहीं की जाती. जिस देश को इस समय धर्म की तलवार से आधा-अधूरा बांटा जा रहा है, वहां कबीर खान जैसी कहानियां बार-बार सुनाई जानी चाहिए.
दूसरी ओर, फिल्म 'स्वदेस' एक एनआरआई की भारत वापसी की कहानी है. फिल्म में मोहन भार्गव (शाहरुख) की अपने देश की यात्रा का असल मकसद अपनी कावेरी अम्मा को ढूंढना और उन्हें अपने साथ अमेरिका वापस ले जाना है, लेकिन समय के साथ मोहन को एहसास होता है कि जिस गांव में कावेरी अम्मा रहती हैं, उस गांव को मोहन के स्किल और मोहन की जरूरत है.
'स्वदेस' हमें देश के गांव में वापस ले जाता है और हमें दुनिया के संघर्षों और छोटी-छोटी खुशियों से परिचित कराता है. यह देखते हुए कि भारत की अधिकांश आबादी छोटे शहरों और गांवों में रहती है, हमें ऐसे लोगों की कहानियों की ज्यादा जरूरत है, जो असल में देश की रीढ़ हैं.
'न्यूटन' लोकतंत्र के लिए आम आदमी की लड़ाई
अगर आप देशभक्ति के बारे में बात कर रहे हैं, तो लोकतंत्र को संरक्षित करने के लिए अपनी कोशिश करने वाले एक सरकारी कर्मचारी से ज्यादा मार्मिक कुछ भी नहीं है. अमित मसुरकर की फिल्म 'न्यूटन' राजकुमार राव हैं, जो लोकसभा चुनाव कराने के लिए छत्तीसगढ़ के जंगलों में बसे दो गांवों में जाते हैं. ये गांव, जहां सिर्फ 76 मतदाता हैं, वो नक्सलियों और सरकार के बीच सशस्त्र संघर्ष में फंसे हुए हैं.
न्यूटन जंगलों में लोकतंत्र और व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं, लेकिन जैसे-जैसे परतें खुलती हैं, उन्हें एहसास होता है कि वह इन लोगों की वास्तविकताओं से कितना दूर है और हमें यह भी पता चलता है कि वह कोई हीरो नहीं है.
बाकी 'देशभक्ति' फिल्मों के उलट, 'न्यूटन' में किसी जीत की कहानी नहीं है. हममें से कई लोगों ने एक निष्पक्ष और न्यायपूर्ण दुनिया की उम्मीद खो दी है. ऐसी कई खाइयां हैं जिन्हें पाटने की जरूरत है, लेकिन अभी भी न्यूटन जैसे लोग हैं जो मजबूती से टिके हुए हैं और हालात के बदलने का इंतजार कर रहे हैं.
रंग दे बसंती - हक के लिए विद्रोह
राकेश ओमप्रकाश मेहरा की इस साहसी फिल्म में कहा गया है कि व्यवस्था आज भी उतनी ही भ्रष्ट है, जितनी ब्रिटिश काल में गुलाम बनाने वाली थी और आजादी तभी मिलेगी, जब हम विद्रोह करेंगे. जो सही है, उसे करने की लड़ाई में मेहरा किसी को गांधी की समाधि के सामने नतमस्तक होने के लिए नहीं कहते हैं.
फिल्म के सबसे प्रभावशाली दृश्यों में से एक में, मेहरा लंदन के एक फिल्म निर्माता सू के जरिए से एक रास्ता चुनते हैं, जो भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकुल्ला खान, दुर्गा वोहरा और बिस्मिल के जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहती है. उसके बॉस ने उससे महात्मा गांधी पर फिल्म बनाने पर सोचने के लिए कहा था, क्योंकि "गांधी की कहानी" ज्यादा देखी जाती है. लेकिन वह इस आइडिया से इंकार करती है क्योंकि जरूरत अहिंसा पर बात की नहीं बल्कि जो सही है, उसके लिए खड़ा होना है.
