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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर पूरा विवाद क्या है?

Aligarh Muslim University: किसी शैक्षणिक संस्थान को 'अल्पसंख्यक दर्जा' देना क्या होता है?

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Aligarh Muslim University की 'अल्पसंख्यक दर्जे' की मांग चर्चा में है. सीजेआई चंद्रचूड की अगुआई में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की सात जजों की बेंच ने एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा बरकरार रखने वाली याचिका पर सुनवाई की. लेकिन दलीलें अधूरी रहीं. इस मुद्दे पर अब अगली सुनवाई 23 जनवरी को होगी. केंद्र सरकार ने इस याचिका का विरोध करते हुए कहा कि "एएमयू किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय का विश्वविद्यालय नहीं है. वह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता है." इस आर्टिकल में आपको बताते हैं कि एएमयू की अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने की मांग क्या है और केंद्र सरकार इसका विरोध क्यों कर रही है?

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर पूरा विवाद क्या है?

  1. 1. किसी शैक्षणिक संस्थान को 'अल्पसंख्यक दर्जा' देना क्या है?

    संविधान का अनुच्छेद 30(1) सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और प्रशासित करने का अधिकार देता है. यह प्रावधान यह गारंटी देकर अल्पसंख्यक समुदायों के विकास को बढ़ावा देने की केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता को मजबूत करता है कि यह उनके 'अल्पसंख्यक' संस्थान होने के आधार पर सहायता देने में भेदभाव नहीं करेगा.

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  2. 2. कब और कैसे हुई एएमयू की स्थापना ?

    उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ शहर में 467.6 हेक्टेयर में फैला हुआ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की उत्पत्ति का पता मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल (एमओए) कॉलेज से लगाया जा सकता है, जिसकी स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान ने मुसलमानों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने और सरकारी सेवाओं के लिए तैयार करने में मदद करने के लिए की थी. 1920 तक विद्यालय 'अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी' के रूप में परिवर्तित हो गया. एमओए कॉलेज की सभी संपत्तियां विश्वविद्यालय को हस्तांतरित कर दी गईं. एएमयू अधिनियम के शीर्षक में लिखा था: "अलीगढ़ में एक शिक्षण और आवासीय मुस्लिम विश्वविद्यालय को शामिल करने के लिए एक अधिनियम."

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  3. 3. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को 'अल्पसंख्यक दर्जा' देने का विवाद?

    एमएमयू के अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे का विवाद काफी पुराना है. साल 1967 में 'एस. अजीज बाशा और अन्य बनाम भारत संघ' केस में AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर पहली बार सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. उस समय भारत के मुख्य न्यायाधीश केएन वांचू की अगुआई में कोर्ट ने 1920 के एएमयू ऐक्ट में 1951 और 1965 में किए गए बदलावों की समीक्षा की थी. इन बदलावों ने यूनिवर्सिटी को चलाने के तरीके को प्रभावित किया था.

    एएमयू एक्ट में जो मुख्य बदलाव किए गए थे-

    • 1920 के अधिनियम के अनुसार आजादी से पहले विश्वविद्यालय का प्रमुख भारत के गवर्नर जनरल हुआ करते थे. लेकिन 1951 में इसे बदलकर 'लॉर्ड रेक्टर' के स्थान पर 'विजिटर' कर दिया गया और यह विजिटर भारत का राष्ट्रपति होता था.

    • साथ ही, एक ऐसा प्रावधान हटा दिया गया, जिसमें कहा गया था कि केवल मुस्लिम ही यूनिवर्सिटी कोर्ट का हिस्सा बन सकते हैं. इसके बाद गैर-मुस्लिमों को भी शामिल होने की इजाजत मिली.

    • इन बदलावों ने यूनिवर्सिटी कोर्ट के अधिकार कम कर दिए और एएमयू की कार्यकारी परिषद की शक्तियों को बढ़ा दिया. नतीजन, कोर्ट असल में 'विजिटर' की तरफ से नियुक्त निकाय बन गया.

    एएमयू की संरचना में इन बदलावों को सुप्रीम कोर्ट में कानूनी चुनौती का सामना करना पड़ा. याचिकाकर्ताओं ने मुख्य रूप से इस आधार पर तर्क दिया कि मुसलमानों ने एएमयू की स्थापना की और इसलिए, उन्हें इसका प्रबंधन करने का अधिकार था. इन संशोधनों की चुनौती पर विचार करते समय शीर्ष अदालत ने 20 अक्टूबर, 1967 को कहा कि एएमयू की स्थापना न तो मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा की गई थी और न ही इसका संचालन किया गया था.

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  4. 4. सुप्रीम कोर्ट ने 1967 के फैसले में क्या कहा था?

    सुप्रीम कोर्ट ने 1967 के अपने फैसले में कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक दर्जे का संस्थान होने का दावा नहीं कर सकता. कोर्ट ने कहा कि 1920 में मुसलमान भले ही एक विश्वविद्यालय स्थापित कर सकते थे लेकिन इससे यह गारंटी नहीं मिलती कि उस विश्वविद्यालय की डिग्री आधिकारिक तौर पर भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त होगी. इसलिए, कोर्ट ने जोर देकर कहा कि एएमयू की स्थापना एक केंद्रीय अधिनियम के माध्यम से की गई थी ताकि सरकार द्वारा उसकी डिग्री की मान्यता सुनिश्चित की जा सके.

