“मैट्रिक्स वो दुनिया है, जिसे आपको सच से अंधा करने के लिए आपकी आंखों के सामने रखा गया है.”सोशल डिलेमा (The Social Dilemma) देखने के बाद इन चीजों का डर मुझे सता रहा है. सोशल डिलेमा तकनीक के लत, सामाजिक इंजीनियरिंग और सर्विलांस के पूंजीवाद के मुद्दों पर आधारित है.
1999 की साइंस फिक्शन फिल्म “The Matrix” में मॉर्फियस के ये शब्द सबसे ज्यादा सोशल मीडिया के दौर में विकसित हुए हैं. सोशल मीडिया जो कि बस इस उद्देश्य से शुरू हुआ था ताकि लोग आपस में जुड़े रहें, दोस्ती बनी रहें.
आज वही दुनिया के एक हिस्से में हिंसा भड़काने के आरोप लिए और एक हिस्से में चुनाव प्रभावित करने के आरोप लिए बैठा है. शून्य से इस मिराज तक पहुंचने में इसे 20 साल भी नहीं लगे. नेटफ्लिक्स की नयी डॉक्यू ड्रामा “सोशल डिलेमा” ने भी कोशिश की है ये दिखाने की कि कैसे सोशल मीडिया का हानिकारक असर कितनी सावधानी से बनाया गया है ना कि किसी विसंगति का हिस्सा है.
जेफ ऑर्लोस्की के निर्देशन में बनी 93 मिनट लंबी ये फिल्म तकनीक की लत, सामाजिक इंजीनियरिंग और सर्विलांस पूंजीवाद पर केंद्रित हैं. लेकिन एक इंसान को कैसे खबरों और जानकारियों की बर्फबारी से भरी फिल्म से निकलना चाहिए. दूसरे शब्दों में, फिल्म के संदेश को सही तरीके से समझने और आत्मसात करने के लिए क्या करना होगा?
मैट्रिक्स का ब्लू पिल रेड पिल डिलेमा हम सब इस मैट्रिक्स के छोटे न्यूरॉन्स हैं. जैसे पानी में मछली, वैसे ही हम भी इसमें रहते हैं. और इसलिए हमें इसके बारे में कुछ नहीं पता है. जैसा कि मॉर्फियस कहता है कि, बदकिस्मती से किसी को बताया नहीं जा सकता कि मैट्रिक्स क्या है.
आपको इसे खुद ही देखना होगा. लेकिन सोशल डिलेमा खुद ही ये जिम्मेदारी लेकर पूरा डिलेमा आपको दिखाएगा और अब जब सिलिकॉन वैली के लोगों ने, जिन्होंने Frankenst AI- n बनाया है, मैट्रिक्स की बात जान ली है, तो आगे क्या होगा? 1999 की हिट फिल्म में ब्लू पिल और रेड पिल की एक दुविधा सामने आती है. ब्लू पिल लेने से कहानी खत्म हो जाएगी और आप अगले दिन अपने बिस्तर पर दर्जनों नोटिफिकेशन्स के साथ उठेंगे और आप जो चाहेंगे उस पर भरोसा कर लेंगे.
लेकिन अगर आप रेड पिल लेते हैं तो आप जादूई दुनिया में एक खरगोश के बिल की गहराई नाप सकते हैं. पिल के रंग के इतर, ये पिल निगल पाना काफी कठिन होगा. वो भी उन जानकारियों के वजह से जिनका विस्फोट फिल्म आपको परोस रही है. क्विंट आपके लिए सब कुछ आसान तरीके से समझ पाने का तरीका लाया है. ताकि आपको याद रहे कि किन मुद्दों को ध्यान में रखना है.
इंटरनेट सोशल मीडिया के प्रभावात्मक और झांसा देने वाली प्रवृत्ति हमारे लिए नयी नहीं है. सोशल डिलेमा इस बात को थोड़ा और साफ तरीके से समझाती हुई दिखेगी. इसलिए सबसे पहले हमें उस पटरी को पहचानना होगा जिसपर सोशल मीडिया के रेल दौड़ती है. इसे दिखाने के लिए ये डॉक्यूड्रामा सबसे पहले तो सोशल मीडिया की खांचे से बाहर आकर इंटरनेट को बड़े फ्रेम से दिखाता है.