इस फिल्म में प्रोटेस्ट मार्च का नेतृत्व करने वाले एकजुट युवा सभी धर्मों के हैं, जैसा कि आजकल हम फिल्में में इसके उलट देखते हैं, जिसमें खलनायक हमेशा आंखों में काजल लगाने वाला मुस्लिम होता है.
गुंजन सक्सेना और राजी - हमारे वॉर हीरो भी इंसान हैं
हालांकि, बिना किसी शक के कारगिल युद्ध भारत के लिए निर्णायक क्षणों में से एक था, हम अक्सर इस बारे में बात नहीं करते हैं कि इसमें हिस्सा लेने वाले लोगों की जिंदगी सिर्फ बॉर्डर पर लड़ने से आगे भी है.
जान्हवी कपूर-स्टारर 'गुंजन सक्सेना' ऐसी ही एक कहानी बताती है - युद्ध में लड़ने वाली भारत की एकमात्र महिला IAF पायलट की कहानी कहती हैं ये फिल्म.
फिल्म में एक प्वाइंट पर, गुंजन सवाल करती है कि क्या वह सच्ची देशभक्त है? क्योंकि वह हवाई जहाज उड़ाने के अपने जुनून को जीने के लिए एयरफोर्स पायलट बनी थी. जंग के शोर से दूर, कहानी एक छोटी लड़की की महत्वाकांक्षाओं के बारे में थी.
'राजी' में सहमत (आलिया भट्ट) को अंडरकवर रॉ एजेंट के तौर पर पाकिस्तान भेजा जाता है. उसे दोहरा जीवन अपनाना पड़ता है और जबकि ज्यादातर बॉलीवुड फिल्में जासूसों के रोल का महिमामंडन करती हैं, राजी गंभीर असलियत दिखाती है.
सहमत को एहसास है कि उसकी हर हरकत के गंभीर परिणाम होंगे. वह देश के लिए लड़ने के लिए अपनी पूरी पहचान छोड़ने के नकारात्मक पहलू से अनजान नहीं है.
इन दो महिलाओं के व्यक्तिगत संघर्ष और कहानियां, फिल्मों को और ज्यादा असली और मानवीय वाला बनाती हैं. फिल्में यह भी दिखाती हैं कि 'सच्चे देशभक्ति' का मतलब देश के लिए सिर्फ अपना बलिदान देना नहीं है, बल्कि यह भी सवाल उठाना है कि उन बलिदानों का मतलब क्या है?
क्या अपना देश प्रेम दिखाने के लिए दूसरे को नीचा दिखाना जरूरी है?
'फाइटर' उन फिल्मों की लिस्ट में शामिल हो गई है, जो देश के प्रति वास्तविक प्रेम पर पूरी तरह से हावी हो रही है. एक समय था जब देश के युवा, 'ऐ मेरे वतन के लोगों,' 'सारे जहां से अच्छा,' 'मेरे देश की धरती,' 'ये देश है वीर जवानों का' जैसे गानों के साथ बड़े हो रहे थे.
आज, यह एक चिंताजनक तस्वीर है. गदर 2, उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक, बेबी, हॉलिडे, फाइटर जैसी फिल्मों में उग्र राष्ट्रवाद का ब्रांड देश के लिए साधारण प्रेम नहीं है, यह एक श्रेष्ठता की भावना से भरा हुआ है जो ज्यादातर पाकिस्तान से नफरत करने और चीन को पछाड़ने के साथ आता है.
यह हिंसक है, और अंधराष्ट्रवाद का डोज हर गुजरते दिनों के साथ बढ़ता जा रहा है. हम पहले से ही एक बंटी हुई दुनिया में रह रहे हैं, क्या देश के प्रति अपने प्यार का इजहार करने के लिए दूसरे देशों को खलनायक बनाना जरूरी है?
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