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  5. 5. केंद्र सरकार ने किया एएमयू एक्ट में बदलाव

    अजीज बाशा केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश भर में मुस्लिमों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. जिसके बाद तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने 1981 में एएमयू अधिनियम में एक संशोधन पेश किया. संशोधन में धारा 2(1) और उपधारा 5(2)(C) पेश की गई. जिसमें कहा गया कि विश्वविद्यालय 'भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित उनकी पसंद का एक शैक्षणिक संस्थान" था और 'बाद में इसे एएमयू के रूप में शामिल किया गया'

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  6. 6. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा सरकार के कदम को बताया गैर-संवैधानिक

    2005 में एएमयू ने एक आरक्षण नीति लागू की, जिसके तहत मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए पोस्ट ग्रेजुएशन मेडिकल कोर्स में 50% सीटें आरक्षित की गईं. इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने उसी वर्ष आरक्षण को पलट दिया और 1981 अधिनियम को रद्द कर दिया. अदालत ने तर्क दिया कि एएमयू विशेष आरक्षण बरकरार नहीं रख सकता, क्योंकि एस. अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, यह अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में योग्य नहीं था.

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  7. 7. हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में दी गई है चुनौती

    2006 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कुल 8 याचिकाएं दाखिल हुईं, जिसमें एक याचिका मनमोहन सिंह नेतृत्व वाली तत्कालीन यूपीए सरकार की थी. लेकिन केंद्र में सरकार बदलने के बाद 2016 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह सरकार द्वारा दायर अपील को वापस ले रही है, और सरकार ने दलील दी कि 'वह एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना करते हुए नहीं दिख सकती'

    12 फरवरी, 2019 को तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने मामले को सात जजों की बेंच के पास भेज दिया. 9 जनवरी को भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई शुरू की, जो तीन दिनों तक चली लेकिन दलीलें अधूरी रहीं. इस मुद्दे पर अब अगली सुनवाई 23 जनवरी को होगी.

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  8. 8. केंद्र सरकार एएमयू की अल्पसंख्यक दर्जे की विरोध क्यों कर रही?

    केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देने का विरोध किया है. केंद्र ने कहा है कि एएमयू किसी विशेष धर्म का विश्वविद्यालय नहीं हो सकता है, क्योंकि यह हमेशा से राष्ट्रीय महत्व का विश्वविद्यालय रहा है. शीर्ष अदालत के समक्ष दायर अपनी लिखित दलील में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि 2016 में केंद्र सरकार का अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को अल्पसंख्यक दर्जे के लिए अपना समर्थन वापस लेने का निर्णय "केवल संवैधानिक विचारों" पर आधारित था क्योंकि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार का इसके लिए कानूनी रूप से लड़ने का रुख "सार्वजनिक हित के खिलाफ था" और हाशिये पर पड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सार्वजनिक नीति के विपरीत था.

    (क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

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किसी शैक्षणिक संस्थान को 'अल्पसंख्यक दर्जा' देना क्या है?

संविधान का अनुच्छेद 30(1) सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और प्रशासित करने का अधिकार देता है. यह प्रावधान यह गारंटी देकर अल्पसंख्यक समुदायों के विकास को बढ़ावा देने की केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता को मजबूत करता है कि यह उनके 'अल्पसंख्यक' संस्थान होने के आधार पर सहायता देने में भेदभाव नहीं करेगा.

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कब और कैसे हुई एएमयू की स्थापना ?

उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ शहर में 467.6 हेक्टेयर में फैला हुआ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की उत्पत्ति का पता मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल (एमओए) कॉलेज से लगाया जा सकता है, जिसकी स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान ने मुसलमानों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने और सरकारी सेवाओं के लिए तैयार करने में मदद करने के लिए की थी. 1920 तक विद्यालय 'अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी' के रूप में परिवर्तित हो गया. एमओए कॉलेज की सभी संपत्तियां विश्वविद्यालय को हस्तांतरित कर दी गईं. एएमयू अधिनियम के शीर्षक में लिखा था: "अलीगढ़ में एक शिक्षण और आवासीय मुस्लिम विश्वविद्यालय को शामिल करने के लिए एक अधिनियम."

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को 'अल्पसंख्यक दर्जा' देने का विवाद?

एमएमयू के अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे का विवाद काफी पुराना है. साल 1967 में 'एस. अजीज बाशा और अन्य बनाम भारत संघ' केस में AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर पहली बार सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. उस समय भारत के मुख्य न्यायाधीश केएन वांचू की अगुआई में कोर्ट ने 1920 के एएमयू ऐक्ट में 1951 और 1965 में किए गए बदलावों की समीक्षा की थी. इन बदलावों ने यूनिवर्सिटी को चलाने के तरीके को प्रभावित किया था.