सोशल मीडिया बिल्कुल इस बड़े फ्रेम का हिस्सा है, लेकिन एक छोटा हिस्सा है. दर्जन भर से ज्यादा वो लोग जो सोशल मीडिया को बनाने के पीछे हैं, वो बताते हैं कि कैसे जो कुछ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जिस उद्देश्य से बनाए गए थे, अब अपना मतलब ही बदल चुके हैं. हममें से ज्यादातर लोगों के लिए इंटरनेट गूगल, ईमेल और सोशल मीडिया तक ही सीमित है. इनमें ज्यादातर कंटेंट यूजर जनरेटेड ही है.
मतलब हम अपने बारे में ये बातें खुद ही बताते हैं, जिससे हमारे विचार, स्वभाव और भी कई चीज़ें सामने आती हैं. लेकिन ये कैसे हुआ? एल्गोरिद्म से. हम एल्गोरिद्म के दौर में जी रहे हैं. कंप्यूचर प्रोग्राम्स और सोशल मीडिया ऐसे ही एल्गोरिद्म पर चलते हैं.
हम एल्गोरिद्म की दुनिया में रहते हैं. कंप्यूटर प्रोग्राम, ऐप्स, सोशल मीडिया सब एल्गोरिद्म पर चलता है. एल्गोरिद्म निर्देशों या एक्शंस का एक क्रम होता है, जो प्रॉब्लम-सॉल्विंग टास्क में फॉलो करना होता है.
‘Weapons of Math Destruction’ नाम की अपनी किताब में कैथी ओ नील ने बताया है कि कैसे हमारी रोजाना की जिंदगी को प्रभावित करने वाले फैसले इंसान नहीं, बल्कि मैथमैटिकल मॉडल तय करते हैं. थ्योरी में इन सब से निष्पक्षता आणि चाहिए. सभी को एक नियम से देखा जाता है और पक्षपात नहीं होता है. हालांकि, इसका उल्टा हो रहा है.
जो मॉडल आज इस्तेमाल हो रहे हैं वो पारदर्शी नहीं है, रेगुलेट नहीं किए जा रहे हैं, तब भी जब वो गलत हैं. सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात है कि इससे भेदभाव हो रहा है. अगर कोई गरीब बच्चा लोन नहीं ले सकता, क्योंकि लेंडिंग मॉडल को लगता है कि वो खतरा है, तो वो उस शिक्षा से दूर हो जाता है जो उसे गरीबी से निकाल सकती थी.ये उस दावे को विवादित बना देता है, जो कहता है कि डेटा ऑब्जेक्टिव है और नस्लवादी और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता.
हालांकि, बड़े डेटासेट पर ट्रेन किए गए AI ने फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी के मामले में दिखाया है कि इन सब भेदभावों की वजह से गलत और भेदभाव करने वाले फेस रिकॉग्निशन सॉफ्टवेयर आ रहे हैं और पुलिस और कानूनी एजेंसियां उनका इस्तेमाल कर रही हैं.
IBM ने ऐलान किया कि वो फेशियल रिकॉग्निशन बिजनेस से बाहर जा रही है. वहीं, अमेजन ने कहा है कि वो एक साल तक अपने सॉफ्टवेयर कानूनी एजेंसियों को नहीं बेचेगा. ये ऐलान महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये एल्गोरिद्म के प्रॉफिट कमाने पर चोट करते हैं. वो एल्गोरिद्म जो समाज को और ज्यादा अन्याय और आसमान बना रहे हैं.
सोशल मीडिया
जब फेसबुक 2006 में शुरू हुआ था तो उसके पास अपने प्लेटफॉर्म से पैसे बनाने के परिष्कृत तरीके नहीं थे. आज ये दुनिया की सबसे कीमती कंपनी है कि ये अपने विज्ञापन थर्ड पार्टी एडवर्टाइजर को बेचकर सैकड़ों करोड़ कमाती है.
डॉक्यूमेंट्री ये बात बताती है कि 'जब ऑनलाइन कुछ फ्री होता है, तो आप कस्टमर नहीं हैं, एक प्रोडक्ट हैं.' कुल मिलाकर एडवर्टाइजर्स फेसबुक के क्लाइंट हैं जो मार्क जकरबर्ग को फेसबुक और इंस्टाग्राम पर मौजूद करोड़ों लोगों के डेटा के लिए करोड़ों का भुगतान करे रहे हैं.