एएमयू एक्ट में जो मुख्य बदलाव किए गए थे-

  • 1920 के अधिनियम के अनुसार आजादी से पहले विश्वविद्यालय का प्रमुख भारत के गवर्नर जनरल हुआ करते थे. लेकिन 1951 में इसे बदलकर 'लॉर्ड रेक्टर' के स्थान पर 'विजिटर' कर दिया गया और यह विजिटर भारत का राष्ट्रपति होता था.

  • साथ ही, एक ऐसा प्रावधान हटा दिया गया, जिसमें कहा गया था कि केवल मुस्लिम ही यूनिवर्सिटी कोर्ट का हिस्सा बन सकते हैं. इसके बाद गैर-मुस्लिमों को भी शामिल होने की इजाजत मिली.

  • इन बदलावों ने यूनिवर्सिटी कोर्ट के अधिकार कम कर दिए और एएमयू की कार्यकारी परिषद की शक्तियों को बढ़ा दिया. नतीजन, कोर्ट असल में 'विजिटर' की तरफ से नियुक्त निकाय बन गया.

एएमयू की संरचना में इन बदलावों को सुप्रीम कोर्ट में कानूनी चुनौती का सामना करना पड़ा. याचिकाकर्ताओं ने मुख्य रूप से इस आधार पर तर्क दिया कि मुसलमानों ने एएमयू की स्थापना की और इसलिए, उन्हें इसका प्रबंधन करने का अधिकार था. इन संशोधनों की चुनौती पर विचार करते समय शीर्ष अदालत ने 20 अक्टूबर, 1967 को कहा कि एएमयू की स्थापना न तो मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा की गई थी और न ही इसका संचालन किया गया था.

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सुप्रीम कोर्ट ने 1967 के फैसले में क्या कहा था?

सुप्रीम कोर्ट ने 1967 के अपने फैसले में कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक दर्जे का संस्थान होने का दावा नहीं कर सकता. कोर्ट ने कहा कि 1920 में मुसलमान भले ही एक विश्वविद्यालय स्थापित कर सकते थे लेकिन इससे यह गारंटी नहीं मिलती कि उस विश्वविद्यालय की डिग्री आधिकारिक तौर पर भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त होगी. इसलिए, कोर्ट ने जोर देकर कहा कि एएमयू की स्थापना एक केंद्रीय अधिनियम के माध्यम से की गई थी ताकि सरकार द्वारा उसकी डिग्री की मान्यता सुनिश्चित की जा सके.

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केंद्र सरकार ने किया एएमयू एक्ट में बदलाव

अजीज बाशा केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश भर में मुस्लिमों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. जिसके बाद तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने 1981 में एएमयू अधिनियम में एक संशोधन पेश किया. संशोधन में धारा 2(1) और उपधारा 5(2)(C) पेश की गई. जिसमें कहा गया कि विश्वविद्यालय 'भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित उनकी पसंद का एक शैक्षणिक संस्थान" था और 'बाद में इसे एएमयू के रूप में शामिल किया गया'

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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा सरकार के कदम को बताया गैर-संवैधानिक

2005 में एएमयू ने एक आरक्षण नीति लागू की, जिसके तहत मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए पोस्ट ग्रेजुएशन मेडिकल कोर्स में 50% सीटें आरक्षित की गईं. इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने उसी वर्ष आरक्षण को पलट दिया और 1981 अधिनियम को रद्द कर दिया. अदालत ने तर्क दिया कि एएमयू विशेष आरक्षण बरकरार नहीं रख सकता, क्योंकि एस. अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, यह अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में योग्य नहीं था.

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2006 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कुल 8 याचिकाएं दाखिल हुईं, जिसमें एक याचिका मनमोहन सिंह नेतृत्व वाली तत्कालीन यूपीए सरकार की थी. लेकिन केंद्र में सरकार बदलने के बाद 2016 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह सरकार द्वारा दायर अपील को वापस ले रही है, और सरकार ने दलील दी कि 'वह एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना करते हुए नहीं दिख सकती'

12 फरवरी, 2019 को तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने मामले को सात जजों की बेंच के पास भेज दिया. 9 जनवरी को भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई शुरू की, जो तीन दिनों तक चली लेकिन दलीलें अधूरी रहीं. इस मुद्दे पर अब अगली सुनवाई 23 जनवरी को होगी.

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केंद्र सरकार एएमयू की अल्पसंख्यक दर्जे की विरोध क्यों कर रही?

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देने का विरोध किया है. केंद्र ने कहा है कि एएमयू किसी विशेष धर्म का विश्वविद्यालय नहीं हो सकता है, क्योंकि यह हमेशा से राष्ट्रीय महत्व का विश्वविद्यालय रहा है. शीर्ष अदालत के समक्ष दायर अपनी लिखित दलील में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि 2016 में केंद्र सरकार का अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को अल्पसंख्यक दर्जे के लिए अपना समर्थन वापस लेने का निर्णय "केवल संवैधानिक विचारों" पर आधारित था क्योंकि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार का इसके लिए कानूनी रूप से लड़ने का रुख "सार्वजनिक हित के खिलाफ था" और हाशिये पर पड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सार्वजनिक नीति के विपरीत था.

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