यहां पर ही एल्गोरिद्म्स खेल में शामिल होता है. फेसबुक अपने अपने यूजर्स के भारी तादाद में मौजूद डेटा के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को ट्रेंड करता है. जिससे कि वो पता लगा सके कि एडवर्टाइजर के प्रोडक्ट को कौन से लोग खरीदना चाहेंगे. इसी तरह वो खुद को इस तरह तैयार करते रहते हैं कि यूजर्स को ज्यादा से ज्यादा ऑनलाइन ला सकें और ज्यादा से ज्यादा एंगेज कर सकें.
सूट करने वाले फीचर्स जैसे जी भर के स्क्रोलिंग, पुश नोटिफिकेशंस से यूजर्स का मन लगा रहा है. इसके अलवा पर्सनलाइज्ड सुझाव हमारे एक्शन को न सिर्फ पहचानते हैं बल्कि असर भी डालते हैं. ये अपने यूजर्स को आसानी से एडवर्टाइजर्स का शिकार बना रहा है.
ये सर्विलांस पूंजीवाद का दौर है. इसमें सबसे बड़ी दिक्कत ये मोटिवेशन है, जो इन टेक कंपनियों जैसे कि फेसबुक, गूगल, अमेजॉन को ऐसे एल्गोरिद्म्स डिजाइन डेवलप करती हैं, जिससे कि हमारे व्यवहार पर असर पड़े. 'सर्विलेंस पूंजीवाद' शब्द को हारवर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर Shoshana Zuboff ने अपनी किताब 'द एज ऑफ सर्विलांस कैपिटलिज्म' मशहूर बनाया.
ये शब्द हमारी ऑनलाइन एक्टिविटी पर बड़ी तादाद में सर्विलांस को बयां करता है. वो भी तक जब हमें पता हीं नहीं होता और खासतौर पर हमारे इस डेटा का कमोडिटिकरण किया जाता है, ताकि आगे इससे व्यवसायिक फायदा उठाया जा सके.
इन ऑनलाइन कंपनियों द्वारा बहुत बड़ी तादाद में डेटा इकट्ठा किया जाता है और इसे लोगों की सोच को मालूम करने या प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. हमारी खरीदारी, व्यवहार, विचार प्रक्रिया को प्रभावित करके ये इतिहास में दुनिया के सबसे अमीर लोगों में शुमार हो रहे हैं.
द सोशल डिलेमा
हममें से ज्यादातर इंटरनेट पर यंग इंवेन्शन को देखते हैं. हालांकि ये एक उम्र तक नहीं देखना पड़ता था जब हमारी जिंदगी, समाज और दोस्ती इंटरनेट से अछूती थी. लेकिन फिर अचानक हमें बताया गया कि हम पर भी जलवायु परिवर्तन की तरह ये नई वैश्विक आपदा है. इस फिल्म में सोशल मीडिया के हेरफेर को अस्तित्व के लिए एक खतरा बताया गया है. यह काफी शानदार है, आंखे खोलकर रख देता है.
सोशल डिलेमा में आखिर क्या ‘सोशल डिलेमा’ है?
ये इस बारे में बिल्कुल नहीं है कि हमें फेसबुक डिलीट करना चाहिए या नहीं. सिर्फ फेसबुक को डिलीट कर देने से सर्विलांस कैपटलिज्म पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, एल्गोरिद्म का काम उन गलत सूचनाओं, भाषणों और विज्ञापनों को हम तक पहुंचाना है, जिन्हें हमने कभी चाहा ही नहीं था, या पसंद नहीं किया था. लेकिन जरूरी दुविधा ये है कि क्या हमें मान लेना चाहिए कि इंटरनेट का इंफॉर्मेशन ईको सिस्टम टूट चुका है, जबकि हम इसके हलचल भरे पानी के जरिए तैरना जारी रखते हैं.
ये समझना जरूरी है कि बड़ी कंपनियां समस्या को एक ऐसे रूप में तैयार कर रही हैं, जिन्हें वो सुलझा सकती हैं. (ज्यादा से ज्यादा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके)
हालांकि बड़ी टेक्निकल कंपनियां प्रॉफिट पर निर्भर करती हैं, यहां जिस तरह से चीजें चल रही हैं उसे बचने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जाता है. जैसे ‘द मैट्रिक्स’ में मॉर्फियस, नियो को पूछता है क्या सच है? सोशल मीडिया से यही सवाल पूछा जा सकता है कि सच क्या है? और आखिर आप कैसे निष्पक्ष सच को परिभाषित कर सकते हैं?
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